जारवा आदिवासियों को कानूनी संरक्षण

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प्रमोद भार्गव

अंडमान-निकोबार के जारवा आदिवासियों के लिए कानून-

लुप्तता के कगार पर खड़ी जनजाति को कानूनी संरक्षण मिलने जा रहा है। इस कानून के अमल के आने के बाद जरवा समुदाय नुमाइश और मनोरंजन के जीव नहीं रह जाएंगे। केंद्र सरकार ने इनके लिए ‘अंडमान-निकोबार द्वीप समूह (आदिवासियों का संरक्षण) संशोधन नियमन विधेयक 2012 को मंजूरी दे दी है। राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद यह कानून प्रभावशील हो जाएगा। कानून के मुताबिक जारवा आदिवासी सुरक्षित क्षेत्र के आस-पास 5 किमी के दायरे में पर्यटन करना अपराध होगा। साथ ही विडियो या फोटोग्राफी करना भी अनाधिकृत कर दिया गया है। कानून का पालन नहीं करने पर 7 साल की सजा और 10 हजार रूपए तक का जुर्माना भी भर सकता है। हालांकि निकोबार प्रशासन ने भी इस जनजाति के लिए सुरक्षित क्षेत्र में प्रवेश नहीं करने वाली एक अधिसूचना जारी की थी, लेकिन कोलकाता उच्च न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया था। जिसकी अपील सर्वो न्यायालय में लंबित है। केंद्रीय कानून बन जाने के बाद इस अधिसूचना का अब कोर्इ महत्व नहीं रह गया है।

इस समुदाय के संरक्षण के लिए यह कानून बेहद जरूरी था। क्योंकि हमारे समाज की दशा और दिशा अर्थतंत्र तय करने लगे हैं इसलिए मापदण्ड तय करने के तरीके बदल गए हैं। यही कारण है कि हम जिन्हें सभ्य और आधुनिक समाज का हिस्सा मानते हैं, वे लोग प्राकृतिक अवस्था में रह रहे लोगों को इंसान मानने की बजाय जंगली जानवर ही मानते हैं। आधुनिक कहे जाने वाले समाज की यह एक ऐसी विडंबना है, जो सभ्यता के दायरे में कतर्इ नहीं आती। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में रह रहे लुप्तप्राय जारवा प्रजाति की महिलाओं को स्वादिष्ट भोजन का लालच देकर सैलानियों के सामने नचाने के कुछ मामले बि्रटिश अखबारों में छप थे। इनके नग्न विडियो-दृश्य भी इंटरनेट का हिस्सा बनाए गए थे। जिन्हें शासन-प्रशासन ने झुठलाने की कवायद की थी। जबकि हकीकत यह थी कि अभयरण्यों में दुर्लभ वन्य जीवों को देखने की मंशा की तरह, दुर्लभ मानव प्रजातियों को भी देखने की इच्छा नव-धनाढयों और रसूखदारों में पनप रही है, और जिस सरकारी तंत्र को आदिवासियों की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया है, वही इन्हें लालच देकर नचवाने का काम कर रहे हैं। इसी कुतिसत मानसिकता के चलते जारवाओं को इंसानों की बजाए पर्यटक मनोरंजक खिलौने मानकर चलने लगे थे। यहां यह भी एक विचित्र विडंबना है कि एक ओर तो हम दया और करूणा जताते हुए सर्कसों और मदारियों द्वारा वन्य जीवों के करतब दिखाए जाने पर अंकुश लगाने की वकालात करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने में मगन निर्वस्त्र जन-जातियों को नचाने के लिए मजबूर करते हैं।

