देश में हरेक व्यक्ति का खाता हो,यह अच्छी बात है। लेकिन महज बैंक खाता खुल जाने से व्यक्ति की तकदीर बदल जाएगी,वित्तिय अछूतता या भेदभाव दूर हो जाएगा,यह भ्रम है। बल्कि जन-धन योजना के तहत बैंक खाते खोले जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ है,उसकी परछाईं में कई आशंकाएं तो उत्पन्न हुई ही हैं,इस छलावे से जुड़े कुछ सत्य भी सामने आने लगे हैं। इससे पता चलता है कि यह योजना भी कहीं आधार की तरह बेअसर न होने लग जाए। क्योंकि योजना के तहत जो डैविट कार्ड,ओवर ड्राफ्ट के रूप में पांच हजार रूपए और बीमा धन देने की शर्तें जोड़ी गई हैं,उन्हें पूरा करना आसान नहीं है। सच्चाई तो यह है कि आवारा पूंजी और पूंजी का कुछ हाथों में केंद्रीयकरण जिस तरह से लोगों के बीच आर्थिक असामनता बढ़ा रहा है,उससे वित्तीय छूआछूत और तेजी से बढ़ रही है। जनधन योजना के परिप्रेक्ष्य में एक आशंका यह भी बढ़ी है कि केवल राष्ट्रियकृत बैंकों में खाते खोले जाने हैं। इससे इन बैंकों में भीड़ बढ़ेगी। लिहाजा इस भीड़ से बचने के लिए जो नियमित खातेदार हैं और जिनका अरबों रूपए इन बैंकों में सवीधि योजनाओं के तहत जमा है वह अपनी धन-राशि निकालकर निजी बैंकों में जमा करने का रूख कर सकते हैं ? यह स्थिति निर्मित होती है तो सरकारी बैंक ही अछूत के दायरे में आ जाएंगे। मसलन इन बैंकों का वही हश्र हो सकता है,जो सरकारी क्षेत्र के शिक्षा,स्वास्थ्य और राज्य परिवहन सेवाओं में निजीकरण को बढ़ावा देने से हुआ है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनधन योजना को वित्तीय छुआछुत दूर करने के रूप में पेश किया है। लेकिन शुरूआत के पहले चरण में ही,इस योजना के गर्भ में छिपे छलावे सामने आने लगे हैं। आ रही खबरों के मुताबिक शिवपुरी के बैंक आॅफ इंडिया में जब कुछ गरीब ग्रामीण खाते खोलने गए तो उनका खाता खोलने से इनकार कर दिया गया। अपनी प्रतिक्रिया में बैंक की प्रबंधक शशि पंडित ने निसंकोच कहा कि हमें केवल 200 खाता खोलने का लक्ष्य दिया था,जो पूरा हो गया है। अब नया खाता 500 रूपए जमा किए बिना नहीं खुलेगा। योजना से जुड़ी दूसरी नकारात्मक खबर ग्वालियर से है। यहां के ज्यादातर बैंकों के बाहर दलाल सक्रिय हो गए हैं। आवेदन फाॅर्म अंग्रेजी में होने के कारण लोगों को फार्म भरने में दिक्कतें आ रही हैं। ये दलाल फाॅर्म भरने और खाता खुलवाने की सुविधा शुल्क 500 रूपए वसूल रहे हैं।
इस सिलसिले में तीसरी महत्वपूर्ण खबर आई है कि जनधन योजना के तहत खुलने वाले बैंक खातों पर 30,000 का जीवन बीमा मुफ्त में नहीं मिलेगा। इसके लिए लाभार्थियों को प्रीमियम राशि चुकानी पड़ सकती है। वित्त मंत्रालय और भारतीय जीवन बीमा निगम के बीच न्यूनतम प्रीमियम राशि क्या हो,यह चर्चा चल रही है। इस बाबत एक बड़ी विंसगति यह भी सामने आ रही है कि जीवन बीमा अदा करने की जबावदेही तो एलआईसी को सौंपी जाएगी,लेकिन दुर्घटना बीमा भुगतान की जिम्मेबारी एचडीएफसी और एग्रो जनरल इन्शुरन्स निजी कंपनियां कराएंगी। वित्त मंत्री अरूण जेटली पहले ही साफ कर चुकें हैं कि प्रीमियम का आंशिक भुगतान लाभार्थी को करना जरूरी होगा। गौरतलब है कि जब सरकारी बीमा