खामियों से भरी पड़ी है यह रिपोर्ट / शादाब जफर ‘शादाब’


13 अक्टूबर 2010 को केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने जम्मू-कश्मीर पर वार्ताकारों के लिये एक दल का गठन किया। जिस में देश के वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, शिक्षाविद् राधाकुमार और पूर्व केन्द्रीय सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी को रखा गया। पहला सवाल सवाल यह उठता है कि पूरे देश से क्या जम्मू-कश्मीर वार्ता के लिये भेजे जाने के लिये ये तीन लोग ही हर लिहाज से उचित थे आखिर इन लोगों में ऐसी क्या खूबी है कि इन लोगों को चुना गया। शायद इस बात का जवाब खुद केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पास भी न हो क्योंकि कुछ बातों को देश हित में और कुछ को राजनीतिक गलियारों के हित में पर्द में ही रखना पड़ता है। लगभग दो दशक से धरती का स्वर्ग कश्मीर सुलग रहा है। कश्मीरी नौजवानों ने हिंसा का रास्ता क्यों चुना इन के हाथों में कापी किताबों की जगह 200 सौ 300 सौ रूपये देकर पत्थर किसने थमा दिये, कश्मीरी लडकियों को पढने लिखने से डर क्यों लगता है। घरों में घुस कर कौन इनकी इज्जत तार-तार कर रहा है। राह से भटके हुए इन कश्मीरी नौजवानों ने देश के जवानों और निर्दोष लोगों की हत्या करने की वैचारिक वैधता कहां से ढूढ निकाली। कई सालों से सरहद पार से ट्रेनिंग, पैसा और हथियार पाकर कश्मीरी आतंकवादियों ने देश में जिस प्रकार से दहशत फैला रखी है मार काट मचा रखी है। कश्मीरी आतंकवादियों के हमलों में देश के जवान शहीद हो रहे हैं। देश की करोडों रूपये की सम्पत्ति नष्ट हो रही है। भारत का कश्‍मीरी पर्यटन कश्‍मीरी हिंसा और आतंकवाद के कारण लगभग मृत हो चुका है। डलझील में पडे हाऊस बोर्ड पर्यटकों के लिये तरस गये है। वही कष्मीर के बेगुनाह आम नागरिक कुत्ते बिल्ली की तरह मारे जा रहे है। इन सब बातो को तीनों वार्ताकारों, पत्रकार दिलीप पडगांवकर, शिक्षाविद् राधाकुमार और पूर्व केन्द्रीय सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी ने पूरी तरह से नजर अन्दाज कर दिया, वही जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद एक प्रमुख चुनौती है, लेकिन वार्ताकारों ने इस मुद्दे को जरा भी छूने की कोशिश नहीं की है और न ही इसे खत्म करने के लिए कोई कारगर उपाय बताते हैं।

सन् 2010 में जम्मू-कश्मीर राज्य में पत्थरबाजी की घटना हुई। इसी परिदृश्य में केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने जम्मू और कश्मीर में स्थायी शांति, स्थिरता और खुशहाली को सुनिश्चित करने और कश्मीर मुद्दे का व्यापक राजनीतिक समाधान निकालने के लिए तीन वार्ताकारों के एक दल का गठन किया। वार्ताकारों के दल ने ‘जम्मू और कश्मीर की जनता के साथ एक नया समझौता (ए न्यू कॉम्पैक्ट विद द पीपुल ऑफ जम्मू एंड कश्मीर) नाम से रिपोर्ट बनाई। वार्ताकारों ने कुल 11 बार राज्य का दौरा किया और राज्य के सभी जिलों में प्रवास किया। उन्होंने 22 जिलों में 700 से अधिक प्रतिनिधियों से बात की और तीन गोलमेज़ सम्मेलनों में समूहों के साथ वार्ता की। वार्ताकारों ने राज्यपाल एनएन बोहरा, मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती और अन्य राजनीतिक पार्टियों के नेताओं, सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों, पत्रकारों और विभिन्न वर्गों के लोगों से व्यापक बातचीत की। जबकि कश्मीर के अलगाववादी नेताओं ने इन वार्ताकारों से मिलने तक से इनकार कर दिया। आज जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद कि जो हवा चल रही है उस में अनंतनाग को इस्लामाबाद कहने का एक फैशन चल निकला है कश्मीर के मुद्दे को लेकर आज देश का बच्चा बच्चा चिंतित है पर इन वार्ताकारों की रिर्पोट पढकर तो ऐसा लगता है कि मानो ये लोग वहा कोई पिकनिक मनाने गये हो। क्यो कि इन की रिर्पोट मे जो सिफारिशें है वो कांग्रेस की नीतियों के हिसाब से तो ठीक है पर देश हित में इसे कतई नहीं कहा जा सकता इन वार्ताकारों का प्रतिनिधिमंडल जिन बातों की सिफारिश कर रहा है वो अगर लागू कर दी जाये तो कश्मीर के साथ साथ देश में ऐसी आग लगे कि जिसकी कल्पना शायद इन लोगों ने भी ना की हो।

