जन-क्रांति की रक्षा करना भी जनता का कर्तव्य है

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श्रीराम तिवारी

एक लोक कथा है ……एक गाँव में खेती किसानी करने वाले किसान रहते थे, उस गाँव में एक जमींदार हुआ करता था. गाँव में दो कुए थे, एक कुआं पूरे गाँव के लिए दूसरा सिर्फ जमींदार के लिए.जमींदार का कुआं उसकी बड़ी-सी हवेली की चहार दीवारी के अंदर था. इसीलिये जमींदार के कुएं का पानी सुरक्षित था. गाँव वाला याने जनता का कुआं सभी गाँववालों को उपलब्ध था ,बाहर से आने वाले राहगीर भी उसी कुएं के पास जा मुन के पेड़ की छाँव में विश्राम करते और जनता के कुएं का पानी पीते ,वहीं नहाते धोते. एक बार एक महात्मा जी उस गाँव से गुजरे ,वहीं कुएं की जगत पर बैठ कर हुक्का गुडगुडाया और कोई जडी-मूसली चुटकी भर फांकी और आगे की ओर चल दिए.बाबाजी ने जो जडी बूटी फाँकी उसका थोडा सा हिस्सा कुएं के पानी में जा मिला.गाँव वालों ने जब पानी पिया तो वे सभी असमान्य {पागलपन} व्यवहार करने लगे. जो किसान कल तक जमींदार का आदाब करते थे, उसकी चिरोरी करते थे वे सभी अब इस कुएं के पानी में मिली बाबाजी की जडी-बूटी के प्रभाव से निडर होकर जमींदार का तिरस्कार करने लगे, उसकी बेगारी से इंकार करने लगे, वे आपस में चर्चाओं में जमींदार को पागल कहने लगे. जमींदार से डरने के बजाय उसे डराने लगे. यहाँ तक नौबत आ पहुंची कि जब जमींदार ने अपने लाठेतों की मार्फ़त जनता को दबाना चाहा तो गाँव के किसान मजदूर-आवाल- वृद्ध सभी के सभी जमींदार की हवेली को चारों ओर से घेरकर आग लगाने को उद्यत हो गए.

किस्सा कोताह ये कि जमींदार की हालत हुस्नी मुबारक जैसी होने लगी तो उसके चतुर सुजान कारिंदों ने जमींदार के नमक का हक अदा करते हुए यह अनमोल सुझाव दिया कि श्रीमान जमींदार साहब -ये किसान स्त्री -पुरुष -बच्चे -बूढ़े इसलिए बेखौफ हो गए हैं कि इन्होंने गाँव के जिस कुएं का पानी पिया है उसमें किसी बाबाजी कि जादुई भस्म उड़ कर मिल गई थी; सो उस पानी को पीकर ये सभी जो कल तक आपके गुलाम थे; वे बौरा गए हैं. अब यदि आप उनसे बुरा बर्ताव करेंगे या उन पर घातक आक्रमण करेंगे तो वे आपको जिन्दा नहीं छोड़ेंगे. जमींदार ने अपने विश्वसनीय कारिंदों से गंभीर सलाह मशविरा किया और निर्णय लिया कि जनता के कुएं का पानी मंगाया जाये.जनता के कुएं का पानी पीकर जमींदार जब जनता के सामने आया तो उसे सामने अकेले निहत्था खड़ा देखकर भी जनता ने उस पर आक्रमण करने के बजाय जमींदार- जिंदाबाद के नारे लगाए. गाँव वाले स ब आपस में कहने लगे कि हमारा जमींदार अब अच्छा हो गया है. अब हम जमींदार कि बात मानेगे.बेगारी करेंगे, जमीदार जुग-जुग जियें …… दुनिया के जिस किसी भी मुल्क कि जनता-वैचारिक जडी-बूटी खा-पीकर जब इस तरह से बौरा जाती (क्रान्तिकारी हो जाती) है तो सत्ता-शिखर की सुरक्षा में, क्रान्ति को दबाने में उन्ही मूल्यों की जडी-बूटी पीकर शासक वर्ग सुरक्षित बच निकलने की कोशिश करता है. बराक ओबामा का भारत और चीन के विरुद्ध अमेरिकी युवाओं का आह्वान, दिवालिया कम्पनियों को वेळ आउट पैकेज, अपने निर्यातकों को संरक्षण और विदेशी आयातकों पर प्रतिबन्ध- ये सभी व्यवहार हृदय-परिवर्तन या जन-कल्याण के हेतु नहीं हैं.यह सरासर धोखाधड़ी है. अपने वित्त पोषकों (राजनैतिक पार्टी कोष में चंदे का धंधा) को उपकृत करना ही एकमात्र ध्येय है. जमींदार ने गाँव के कुएं का गंदा पानी इसलिए नहीं पिया कि वो गाँव की जनता को भ्रातृत्व भाव से चाहने लगा था बल्कि गाँव के लोगों को ठगने के लिए ;क्रांति को कुचलने के लिए यह सत्कर्म किया था.वर्तमान पूंजीवादी-साम्राज्यवाद भी इसी तरह कभी चिली में ,कभी क्यूबा में ,कभी वियतनाम में ,कभी कोरिया में ,कभी अफ्गानिस्तान में और कभी इजिप्ट में ऐसे ही प्रयोग किया करता है ….

