जलवायु समझौते की ओर दुनिया

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संदर्भः- जलवायु सम्मेलन पेरिस

प्रमोद भार्गव

 

जलवायु परिवर्तन में नियंत्रण के लिए पेरिस मे बारह दिनी जलवायु सम्मेलन शुरू हो गया है। संयुक्त राष्ट्र के 195 सदस्य देश इसमें भागीदारी कर रहें हैं। इस बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने पर वैश्विक सहमति बनने की उम्मीद इसलिए है क्योंकि

अमेरिका, चीन और भारत जैसे औद्योगिक देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने पर रजामंदी पहले ही जता दी है। साथ ही माल्टा के प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कट ने पर्यावरण परियोजनाओं के समर्थन के लिए एक अरब डाॅलर की राशि राष्ट्रमण्डल द्वारा शुरू की गई हरित वित्त संस्था को देने की घोषणा की है। तैयार हो रही इस पृष्ठभूमि से लगता है पेरिस का जलवायु सम्मेलन दुनिया के लिए फलदायी सिद्ध होने जा रहा है।

jalvayuअमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जलवायु में हो रहे  परिवर्तन को नियंत्रित करने की दृष्टि से ‘अमेरिका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में एक तिहाई कमी लाने की घोषणा पहले ही कर दी है। चीन और भारत ने भी लगभग इतनी ही मात्रा में इन गैसों को कम करने का वादा अंतरराष्ट्रिय मंचों से किया है। ऐसा इसलिए जरूरी है, क्योंकि धरती के भविष्य को इस खतरे से बढ़ी दूसरी कोई चुनौती नहीं है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए ये देश कोयला आधारित बिजली का उत्पादन कम करेंगे। अमेरिका में कोयले से कुल खपत की 37 फीसदी बिजली पैदा की जाती है। कोयले से बिजली उत्पादन में अमेरिका विष्व में दूसरे स्थान पर है। पर्यावरण हित से जुड़े इन लक्ष्यों की पूर्ति 2030 तक की जाएगी।

पिछले साल पेरु के शहर लीमा में 196 देश वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए राष्ट्रिय संकल्पों के साथ, आम सहमति के मसौदे पर राजी हुए थे। इस सहमति को पेरिस में शुरू हुए अंतरराष्ट्रिय जलवायु सम्मेलन की सफलता में अहम् कड़ी माना जा रहा है। दुनिया के तीन प्रमुख देशों ने ग्रीन हाउस गैसों में उत्सर्जन कटौती की जो घोषणा की है, उससे यह अनुमान लगाना सहज है कि पेरिस सम्मेलन में सार्थक परिणाम निकलने वाले हैं। यदि इन घोषणा पर अमल हो जाता है तो अकेले अमेरिका में 32 प्रतिशत जहरीली गैसों का उत्सर्जन 2030 तक कम हो जाएगा। अमेरिका के 600 कोयला बिजली घरों से ये गैसें दिन रात निकलकर वायुमंडल को दूशित कर रही हैं। अमेरिका की सड़को पर इस समय 25 करोड़ 30 लाख कारें दौड़ रही हैं। यदि इनमें से 16 करोड़ 60 लाख कारें हटा ली जाती हैं तो कार्बन डाई आॅक्साइड का उत्पादन 87 करोड़ टन कम हो जाएगा।

पेरू में वैश्विक जलवायु परिवर्तन अनुबंध की दिशा में इस पहल को अन्य देशों के लिए भी एक अभिप्रेरणा के रूप में लेना चाहिए। क्योंकि भारत एवं चीन समेत अन्य विकासशील देशों की सलाह मानते हुए मसौदे में एक अतिरिक्त पैरा जोड़ा गया था। इस पैरे में उल्लेख है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े काॅर्बन उत्सर्जन कटौती के प्रावधानों को आर्थिक बोझ उठाने की क्षमता के आधार पर देशों का वर्गीकरण किया जाएगा,जो हानि और क्षतिपूर्ति के सिद्धांत पर आधारित होगा। अनेक छोटे द्विपीय देशों ने भी इस सिद्धांत को लागू करने के अनुरोध पर जोर दिया था। लिहाजा अब धन देने की क्षमता के आधार पर देश काॅर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के उपाय करेंगे। माल्टा के प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कट ने छोटे द्वीपीय 53 देशों वाले राष्ट्रमण्डल का नेतृत्व करते हुए ही 1 अरब डाॅलर की राशि देने की घोषणा की है।

