जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों के छिपे समर्थक

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

जम्मू कश्मीर तीन दशकों से भी ज़्यादा समय से आतंकवादियों की चपेट में है । यह आतंकवाद पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित है , इसमें भी कोई संशय नहीं है । सुरक्षाबलों पर हमला करने के लिए आतंकवादी अपनी रणनीति बनाते हैं ताकि वे उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा नुक़सान पहुँचा सकें । इस रणनीति में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है सुरक्षा बलों पर चोरी छिपे घात लगाकर आक्रमण करना । यही कारण है कि अनेकबार ऐसे हमलों में आतंकवादियों के बजाए सुरक्षाबलों के जवानों को ज़्यादा नुक़सान होता है । इधर आतंकवादियों ने अपनी रणनीति में एक नया इज़ाफ़ा किया है । अपने छिपने या हमला करने के आसपास वे अपनी पत्थर फेंक पलटन के लोगों को भी तैयार रखते हैं । आतंकवादी गिरोहों ने कश्मीर घाटी में जगह जगह पत्थर फेंक पलटनें तैयार की हैं जिनका बहुविधि इस्तेमाल किया जाता है । इन्हें इस्लाम के लिए पैसा दिया जाता है । बैसे भी पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद में पैसा बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । प्रदेश में आतंकवादी गिरोहों ने पत्थर फेंक पलटनों में भर्ती के लिए बाक़ायदा कुछ लोगों की नियुक्ति की हुई है । वे प्रदेश के युवकों को आतंकवादी गिरोहों में शामिल हो जाने के लिए उनकी विविध तरीक़ों से घेराबन्दी करते हैं । पत्थर फेंक पलटनों में काम करने के लिए ऐसे नौजवानों को घेरते हैं जो घरबार छोड़कर इन गिरोहों में शामिल नहीं हो सकते । जब की कश्मीर घाटी के किसी आवासीय इलाक़ों में सुरक्षाबल आतंकवादियों को घेर लेते हैं तो उस इलाक़े की पत्थर फेंक पलटन को आतंकवादी आसपास तैनात कर देते हैं । इस्लाम के लिए उस इलाक़े के स्लीपिंग सैल का प्रयोग किया जाता है । स्लीपिंग सैल में ऐसे लोग होते हैं जो उपर से अपने रोज़मर्रा के कामकाज में ही लगे होते हैं । इसलिए वे कभी शक के घेरे में नहीं आते । ये सैल अपने अपने इलाक़े में आतंकवादी गिरोहों को लोजिस्टक सुपोर्ट मुहैया करवाते हैं । इस प्रकार किसी भी आतंकवादी तंजीम का काम तरने का तरीक़ा त्रि आवृत्तिय है । सबसे पहला घेरा स्लीपिंग सैलों यानि एसएस का , दूसरा घेरा पत्थर फेंक पलटनों यानि पीपीपी का और इन दो घेरों के अन्दर आतंकवादी लड़के । एसएस और पीपीपी को आधार बना कर आतंकवादी गिरोह सुरक्षा बलों का मुक़ाबला करते हैं । यदि इस प्रकार की मुठभेड़ों में एसएस और पीपीपी के लोग मारे जाते हैं तो कश्मीर घाटी का मीडिया तुरन्त उन्हें सिविलियन बताना शुरु कर देता है और सुरक्षाबलों के हाथों निर्दोष कश्मीरियों के मारे जाने का ढोल पीटना शुरु कर देता है । आतंकवादी गिरोहों को इस बात की कोई चिन्ता नहीं होती कि मुठभेड़ में इस प्रकार के तथाकथित सिविलियन कितने मारे जाते हैं । जितने ज़्यादा मरते हैं , प्रचार युद्ध में उन्हें इसका उतना ही ज़्यादा मनोवैज्ञानिक लाभ मिलता है ।
इसके विपरीत सुरक्षाबलों की रणनीति की अपनी सीमाएँ हैं । सुरक्षाबल यदि कश्मीर घाटी के किसी आवासीय इलाक़े में आतंकवादियों को घेर लेते हैं तो अमूमन वे लाऊडस्पीकरों से उन्हें आत्मसमर्पण के लिए कहते हैं और इसका अवसर भी प्रदान करते हैं । सुरक्षाबलों की रणनीति अपराधी को पकड़ने की ही रहती है , अपराधी चाहे आतंकवादी ही क्यों न हो , ताकि न्याय के लिए उन्हें क़ानून के आगे प्रस्तुत किया जा सके । यह सुरक्षाबलों की रणनीति की सीमा होती है , इसके कारण कई बार उनका ज़्यादा नुक़सान भी होता है । अनुशासित सुरक्षाबल होने के कारण उन्हें यह नुक़सान उठाना ही होता है । लेकिन पिछले कुछ अरसे से घिर जाने