पाकिस्तान का परवेज मुशर्रफ- जिसने पाकिस्तान का सत्यानाश तो किया ही भारत के खिलाफ भी अनेकों घटिया हरकतें कीं थीं , यह आज दुनिया के सबसे महंगे जर्मन हॉस्पिटल का लुफ्त उठा रहा है. ट्युनिसिया का भगोड़ा राष्ट्रपति ,फिलिपीन्स का मार्कोश , उगांडा का ईदी अमीन -सबके-सब अपने-अपने दौर में जीवन-पर्यन्त सत्ता सुख भोगते रहे और जब जन-विद्रोह के आसार नजर आये तो अमेरिका या ब्रिटेन में मुहँ छिपा कर बैठ गए या जनता के बीच में आकार खुद ही छाती पीटने लगे और कभी-कभार अपनों के हाथों तो कभी विदेशियों के हाथों सद्दाम कि मौत मारे गए.वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट से तब तक निजात मिल पाना असम्भव है, जब तक कि श्रम के मूल्य का उचित वैज्ञानिक निर्धारण नहीं हो जाता और असमानता कि खाई पाटने की ईमानदार कोशिश नहीं की जाती.शासक वर्ग यदि अपने पूर्ववर्ती शासकों की ”लाभ-शुभ” केन्द्रित राज¯-संचलन व्यवस्था को नहीं पलटता और उसके नीति-निर्देशक सिद्धांतों में सम्पत्ति के निजी अधिकार से ऊपर जनता के सामूहिक स्वामित्व को प्रमुखता नहीं देता तब तक वर्गीय समाज रहेगा. जब तक वर्गीय समाज है तो उनमें अपने हितों के लिए संघर्ष चलता रहेगा. इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप यदि सत्ता वास्तविक रूप से जनता के हाथों में नहीं आती तो आंतरिक उठा-पटक की मशक्कत बेकार है.इतिहास के अनुभव बताते हैं कि अंधे पीसें कुत्ते खाएं …कई मर्तबा ईमानदार क्रान्तिकारी नौजवानों ने शहादतें दी और सत्ता पर कोई और जा बैठा. ईराक, अफगानिस्तान कि तरह कहीं मिस्र में भी अमेरिकी एजेंट सत्ता न संभाल लें? अन्याय और शोषण से लड़ने , अपने हक के लिए संघर्ष करने जैसे पवित्र और पुनीत कार्य दुनिया में अन्य कोई भी नहीं किन्तु जोश के साथ-साथ जनता के नेतृत्व का होश भी बहुत जरुरी है, नेतृत्व-निष्ठा पाकिस्‍तानी शासक जैसी सम्राज्य-परस्त और भारत-विरोधी हो तो वो दुनिया में कितनी भी पवित्र हो हमें मंजूर नहीं करना चाहिए.दुनिया में किसी भी जन-आक्रोश या जन-उभार के प्रति भारतीय जन-गण की प्रतिक्रिया उसके राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में ही दी जानी चाहिए.

भारत के स्वाधीनता-संग्राम का इतिहास साक्षी है कि देश के लिए कुर्बान होने वाले किसान-मजदूर-नौजवान जिस विचारधारा से प्रेरित होकर हँसते-हँसते फांसी के तख्ते पर चढ़े उसको विदेशी शासकों के देशी एजेंटों ने हासिये पर धकेल दिया है. भारतीय संविधान-निर्माताओं ने तो उन अमर शहीदों के सपनों को साकार करने वाले नीति-निर्देशक सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है, किन्तु स्वातन्त्रोत्तर काल में परिवर्ती शासकों ने विदेशी श्वेत प्रभुवर्ग की जगह स्वदेशी भूस्वामियों, सरमायेदारों की प्रतिमा का चरणवंदन ही किया है.भारत में आइन्दा जो भी राजनैतिक बदलाव हो वह यकीनी तौर पर सुनिश्चित हो कि धर्म, जाति, वर्ण, भाषा या रूप रंग से परे आर्थिक समानता के निमित्त वास्तविक संवैधानिक गारंटी हो. इजिप्ट या अन्य विकासशील देशों से इतर भारत में जन उभार धीमें-धीमे परवान चढ़ता है वैसे तो वर्तमान में बेतहाशा महंगाई, बेरोजगारी, भयानक भृष्टचार सारी दुनिया में व्याप्त है, सारा विश्व उसी मांद का पानी पिए हुए है जिसका कि मिस्र ने पी रखा है यह जन-उभार कि आंधी किसी भी राष्ट्र को बख्शने वाली नहीं. बारी-बारी सबकी बारी.जनक्रांति कि भी जनता को ही करनी होगी रखवारी.

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