सियासी संकट से उबरता जम्मू-कश्मीर

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संकट

bjp pdpप्रमोद भार्गव

सियासी गुणाभाग की होड़ में जम्मू-कश्मीर नाजुक स्थिति की ओर बढ़ रहा था। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और महबूबा मुफ्ती की मुलाकात ने नई उम्मीदों को हवा दी और जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने का सियासी संकट लगभग दूर हो गया। महबूबा मुफ्ती के पीडीपी विधायक दल की नेता चुनी जानी के बाद साफ हो गया है कि महबूबा पीडीपी-भाजपा गठबंधन की राज्य में एक बार फिर से सरकार बनने जा रही है। महबूबा राज्य की मुख्यमंत्री बनेंगी। महबूबा के रूप में इस राज्य को पहली महिला मुख्यमंत्री मिलेगी।

महबूबा ने मोदी से मुलाकात के बाद जो खुशफहमी जाहिर की है,उससे लगता है कि सरकार बनाने की राह में आ रही मुश्किलें लगभग सुलझ गई हैं। जबकि महबूबा की भाजपा अध्यक्ष अमीत शाह से मुलाकात के बाद ऐसा लगा था कि गठबंधन के रास्ते करीब-करीब बंद हो गए हैं। यदि भाजपा और पीडीपी गठबंधन की सरकार वजूद में आ जाती है तो कश्मीर में जो हालात बेकाबू होते दिख रहे हैं,वे नियंत्रित हो जाएंगे। क्योंकि कश्मीर के सबसे ज्यादा हालात बद्तर राष्ट्रपति शासन के दौरान ही हुए है। कश्मीर से जब पंडितों को रातों-रात ट्रक-बसों में लादकर विस्थापित किया गया था,तब राज्य में राष्ट्रपति शासन था और जगमोहन राज्यपाल थे। उस समय उनकी जल्दबाजी में पंडितों के विस्थापन का जो फैसला लिया गया,उसी का परिणाम है कि आज तक पंडितों का पुश्तैनी घरों में पुनर्वास नहीं हो पाया है।

दरअसल भाजपा कश्मीर में बड़े धर्म-संकट से गुजर रही है। एक तो विचारों की असमानता झेलते हुए उसने मुफ्ती मोहम्मद के साथ सरकार बनाई, दूसरे उसने इस मकसद की पूर्ति के लिए डाॅ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के उन सिद्धांतों को दरकिनार कर दिया था,जिनके लिए मुखर्जी बलिदान हुए थे। असल में एक सच्चे राष्ट्रभक्त होने के नाते मुखर्जी यह कतई स्वीकारने को तैयार नहीं थे कि,एक संप्रभु राष्ट्र के किसी एक राज्य में दो विधान,दो निशान और दो प्रधान के नियम लागू हों। 1950 में नेहरू और लियाकत अली के बीच हुए समझौते के तहत जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए ये शर्तें मंजूर की गई थीं और शेख अब्दुल्ला को इस राज्य का प्रधानमंत्री बना दिया गया था। तब मुखर्जी नेहरू मंत्री-मंडल में मंत्री थे। उन्होंने इस समझौते का कड़ा विरोध करते हुए मंत्री-मंडल से इस्तीफा तक दे दिया था। वे धारा 370 के भी प्रखर विरोधी थे। इनका प्रबल विरोध करते हुए उन्हें श्रीनगर में हिरासत में लेकर कारागार में डाल दिया गया,जहां संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मौत गई थी। किंतु इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि मुखर्जी को आदर्श मानने वाली भाजपा के विधायकों ने इसी श्रीनगर में दो विधान और दो झंडों के बीच न केवल शपथ ली,बल्कि सत्ता में भागीदारी भी की। हालांकि इसे कश्मीर का माहौल बदलने की दृष्टि से एक उदार कोषिष मानी जा सकती है,लेकिन जिस तरह से महबूबा नई शर्तें थोपने में लगी थीं,उन्हें यदि भाजपा मान लेती तो इस पहल को भाजपा भले ही अपनी उपलब्धि मानती,मुखर्जी के सिद्धांतों पर तो ये शर्तें पलीता लगाने का ही काम करती ?

दरअसल पीडीपी नई शर्तें को थोपने के तहत चाहती थी कि जम्मू-कश्मीर में अफस्पा यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून लगभग निष्प्रभावी हो जाए। भारत सरकार की पाक से जो भी द्विपक्षीय वार्ताएं हों,उसमें तीसरे पक्ष के रूप में कश्मीर के अलगाववाद से जुड़े हुर्रियत नेताओं को शामिल किया जाए। इनमें से ज्यादातर वही नेता हैं,जो राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से जुड़े हैं। देशविरोधी नारे लगाने के मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक एसएआर गिलानी को दिल्ली की एक अदालत से जमानत मिल जाने के चलते अलगाववादियों को वार्ता में शामिल करने का पक्ष और मजबूती मिली है। गिलानी पर संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू के समर्थन में नारे लगाने का आरोप था। ये नारे पिछले महीने दिल्ली के प्रेस क्लब में आयोजित एक कार्यक्रम में लगाए गए थे। हालांकि गिलानी स्वयं 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले में आरोपी थे,लेकिन सबूतों के अभाव में दिल्ली उच्च न्यायलय ने अक्टूबर 2003 में गिलानी को आरोप मुक्त कर दिया था। 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसी फैसले को यथावत रखा।