की स्थिति में आतंकवादी गिरोहों ने मुठभेड़ के अवसर पर अपनी रणनीति में परिवर्तन किया है , जिसका संकेत उपर दिया गया है । सुरक्षाबलों से मुठभेड़ के अवसर पर पीपीपी के रंगरूटों को भी उस स्थान पर बुला लिया जाता है । ये रंगरूट सुरक्षाबलों पर पत्थर चलाने की भूमिका निभाते हैं । अन्तर केवल इतना ही होता है कि आतंकवादी किसी मकान में छिप कर सुरक्षाबलों पर गोलियाँ चलाते हैं और पीपीपी के रंगरूट खुले में ही सुरक्षाबलों पर पत्थर चलाते हैं । आतंकवादियों और पीपीपी के रंगरूटों की इस संयुक्त रणनीति के कारण सुरक्षाबलों को ख़ासा नुक़सान उठाना पड़ रहा है ।
लेकिन इस सबके बावजूद सेनाध्यक्ष विपिन रावत ने किसी भी कार्यवाही से पहले पीपीपी के रंगरूटों को सबसे पहले चेतावनी देना ही बेहतर समझा । उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि जब आतंकवादियों और सुरक्षाबलों की मुठभेड़ होती है , उस समय पत्थर फेंकने वालों , पाकिस्तान और आई एस आई एस के झंडे फहराने वालों को भी छिपे हुए आतंकवादियों का साथी ही समझा जाएगा और उन पर उसी प्रकार की कार्यवाही की जाएगी । रावत का तर्क मानवीय दृष्टि से बिल्कुल ठीक कहा जाएगा । जब गोलियाँ चला रहे आतंकवादियों को सुरक्षा बल समर्पण करने का एक मौक़ा देते हैं और मुठभेड ले पहले चेतावनी भी देते हैं तो पीपीपी के रंगरूटों को , जो पत्थर ही फेंकते हैं तो उनको चेतावनी का एक अवसर क्यों न दिया जाए ? कोई और देश होता तो सेनाध्यक्ष की इस पहल की प्रशंसा की जाती लेकिन यहाँ उलटा हो रहा है । नैशनल कान्फ्रेंस के अब्दुल्ला परिवार ने रावत की इस चेतावनी का बहुत विरोध किया है । फारुक और उमर दोनों बहुत ग़ुस्से में है । उनका कहना है कि कश्मीरी नौजवानों को मारने की कोशिश की जा रही है । उनको इस प्रकार डराया नहीं जा सकता । उनसे प्यार से बातचीत करनी चाहिए । अब्दुल्ला परिवार नहीं समझ रहा कि प्यार के कारण ही चेतावनी दी जा रही है , अन्यथा सेना के प्रशिक्षण में चेतावनी नहीं बल्कि अचानक धावा बोलने को सही रणनीति माना जाता है । लेकिन अब्दुल्ला परिवार का कश्मीरी युवा से कुछ लेना देना नहीं है । उन्हें किसी भी हालत में राज्य की सत्ता वापिस चाहिए । यही कारण ही कि सत्ता की छटपटाहट में वे हुर्रियत कान्फ्रेंस में सिमट गए हैं और प्रदेश के युवाओं को हुर्रियत के साथ काम करने की अपील कर रहे हैं । सभी जानते हैं कि हुर्रियत कान्फ्रेंस मोटे तौर पर आतंकवादियों की ओवरग्राऊंड ब्रिगेड के तौर पर काम कर रही है ।
लेकिन असली आश्चर्य तो सोनिया कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सोनिया गान्धी के बहुत नज़दीक़ी ग़ुलाम नवी आज़ाद के माध्यम से सामने आई कांग्रेस की रणनीति को लेकर हो रहा है । ग़ुलाम नबी आज़ाद कुछ समय के लिए जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और आजकल राज्य सभा में विपक्ष के नेता हैं । उन्होंने कहा कि सेनाध्यक्ष द्वारा कश्मीरी नौजवानों को इस प्रकार धमकाने की नीति को किसी लिहाज़ से भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता । जैसे जैसे कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों और आतंकवादियों में लड़ाई तेज़ होती जा रही है और एक निर्णायक मोड़ पर पहुँच रही है वैसे वैसे कश्मीरी युवा के नाम की आड़ में , उनसे सहानुभूति रखने वाले सामने आने को विवश हो रहे हैं । इससे सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कश्मीर घाटी में आज तक आतंकवादियों का दबदबा कैसे बना रहा । विपक्ष, ख़ास कर सोनिया कांग्रेस को कश्मीर घाटी में आतंकवाद की आड़ में राजनीति नहीं कंपनी चाहिए और सेना को अपने राजनैतिक फ़ायदे के लिए निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए ।

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