लंदन के अखबार आब्जर्वर ने जारवा जनजाति के मोबाइल फोन से फिल्ममार्इ गर्इं दो फिल्में जारी की थीं। इनमें से एक फिल्म 3.19 मिनट की थी, जिसमें एक पुलिस अधिकारी के सामने नृत्य करती हुर्इ जारवा जाति की अर्धनग्न लड़कियां दिखार्इ गर्इं थीं। दूसरे वीडियों में सेना की वर्दी पहने बैठे एक व्यकित के सामने अन्य जारवा युवतियां नाच रही थीं। अखबार ने दावा किया था कि ये वीडियो नए हैं और इनकी सुरक्षा में लगे अधिकारियों की मिली भगत से सामने आए हैं। इसके पहले विदेशी सैलानियों के सामने इन महिलाओं को नचाने के जो वीडियो जारी किए गए थे, उनका फिल्मांकन गोपनीय ढंग से इसी अखबार के पत्रकार ने किया था। इस कारण देश में हल्ला मचा और केंद्र सरकार को मजबूरी में इस समुदाय के संरक्षण के लिए कानून बनाना पड़ा।

आधुनिक विकास और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए वन कानूनों में लगातार हो रहे बदलावों के चलते अंडमान में ही नहीं देश भर की जनजातियों की संख्या लगातार घट रही हैं। आहार और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों की कमी होती जा रही है। इन्हीं वजहों के चलते अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में अलग-अलग दुर्गम टापुओं पर जंगलों में समूह बनाकर रहने वाली जनजातियों का अन्य समुदायों और प्रशासन से बहुत सीमित संपर्क है। यही वजह है कि इनकी संख्या घटकर महज 381 रह गर्इ है। एक अन्य टापू पर रहने वाले ग्रेट अंडमानी जनजाति के लोगों की आबादी लगभग 97 है। इन लोगों में प्रतिरोधात्मक क्षमता इतनी कम होती है कि ये एक बार बीमार हुए तो इनका बचना नमुमकिन हो जाता है। एक तय परिवेश में रहने के कारण इन आदिवासियों की त्वचा बेहद संवेदनशील हो गर्इ है। लिहाजा यदि ये बाहरी लोगों के संपर्क में लंबे समय तक रहते हैं तो ये रोगी हो जाते हैं और उपचार के अभाव में दम तोड़ देते हैं। अब इनकी प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने के लिए टीकाकरण और पौषिटक खुराक देने के उपाय किए जा रहे हैं।

करीब एक दशक पहले तक ये लोग पूरी तरह निर्वस्त्र रहते थे, लेकिन सरकारी कोशिशों और इनकी बोली के जानकार दुभाषियों के माध्यम से समझार्इश देने पर इन्होंने थोड़े-बहुत कपडे़ पहनने अथवा पत्ते लपेटने शुरू कर दिए हैं। इसीलिए ब्रिटिश अखबार के जरिए जिन वीडियो दृश्यों की जानकारी सामने आर्इ है, उनमें जारवा महिलओं को कपड़े पहने नृत्य करते दिखाया गया था। इस कारण तय हुआ था कि ये वीडियो नये हंै। पूछताछ से खुलासा हुआ था कि बि्रटिश अखबार के ‘द आब्जर्वर के पत्रकार को पोर्टब्लेयर के राजेश व्यास और टैक्सी चालक इनके निवास स्थल तक ले गए थे। वहां इन्होंने स्वादिष्ट भोजन के चंद निवाले डालकर इनसे नृत्य कराया और फिल्मांकन किया। जबकि यह क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय और स्थानीय प्रशासन के दिशा-निर्देशों के अनुसार पर्यटन के लिए पूरी तरह प्रतिबंधित है। इन्हें संपूर्ण संरक्षण देने की दृषिट से अंडमान टं्रक रोड को बंद करके समुद्र से ऐसा मार्ग बनाए जाने की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं, जो जारवा संरक्षित क्षेत्र से होकर न गुजरे।