हमारे इन वार्ताकारो ने शायद ये रिपोर्ट इस आधार पर तैयार की गई है कि पीओके क्षेत्र का प्रशासन पाकिस्तान करता है और करता रहेगा तथा इसमें पीओके को पीएके (पाकिस्तान प्रशासित जम्मू और काश्मीर) के रूप में उल्लेख किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, बातचीत में अलगाववादियों, आतंकवादियों व पाकिस्तान समेत सभी पक्षों को शामिल किया जाए, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा जम्मू-कश्मीर पर गठित वार्ताकारों के दल ने कांग्रेस की तरह ही ढुलमूल नीतियां बनाने की सिफारिश की है। जिसकी आज चहुंओर आलोचना हो रही है। राष्ट्रवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों की चारों ओर बुलंद होती आवाजों की प्रखरता को देखते हुए खुद गृह मंत्रालय भी अब इसे स्वीकारने से हिचक रहा है।

वास्तव में पूरी तरह से हमारे ये वार्ताकार अपने मकसद से हट गये क्योंकि इस रिपोर्ट में बात होनी थी कश्मीर के उन नौजवानों की जिनके हाथों में किताबों की जगह कुछ भारत की तरक्की से जलने वालो लोगो ने पत्थर था दिये और जो आज गलत राजनीति के शिकार हो रहे है। कौन सा प्रतिनिधित्व इन्हे खून खराबे की गलत राह पर ले आया है, किस देशद्रोही रहनुमा ने इनकी सोच बदली है। आईएसआई तथा भारत की प्रगति से जलने वाले पडोसी देशों से मदद पाकर भूख और गरीबी से बेहाल ये लोग राह से क्यों भटक गये है अखबारो को इस पर भी लिखना और सरकार से बहस करनी चाहिये। सवाल ये भी उठता है कि इन कश्मीरी लोगों ने अपने आन्दोलन को खूनी क्यों किया ये लोग अपनी मांगों को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से लडाई लड़ने को तैयार क्यों नहीं हुए। बेगुनाह लोगों को मारने की क्या जरूरत है। जम्मू-कश्मीर भारत के विभिन्न प्रदेश में से एक प्रदेश है। आज भी वहां भारतीय मुद्रा और भारतीय संविधान चलता है। लोग आज भी जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय गीत पूरी श्रद्वा के साथ गाते हैं। देश के बुद्विजीवियों के लिये ये सारी बाते सोचने और चिंता करने की है। जम्मू कश्मीर में इन तीनो वार्ताकारों को भेजकर सरकार ने जो फैसला लिया वो सही है या गलत ये तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। पर जो रिर्पोट केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौपी गई है उस में ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर हम लोग इतनी जोर शोर से चर्चा करें।

जम्मू-कश्‍मीर के लिये गठित वार्ताकारों के दल ने राज्य में मीडिया की भूमिका पर जो गंभीर टिप्पणियां की हैं वो काबिले तारीफ है। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में राज्य से छपने वाले समाचार पत्रों के आर्थिक स्रोतों की जांच किसी सक्षम संस्था द्वारा कराये जाने की अनुशंसा की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर के समाचार प्रकाशकों का कहना है कि जो प्रदेश के समाचार-पत्र सरकार के इशारों पर नहीं चलते उनके विज्ञापन रोक दिये जाते हैं वहीं दूसरी ओर सरकार का इस आरोप पर ये कहना कि प्रदेश के कुछ समाचार पत्र निराधार खबरें छापते हैं तथा सरकार के विरुद्ध निंदा अभियान चलाते हैं। यानी वार्ताकारों की रिपोर्ट को सही दर्शाता है यानी जो समाचार पत्र सरकार के कहने पर नहीं चलते उन का उत्पीड़न किया जाता है।

3 COMMENTS

  1. शादाब जी आज वास्तव में कश्मीर के जो हालात है वो एक या दो दिन में नही हुए। कल तक जो कश्मीर दुनिया के लिये जन्नत था वो कश्मीर आज कश्मीर पूरी दुनिया के साथ साथ हिंदुस्तान के लिये एक ऐसा जख्म बन गया है जिस का इलाज करने के बजाए कांग्रेस इस में बार बार नमक लगा रही है। जम्मू कश्मीर वार्ताकारो ने भी कुछ ऐसा ही किया है या यू कहॅू कि कुछ किया ही नही है बस कश्मीर में जाकर पिकनिक मना कर आ गयें। आपने ने बहुत ही सुन्दर तरीको से अपने शब्दो के माध्यम से कश्मीर के हालात का चित्रण किया वही कश्मीर एक एक समस्या को सामने लाने की पूरी कोशिश की है। इस सुन्दर लेख के लिये मेरी ओर से बहुत बहुत बधाई।