पेरू से पहले के मसौदे के परिप्रेक्ष्य में भारत और चीन की चिंता यह थी कि इससे धनी देशों की बनिस्बत उनके जैसी अर्थव्यवस्थाओं पर ज्यादा बोझ आएगा। यह आशंका बाद में ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्जियन’ के एक खुलासे से सही भी साबित हो गई थी। मसौदे में विकासशील देशों को हिदायत दी गई थी कि वे वर्ष 2050 तक प्रति व्यक्ति 1.44 टन काॅर्बन से अधिक उत्सर्जन नहीं करने के लिए सहमत हों, जबकि विकसित देशों के लिए यह सीमा महज 2.67 टन तय की गई थी। इस पर्दाफाष के बाद काॅर्बन उत्सर्जन की सीमा तय करने को लेकर चला आ रहा गतिरोध पेरू में संकल्प पारित होने के साथ टूट गया था। नए प्रारूप में तय किया गया है कि जो देश जितना काॅर्बन उत्सर्जन करेगा, उसी अनुपात में उसे नियंत्रण के उपाय करने होंगे। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में फिलहाल चीन शीर्श पर है। अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे पायदान पर है। अब इस नए प्रारूप को ‘जलवायु कार्रवाई का लीमा आह्वान’ नाम दिया गया है। पर्यावरण सुधार के इतिहास में इसे एक ऐतिहासिक समझौते के रुप में देखा जा रहा है। क्यांेकि इस समझौते से 2050 तक काॅर्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत तक की कमी लाने की उम्मीद जगी है।

यह पहला अवसर था, जब उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ चुके चीन, भारत, ब्राजील और उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं अपने काॅर्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए तैयार हुईं थीं। सहमति के अनुसार संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य देश अपने काॅर्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को पेरिस सम्मेलन में पेश करेंगे। यह सहमति इसलिए बन पाई थी, क्योंकि एक तो संयुक्त राष्ट्र के विषेश दूत टाॅड स्टर्न ने उन मुद्दों को पहले समझा, जिन मुद्दों पर विकसित देश समझौता न करने के लिए बाधा बन रहे थे। इनमें प्रमुख रुप से एक बाधा तो यह थी कि विकसित राष्ट्र, विकासशील राष्ट्रों को हरित प्रौद्योगिकी की स्थापना संबंधी तकनीक और आर्थिक मदद दें। दूसरे, विकसित देश सभी देशों पर एक ही सशर्त आचार संहिता थोपना चाहते थे, जबकि विकासशील देश इस शर्त के विरोध में थे। दरअसल विकासशील देशों का तर्क था कि विकसित देश अपना औद्योगिक – प्रौद्योगिक प्रभुत्व व आर्थिक समृद्धि बनाए रखने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा का प्रयोग कर रहे हैं। इसके अलावा ये देश व्यक्तिगत उपभोग के लिए भी ऊर्जा का बेतहाशा दुरुपयोग करते हैं। इसलिए खर्च के अनुपात में ऊर्जा कटौती की पहल भी इन्हीं देशों को करनी चाहिए। विकासशील देशों की यह चिंता वाजिब थी, क्योंकि वे यदि किसी प्रावधान के चलते ऊर्जा के प्रयोग पर अकुंष लगा देंगे तो उनकी समृद्ध होती अर्थव्यवस्था की बुनियाद ही दरक जाएगी। भारत और चीन के लिए यह चिंता महत्वपूर्ण थी, क्योंकि ये दोनों, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देश हैं। इसलिए ये विकसित देशों की हितकारी इकतरफा शर्तां के खिलाफ थे।

अब पेरिस में समझौते का स्पष्ट और बाध्यकारी प्रारूप सामने आएगा। लिहाजा अनेक सवालों के जवाब फिलहाल अनुत्तरित बने हुए हैं। पेरु मसौदे में इस सवाल का कोई उत्तर नहीं है कि जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए वित्तीय स्त्रोत कैसे हासिल होंगे और धनराशि संकलन की प्रक्रिया क्या होगी ? हालांकि अमेरिका के विदेश मंत्री जाॅन केरी ने पेरू में जो बयान दिया था, उससे यह अनुमान लगा था कि अमेरिका जलवायु परिवर्तन के आसन्न संकट को देखते हुए नरम रुख अपनाने को तैयार हो सकता है।  क्योंकि केरी ने तभी कह दिया था कि ‘गर्म होती धरती को बचाने के लिए जलवायु परिवर्तन पर समझौते के लिए अब ज्यादा विकल्पों की तलाश एक भूल होगी, लिहाजा इसे तत्काल लागू करना जरुरी है।’ अमेरिका को यह दलील देने की जरूरत नहीं थी, यदि वह और दुनिया के अन्य अमीर देश संयुक्त राष्ट्र की 1992 में हुई जलवायु परिवर्तन से संबंधित पहली संधि के प्रस्तावों को मानने के लिए तैयार हो गए होते ? इसके बाद 1997 में क्योटो प्रोटोकाॅल में भी यह सहमति बनी थी कि काॅर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण सभी देशों का कर्तव्य है, साथ ही उन देशों की ज्यादा जवाबदेही बनती है जो ग्रीन हाउस गैसों का अधिकतम उत्सर्जन करते हैं। लेकिन विकसित देशों ने इस प्रस्ताव को तब नजरअंदाज कर दिया था, किंतु अब सही दिशा में आते दिख रहे हैं।