योजनाएं भी सुस्पष्ट और पारदर्शी नहीं होती तो निजी बीमा कंपनियां साफगोई और पारदर्शिता क्यों अपनाने लगीं ? जाहिर है,जो बीमा दुर्घटना जैसी आकस्मिक घटनाओं की स्थिति में पारिवार के आर्थिक हालात अच्छे बनाए रखने के लिए किए जाते हैं,उनके निराकरण में भी चुनौती पेश आती हैं। ज्यादातर मामलों में मध्यवर्ग को लंबी कानूनी लड़ाई के बाद राशि लोक अदालतों के जरिए ही मिल पाती है। इन पाॅलाशियों में कई पेच होते है,जिन्हें उपभोक्ता अंगे्रजी में होने के कारण समझ नहीं पाता। लिहाजा यह जरूरी किया जाए कि पालसियों की शर्तें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में हों। दुर्घटना बीमा में किसान द्वारा की जा रही आत्महात्या को भी जोड़ा जाए ? क्योंकि आर्थिक नवउदारवाद के लागू होने के बाद तीन लाख से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें से ज्यादातर किसान वे हैं,जिन्होंने कृषि उपकरणों और खाद-बीज के लिए बैंकों से ऋण लिया है। जाहिर है,खेती-किसानी से जुड़े व्यक्ति की आत्महात्या को दुर्घटना बीमा में जोड़ा जाए,जिससे लाचार व्यक्तियों के परिजनों की सामाजिक सुरक्षा बनी रहे। यदि इस शर्त के लागू होने के पष्चात भी निजी बीमा कंपनियां दुर्घटना बीमा की जिम्मेबारी लेती हैं,तो राष्ट्र और कमजोर वर्ग के प्रति उनकी उदारता पेश आएगी।
जनधन को लेकर एक बड़ी चिंता यह भी उभरी है कि इस योजना के चलते कहीं सरकारी बैंक दिवालिए न हो जाएं ? क्योंकि प्रधानमंत्री ने योजना की शुरूआत करते हुए कहा था कि सभी साढ़े सात करोड़ खाताधारियों को पांच हजार रूपए ओवर ड्राफ्ट के रूप में दिए जाएंगे। यह राशि वाकई इन खातों में पहुंचाई जाती है तो 37 अरब से भी ज्यादा होगी। इस राशि के एक बार निकलने के बाद जमा होने की कोई गारंटी नहीं है। ऐसी अवस्था में राष्ट्रियकृत बैंक किस आर्थिक दुर्दशा का शिकार होंगे,इसका अंदाजा लगाना ही मुश्किल है ? इस शंका को इसलिए भी बल मिलता है,क्योंकि निजी बैंक इस योजना के दायरे में नहीं हैं। यदि वाकई यह योजनाओं छल और शंकाओं से परे होती तो निजी बैंकों को भी इस योजना से जोड़ने को बाध्य किया जाता ?
आधिकतर खाताधारियों को ओवर ड्राफ्ट के रूप में 5000 रूपए न देना पड़ें,शायद इसलिए कुटिल चतुराई से योजनाकारों ने यह शर्त भी जोड़ दी है कि जो खाताधारक छह माह तक पैसे का लेन-देन सफलतापूर्वक करेंगे,उन्हें ही ओवर डाफ्ट की राशि निकालने की सुविधा दी जाएगी। मसलन यह बैंक के विवेक पर छोड़ दिया गया है कि वे किन खातों को सफल मानें और किन्हें नहीं ? इसी तरह 30 हजार रूपए के जीवन बीमा के भी वे खाताधारी पात्र होंगे जो 26 जनवरी 2015 तक खाते खुलवाएंगे। हालांकि यह संख्या तीन करोड़ के करीब तो अभी पहुंच गई और यदि बैंक संबंधी जटिलताएं नहीं बनी रहती हैं तो नए साल में गणतंत्र दिवस तक योजना लक्ष्य के कारीब होगी। लेकिन इस बीमा धन को एलआईसी वाकई चुकाती है तो उसकी बद्हाली तय है। यदि देश के सरकारी बैंक और बीमा कंपनियां खस्ताहाल हो जाते हैं तो सरकार इनकी सुढृढ़ता के लिए कालांतर में निजीकरण की पहल भी कर सकती है। औद्योगिक घरानों की मंशा भी यही है कि सरकारी बैंक डूब जाएं और उन्हें इनके अधिग्रहण का अवसर मिल जाएं।