  2. भाई शादाब जी के अच्छे विश्लेषण के लिए साधुवाद. लेकिन उनका कथन कि जम्मू कश्मीर में राष्ट्रगीत श्रद्धा से गया जाता है पूर्ण सत्य नहीं है.जम्मू व लद्दाख में तो ये श्रद्धा से गया जाता है लेकिन कश्मीर घाटी में तो विशेष अवसरों पर भी संगीनों के साए में ही राष्ट्रगान गया जा सकता है. वैसे तो कश्मीर कि समस्या जवाहरलाल नेहरु जी कि मूर्खता पूर्ण नीतियों और शेइख अब्दुल्ला कि अलगाववादी नीतियों का दुष्परिणाम है. इण्डिया इंडीपेंडेंस एक्ट के अनुसार सभी रियासतों को ये छोट थी कि वो भारत या पाकिस्तान किसी भी देश में मिल जाएँ. जम्मू कश्मीर के राजा हरी सिंह स्वंतंत्र रहना चाहते थे. नेहरूजी ने अन्य रियासतों से इतर जे एंड के के बारे में फैसला करने का अधिकार सरदार पटेल से लेकर अपने पास रख लिया. और जब अक्टूबर १९४७ में पाकिस्तान ने कबायलियों किए भेष में अपनी सेना कश्मीर में भेज कर चढ़ाई कर दी तो राजा हरी सिंह उसका मुकाबला नहीं कर पाए. ऐसे में वहां मौजूद आर एस एस के प्रचारक श्री बलराज मधोक से पंडित प्रेमनाथ डोंगरा ने संपर्क किया और आर एस एस के तत्कालीन मुखिया श्री गोलवलकर जी ने भी राजा से संपर्क किया. राजा के आग्रह पर संघ के स्वयंसेवकों ने श्रीनगर हवाई अड्डे की सुरक्षा की. तथा सरदार पटेल के साथ वार्ता के बाद जम्मू कश्मीर रियासत का बिना शर्त भारत संघ में विलय कर दिया गया. लेकिन जवाहरलाल नेहरु ने बिना वजह शेइख अब्दुल्ला को पार्टी बना लिया और उसे वहां की सत्ता सोंप दी. सरदार पटेल वहां विभाजन के बाद आये शरणार्थियों का एक हिस्सा जम्मू कश्मीर में बसना चाहते थे लेकिन उसे भी नेहरु ने नहीं माना. और अलगाववादियों के प्रति उनका मोह सदैव बना रहा. कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग स्वीकार करने के लिए डॉ.श्यामा प्रसाद मुख़र्जी ने आन्दोलन किया और शेइख अब्दुल्ला की जेल में रहस्यमयी परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी जिसकी जांच की उनकी माँ की मांग को नेहरूजी ने ठुकरा दिया. आज़ादी के बाद कई लाख करोड़ रुपये वहां के लोगों को खुश करने में भारत सर्कार ने खर्च कर दिए लेकिन अलगाव की भावना को कम नहीं कर पाई. १९८० के दशक में जनरल जिया उल हक़ ने कश्मीर को हडपने के लिए ‘ओपरेशन टोपाक’ घोषित किया जिसे कुछ समाचार पत्रों ने छपा. लेकिन हमारे पाकिस्तान प्रेमी कुछ वरिष्ट पत्रकारों ने ये प्रचार किया की ये घोषणा किसी पत्रकार के दिमाग की उपज है जबकि यदि १९८९ से अब तक की घटनाओं को सिलसिलेवार देखा जाये तो सब कुछ उस घोषणा के हिसाब से ही चल रहा है. भारत सर्कार द्वारा नियुक्त तीन सदस्यीय वार्ता दल ने जो कुछ कहा है वो प्रकारांतर जम्मू कश्मीर पर से भारत का एकीकरण समाप्त करने की और उठाने वाले कदम साबित होंगे. और उनसे इस से ज्यादा की उम्मीद करना भी व्यर्थ था. क्योंकि उनमे ऐसे लोग भी शामिल थे जो पाकिस्तान के अमेरिका में एजेंट फाई के आतिथ्य का लुत्फ़ और सुविधाओं का भोग कर चुके थे. पाकिस्तान का नमक खानेवालों से देशहित की बात करने की अपेक्षा बेमानी ही थी. ये रिपोर्ट रद्दी की टोकरी में डाल देने लायक है.ये भी गौरतलब है की भारत सर्कार को ये रिपोर्ट कई माह पूर्व प्राप्त हो गे थी लेकिन सर्कार ने इसे तुरंत देश को बताना जरूरी नहीं समझा और जब इसके कुछ अंश मिडिया में अ गए तो मजबूरन इसे सार्वजनिक करना पड़ा. सभी देशभक्त लोगों का फर्ज है की इस रिपोर्ट का पुरजोर विरोध करें.

  3. “”लोग आज भी जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय गीत पूरी श्रद्वा के साथ गाते हैं।” “” हा हा हा हा मैं हँसते हँसते अपनी कुर्सी से गिर गया.

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