दरअसल हमारे यहां ऐसे योजनाकार और अर्थशासित्रयों का एक दल पैदा हो गया है, जो भूमि, जंगल और खनिजों को आर्थिक संपत्ति मानते हैं। इनका कहना है कि इस प्राकृतिक संपदा पर दुर्भाग्य से ऐसी छोटी व मझोली जोत के किसानों और वनवासियों का वर्चस्व है, जो अयोग्य व अक्षम है। सकल घरेलू उत्पाद दर में लगातार वृद्धि के लिए जरूरी है, ऐसे लोगों से खेती योग्य भूमियां छीनी जाएं और उन्हें विशेष व्यावसायिक हितों, शापिंग मालों और शहरीकरण के लिए अधिग्रहण कर लिया जाए। इसी तर्ज पर जिन जंगलों और खनिज ठिकानों पर जन-जातियां आदिकाल से रहती चली आ रही हैं, उन्हें विस्थापित कर संपदा के ये अनमोल क्षेत्र औधोगिक घरानों को उत्खनन के लिए सौंपे जा रहे हैं। इस मकसद पूर्ति के लिए ‘क्षतिपूर्ति वन्यरोपण विधेयक 2008 बिना किसी बहस-मुवाहिशे के पारित करा दिया गया था। जबकि इसके मसौदे को जनजातियों, वनों और खनिज संरक्षण की दृषिट से गैर-जरूरी मानते हुए संसद की स्थायी समिति ने खारिज कर दिया था। लेकिन कंपनियों को सौगात देने की कड़ी में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने समिति की सिफारिश को दरकिनार कर यह विधेयक पारित करा दिया। यही कारण है देश में जितने भी आदिवासी बहुल इलाके हैं, उन सभी में इनकी संख्या तेजी से घट रही है।

जारवा जनजातियों को मनोरंजन के जीव मानकर चलना एक शर्मनाक पहलू था। यह शोषण और अमानवीयता का चरम है। चंद निवालों के लालच में यदि परदेशियों के सामने अर्धनग्न जारवा महिलाएं नाच रही हैं तो विकास का ढिंढोरा पीट रहे देश के लिए लज्जा में डूब मरने की बात है। क्योंकि ये भोले और मासूम जारवा नहीं जानते कि कथित रूप से सभ्य मानी जाने वाले दुनिया में नग्नता बिकती है। किंतु इसके ठीक विपरीत जो लोग धन का लालच देकर इनकी नग्नता के दृश्य कैमरे में कैद करते हैं, वे जरूर अच्छी तरह से जानते हैं कि यह नग्नता उनके व्यापारिक प्रतिष्ठान की टीआरपी बढ़ाने की सस्ती और जुगुप्सा जगाने वाली अचरज भरी वीडियो क्लीपिंग है। इस लिहाज से जन्मजात अवस्था में रह रहे जारवाओं की मासूमियत को बेचने के गुनाहों पर इस कानून के अमल में आने के बाद अंकुश लगने की उम्मीद है। इसी तरह का एक मामला ओड़ीशा के प्राचीन आदिवासियों को लेकर भी सामने आया है। इन्हें भी एक सफारी में सैलानियों के सामने नचाया गया था।

हालांकि हमारे देश के सांस्कृतिक परिवेश में नग्नता कभी फूहड़ अश्लीलता का पर्याय नहीं रही। पाश्चात्य मूल्यों और भौतिकवादी आधुनिकता ने ही प्राकृतिक व स्वाभाविक नग्नता को दमित काम-वासना की पृष्ठभूमि में रेखांकित किया। वरना हमारे यहां तो खजुराहों, कोणार्क और कामसूत्र जैसे नितांत व मौलिक रचनाधर्मिता से स्पष्ट होता है कि एक राष्ट्र के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में हम कितनी व्यापक मानसिक दृषिट से परिपक्व लोग थे। लेकिन कालांतर में विदेशी आक्रांताओं के शासन और उनकी संकीर्ण कार्य-प्रणाली ने हमारी सोच को बदला और नैसर्गिक नग्नता, फूहड़ सेक्स का उत्तेजक हिस्सा बन गर्इ। इसीलिए कहना पड़ता है कि कथित रूप से हम आधुनिक भले ही हो गए हों, लेकिन सभ्यता की परिधि में आना अभी बांकी है। वरना जो आदिम जातियां प्रकृति से संस्कार व आहार ग्रहण कर अपना जीवन-यापन कर रही हैं, उन्हें ‘मानव मानने की बाजए चिंपाजियों जैसे रसरंजक वन्य प्राणी मानकर नहीं चलते और न ही भोजन के चंद टुकडे़ डालकर उन्हें बंदर या भालूओं की तरह नाचने को बाध्य करते ? और न ही इनके जीवन में बाहरी दखल को रोकने के लिए कानून की जरूरत पड़ती ?

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