दरअसल जलवायु परिवर्तन के असर पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सन् 2100 तक धरती के तापमान में वृद्धि को नहीं रोका गया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। क्योकि इसका सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ रहा है। भविष्य में अन्न उत्पादन में भारी कमी की आशंका जताई जा रही है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एशिया के किसानों को कृषि को अनुकूल बनाने के लिए प्रति वर्ष करीब पांच अरब डाॅलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। अंतरराष्ट्रिय खाद्य नीति शोध संस्थान के अनुसार, अगर यही स्थिति बनी रही तो एशिया में 1 करोड़ 10 लाख, अफ्रीका में एक करोड़ और षेश दुनिया में 40 लाख बच्चों को भूखा रहना होगा। इसी सिलसिले में भारत के कृषि वैज्ञानिक डाॅ स्वामीनाथन ने कहा है कि यदि धरती के तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाती है तो गेहूं का उत्पादन 70 लाख टन घट सकता है। लिहाजा वैज्ञानिकों की मंशा है कि औद्योगिक क्रांति के समय से धरती के तापमान में जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसे 2 डिग्री सेल्सियस तक घटाया जाए। अब असली परिणाम पेरिस में शुरू हुए इस सम्मेलन में दिखाई देंगे।

2 COMMENTS

  1. आज के मनुष्य की जीवन शैली ऐसी बनती जा रही है की उसे रोज अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है. ऊर्जा के जो साधन विकासशील देश प्रयोग कर रहे है उससे प्रदूषण होता है जिससे जलवायु परिवर्तन को अधिक गति मिल रही है. विकसित देशो के पास ऐसी तकनीकी है जिससे विकाशशील देश साफ़ और स्वच्छ ऊर्जा बनाने का काम तीव्रता के साथ कर सकते है. लेकिन विकसित देश उन टेकनलोजी को विकाशशील देशो से साझा करना नहीं चाहते. अगर वे इमानदार है तो वैसी टेक्नोलोजी को विकासशील देशो के साथ साझा करे.

  2. पर्यावरण के हद से ज्यादा दूषित होने और उससे उत्पन्न हानियों से अधिकतर लोग परिचित हैं,पर इस मामले में सबसे लापरवाह भारतीय है. मैं नहीं मैं समझता कि मैं इसे एक मानक के रूप में पेश करने में सक्षम हूँ,पर विशेषज्ञों की सीमा रेखा से नीचे उतर कर अगर देखा जाये,तो मेरे विचार से अभी तक एक आम भारतीय ने इससे होने वाले विनाश को समझा ही नहीं है.यह अंतर तब और स्पष्ट हो जाता है,जब हम वर्तमान के सबसे बड़े प्रदूषित नगरों पर नजर डालते हैं.,.वे नगर हैं,भारत की राजधानी दिल्ली और चीन की राजधानी बीजिंग. वर्तमान समय में दोनों लगभग प्रदुषण की एक ही अवस्था से गुजर रहे है,पर जब कि चीन ने एलर्ट जारी कर दिया है,हमारी सरकार या सरकारें अभी भी सो रही है.दिल्ली सरकार द्वारा कार मुक्त दिवस मनाये जाने के बाद यह प्रमाणित हो गयाहै कि दिल्ली के प्रदुषण के सबसे बड़े मुजरिम गाड़ियां हैं,इसमे भी डीजल गाड़ियां प्रथम स्थान पर आती हैं. गाड़ियों के प्रदूषण नियंत्रण या डीजल गाड़ियों के हटाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं कियाजा रहा है.मैंने केवल एक छोटे से उदाहरण से इसको समझने का प्रयत्न किया है. विश्व पर्यावरण सम्मलेन में बड़ी बड़ी बातें तो होती ही रही हैं.फिर प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है,क्योंकि कोई आगे बढ़ कर दूसरों के लिए उदहारण नहीं बनना चाहता.

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