पीडीपी की एक बेहूदी शर्त यह भी थी कि केंद्र सरकार ग्रेटर जम्मू-कश्मीर में दोहरी मुद्रा की नीति लागू करे। ऐसा होता, तो इस भूभाग में भारतीय मुद्रा ‘रुपया‘ को खुलेआम चुनौती देने वाला फैसला होता। किसी संप्रभु राष्ट्र के किसी एक राज्य में अलग संविधान और ध्वज के बाद यदि मुद्रा भी पृथक हो जाती है,तो फिर उस राज्य की एक स्वतंत्र देश की मांग में कमी ही क्या रह जाती ? इस प्रमुख शर्त के अलावा जम्मू-कश्मीर के लिए प्रस्तावित विद्युत परियोजनाओं, कोयला खदानों में हिस्सेदारी और सिंधु जल संधि के मुआवजे के संदर्भ में भी इकतरफा शर्तें पीडीपी मनवाना चाहती थी पीडीपी की शर्त यह भी थी कि जम्मू-कश्मीर में सेना उन जगहों को खाली करे,जिन्हें पीडीपी अवैध कब्जा मानती है। इस कड़ी में सेना इसी महीने के अंत तक चार स्थल छोड़ भी देगी। इनमें श्रीनगर स्थित 212 एकड़ का टट्टू मैदान, जम्मू विश्वविद्यालय परिसर की 16.30 एकड़ भूमि,अनंतनाग की 456.60 एकड़ भूमि और कारगिल की तलहटी में मौजुद खुरबा थांग की भूमि शामिल है। इस फैसले को इस दृष्टि से महत्वपूर्ण मना जा सकता है कि इसे अमल में लाने से भाजपा और पीडीपी गठबंधन में विश्वास की बहाली होगी,लेकिन शहरी क्षेत्रों से सेना के हटने से इन क्षेत्रों में अलगाववादी गतिविधियां बढ़ने की आषंका है। हालांकि अब भाजपा ने साफ कर दिया है कि उसने पीडीपी की कोई नई शर्त नहीं मानी है। गठबंधन की वही शर्तें रहेंगी,जो उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने सरकार बनाने से पहले तय की थीं।

इधर पाक अधिकृत कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में चीन के सीधे दखल ने भारत की चिंताएं और बढ़ा दी हैं। पीओके से लगी भारत की नियंत्रण रेखा के पास चीनी सेना पीपुल्स लिबरेषन आर्मी की मौजदूगी देखी गई है। उत्तरी कश्मीर के नवगाम सेक्टर में नियंत्रण रेखा के उस पार की पहली पंक्ती की चैकियों पर पीएलए के वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे। भारतीय सेना ने इन आधिकारियों की उपस्थिति की सूचना सांकेतिक वार्ता के रूप में भारत की गुप्तचर संस्थाओं को दी,जिसे भरोसे के सूत्रों से मीडिया ने खबर बनाया। हालांकि अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना की बेजा हरकतें सामने आती ही रहती हैं,किंतु पीओके में नियंत्रण रेखा के पास उसकी उपस्थिति इस हरकत की नई कड़ी है।

दरअसल चीन पाकिस्तान में 46 अरब डाॅलर का निवेष कर रहा है। इस राशि से वह सड़क,रेलमार्ग और बंदरगाह विकसित करने में लगा है। इस विकास के बहाने चीन ने पीओके क्षेत्र में दखल देना शुरू कर दिया है,जो भारत के लिए आपत्तिजनक है। क्योंकि एक तो पीओके वास्तव में भारत का है,साथ ही चीन भी इस पूरे क्षेत्र को विवादित मानता रहा है,बावजूद वह पीओके में बुनियादी ढांचों को विकसित कर रहा है,तो यह सीधे-सीधे भारत के लिए दंभपूर्ण चुनौती तो है ही,इस हस्तक्षेप से यह भी संकेत मिलता है कि चीन ने अब इस क्षेत्र को विवादित मानना बंद कर दिया है।

बुनियादी ढांचे के विकास के तहत चीन लीपा घाटी में सुरंग बनाने का काम कर रहा है। इस सुरंग को आकार देने का मकसद काराकोरम राजमार्ग तक ऐसी सड़क बनाना है,जहां से सभी मौसमों में आवाजाही बने रहे। चीन पीओके में पाक को पन-बिजली संयंत्र लगाने में भी मदद कर रहा है। पाक इस संयंत्र को भारत की किशनगंगा बिजली परियोजना की होड़ में तैयार कर रहा है। खैर परियोजनाओं का उद्देश्य जो भी हो,अंततः ये तमाम कारगुजारियां भारत विरोधी हैं और भारत को इन्हें जबरदस्त कूटनीतिक चुनौती के रूप में लेने की जरूरत है। ऐसी नाजुक स्थितियों का मुकबला एक चुनी हुई समर्थ सरकार ही कर सकती है।

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