किसी भी योजना के विरोधाभासी पहलू होते हैं। स्वाभाविक है इसके भी हैं। केंद्र सरकार की परोक्ष मंशा हो सकती है कि वह लालच के जरिए बड़ी संख्या में खाते खुलवाकर विकेंद्रित ग्रामीण पूंजी का केंद्रीयकरण करले और फिर सरकार उस पूंजी को उद्योगों और तथाकथित स्मार्ट शहर के निर्मताओं को बतौर कर्ज दे दे ? क्योंकि सरकार की मंशा यदि इस योजना को चलाने में साफ होती तो वह पहले राष्ट्रियकृत बैंकों की जो दो लाख करोड़ रूपए की गैरनिष्पादित परिसंप्तियां मसलन नाॅन परफाॅर्मिंग एसेट्स हैं,उन्हें वसूल कर बैंकों की वित्तीय स्थिति मजबूत करती। इन संपत्तियों में से एक तिहाई तो केवल 30 बड़े औद्योगिक घरानों के पास हैं। इनमें भी 50 हजार करोड़ रूपए ऐसे बड़े कर्जधाराकों के पास हैं,जिन्होंने 10 करोड़ या इससे अधिक राशि कर्ज ली है। आखिर इस धन की वसूली में सरकार और बैंक प्रबंधन क्यों सख्ती नहीं बरत रहे ? जबकि इस धनराशि में लगातार वृद्धि हो रही है। इस उगाही पर संजीदा न होना,संदेह को जन्म देता है।
जनधन योजना को जिस तरह से वित्तीय छूआछूत को दूर करने के आत्मकेंद्रित व अतिवादी आर्थिक क्रांति के रूप में पेश किया जा रहा है,यह छूआछूत तो वास्तव में इंदिरा गांधी ने निजी बैंकों का राष्ट्रियकरण करके दूर की थी। इसके बाद से ही आम आदमी को लोककल्याणकारी योजनाओं में सब्सिडी,कृषि-ऋण और शिक्षित बेरोजगारों बिना ब्याज कर्ज मिलने की शुरूआतें हुईं। गरीबों के बैंकिंग समावेशन का काम संप्रग सरकार में भी हुआ। मनरेगा,पेंशन और छात्रवृत्यिों के साथ रसोई गैस व उवर्रकों पर सब्सिडी के लिए पिछले वित्तीय वर्ष में ही करीब छह करोड़ नो फ्रिल यानी मामूली रकम से खाते खोले गए हैं। लेकिन इन खातों को लेकर मनमोहन सरकार ने कोई ढोल नहीं पीटा। हकीकत में बैंक खाते एक सुविधा हैं,गरीबी उन्नमूलन का न तो ये स्थायी हल हैं और न ही खाता खुल जाने से जरूरतमंद साहूकार के पास जाने से रूकेगा। क्योंकि गरीबी एक ऐसा अभिशाप है,जिसमें धन की जरूरत कभी खत्म नहीं होती। अभी तक हम किसान व गरीब के शोषण के लिए महाजनी सभ्यता को दोष देते रहे हैं,लेकिन बैंक भी अब बैंकिंग सुविधा के बदले रिश्वत लेने लगे हैं। लिहाजा बैंकिंग प्रणाली इस संदर्भ में निरापद नहीं रही है। इससे बेहतर है नरेंद्र मोदी आर्थिक विशंमता दूर करने का काम करें ? क्योंकि आधार योजना को भी वित्तीय समावेशन और व्यक्ति की विशिष्ट पहचान का आधार माना गया था, लेकिन यह योजना किस हाल में है,राजग सरकार से यह तथ्य छिपा नहीं है।
हर योजना के साथ कई अगर कई मगर लगे ही रहते हैं,अपने लाभ , अपने नुक्सान भी हर योजना के साथ जुड़े हुए होते हैं ,इसलिए इस विषय में यही सोचा जा सकता है कि उसे किस प्रकार अधिक से अधिक विवाद रहित बनाया जाये, सबसे बड़ा पक्ष तो यह कि किसी भी योजना को सफल बनाने का श्रेय लागू करने वालों व लाभान्वित होने वालों पर निर्भर करता है , सरकार किसी भी दल की क्यों न हो , वह योजना बना लागू कर सकती है। इस योजना की सफलता, असफलता भी इन लोगों पर निर्भर करती है हर पक्ष का जिम्मेदार होना जरुरी है, और दुर्भाग्यवश वह तत्व ही हम में नहीं है