जयललिता को सजा के मायने

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संदर्भ-ः जे. जयललिता को सजाः-

प्रमोद भार्गव

आय से अधिक संपत्ति के मामले में तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जे.जयललिता को चार साल की सजा के साथ सौ करोड़ का जुर्माना करना एक अह्म फैसला है। इस सजा के डर से राजनीति में शुचिता की दृष्टि से पवित्रता की शुरूआत के लिए राजनेताओं को बाध्य होना पड़ेगा। क्योंकि अब तक यह धारणा बनी हुई है कि भ्रष्टाचार से अर्जित संपत्ति से राजनीति भी चलती रहेगी और इसी धन से निकलने के उपाय भी तलाशे जाते रहेंगे। अवैध संपत्ति की जब्ती बच निकलने के रास्तों को बंद करने का काम करेगी। क्योंकि भ्रष्टाचारी के पास लालच देकर ईमान खरीदने के स्त्रोत ही बंद हो जाएंगे। इस मामले का 18 साल में मुकाम पर पहुंचने की पृष्ठभूमि में धन भी रहा है।

देश की सर्वोच्च न्यायालय ने यदि 10 जुलाई 2013 को दिए ऐतिहासिक फैसले में यह व्यवस्था न दी होती कि दागी व्यक्ति जनप्रतिनिधि नहीं हो सकता,तो शायद जयललिता सजा के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन बनी रहतीं। न्यायालय के इस फैसले के मुताबिक यदि किसी जनप्रतिनिधि को आपराधिक मामले में दोषी करार देते हुए दो साल से अधिक की सजा सुनाई गई हो,वह व्यक्ति सांसद या विधायक बना नहीं रह सकता। वह मंत्री या मुख्यमंत्री भी बना नहीं रह सकता और आने वाले 10 साल तक चुनाव भी नहीं लड़ सकता। साफ है,जयललिता ने बेहिसाब भ्रष्टाचार करके अपने राजनेता बने रहने की सारी योग्यताएं 10 साल के लिए खो दी हैं।

जयललिता इस फैसले की पहली शिकार नहीं हैं,इसके पहले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में विशेष अदालत द्वारा पांच साल की सजा सुनाई गई थी। नतीजतन 2013 में वे सांसद बने रहने की योग्यता खो बैठे थे और 2014 के आमचुनाव में लोकसभा का चुनाव भी नहीं लड़ पाए। कांग्रेस के राशिद मसूद को स्वास्थ्य सेवाओं के भर्ती घोटाले में चार साल की सजा हुई और राज्यसभा सांसद का पद गंवाना पड़ा। राष्ट्रिय जनता दल के सांसद जगदीश शर्मा को भी चारा घोटाले में चार साल की सजा जैसे ही तय हुई,सांसद की सदस्यता गंवानी पड़ी। शिवसेना के विधायक बबनराव घोलप को भी आय से अधिक संपत्ति के मामले में तीन साल की सजा सुनाई गई है। हालांकि अभी उन्हें विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहरने का मामला विचाराधीन है। द्रमुक के राज्यसभा सांसद टीएम सेलवे गनपति को जैसे ही दो साल की सजा हुई,उन्होंने अयोग्य ठहराने का फैसला आने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था। मसलन महज जनप्रतिनिधित्व कानून की एक धारा 8;4द्ध का अस्तित्व अदालत द्वारा खारिज कर देने से लोकसभा और विधानसभाओं से दागियों के दूर होने का शुभ सिलसिला शुरू हो गया। लिहाजा अब राजनीति में डर व्याप्त होना शुरू हो गया है।

दरअसल जनप्रतिनिधत्व कानून के तहत सांसद और विधायकों को यह छूट मिली हुई थी कि यदि माननियों ने सजा पाए किसी निचली आदलत के फैसले के विरूद्ध उपरी अदालत में अपील दायर कर दी है तो वे उसका फैसला आने तक अपने पद पर बने रह सकते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में 10 जुलाई 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 ;4द्ध को संविधान में दर्ज समानता के अधिकार और जनप्रतिनिधित्व विधेयक की मूल भावना के विरूद्ध मानते हुए रद्द कर दिया था। इस ऐतिहासिक फैसले पर उस समय भाजपा समेत लगभग सभी दलों ने नाराजी जताई थी। नतीजतन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने एक अघ्यादेश लाकर शीर्ष अदालत के फैसले को निष्क्रिय करने की पूरी तैयारी कर ली थी। किंतु राहुल गांधी ने नाटकीय अंदाज में इस अघ्यादेश को फाड़कर इसे कानूनी दर्जा हासिल नहीं होने दिया। उनके अब तक के राजनीतिक जीवन का यह एक ऐसा साहसी कदम है,जिसके लिए उन्हें लंबे समय तक याद किया जाता रहेगा।

जयललिता की सजा से जुड़े इस मामले के परिप्रेक्ष्य में भाजपा के सुब्रामण्यम स्वामी की भी पीठ थपथपानी होगी। भारतीय राजनीति में वे शायद इकलौते नेता हैं,जो अकेले अपनी दम पर भ्रष्टाचारियों से चुनौती के साथ लड़ते रहे हैं। जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के इस मामले को 1996 में स्वामी ही अदालत में ले गए थे। दरअसल जयललिता ने जब 1991 में विधानसभा का चुनाव लड़ा था,तब 1 जुलाई 1991 को नामांकन पर्चे के साथ नत्थी शपथ-पत्र में अपनी कुल चल-अंचल संपत्ति 2.01 करोड़ रूपए घोशित थी। लेकिन पांच साल मुख्यमंत्री रहने के बाद जयललिता ने 1996 का चुनाव लड़ा तो हलफनामे के जरिए अपनी संपत्ति 66.65 करोड़ बताई। यानी खुद जयललिता अपने ही हस्ताक्षरित दस्तावेजों के जरिए अनुपातहीन संपत्ति के कठघरे में फंस गईं। स्वामी ने आय की इस विंसगति को पकड़कर चेन्नई की हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर दी। हाईकोर्ट ने इसे गंभीरता से लिया और सीबीआई को मामले की जांच सौंप दी। सीबीआई ने जब उनके ठिकानों पर छापे डाले तो उनके पास से अकूत संपत्ति और सामंती वैभव प्रगट करने वाली वस्तुएं बड़ी मात्रा में बरामद हुईं। उनके पास से चेन्नई में अनेक मकान,हैदराबाद में कृषि फाॅर्म,नीलगिरी में चाय के बागान,28 किलो सोना,800 किलो चांदी,10500 कीमती सांडि़यां,91 घडि़यां और 750 जोड़ी जुतियां व चप्पले मिले थे। ये छापे उनकी करीबी रही शशिकला नटराजन,उनकी भतीजी इलावरासी,उनके भतीजे और जयललिता के दत्तक पुत्र रहे सुधाकरण के यहां छापे डाले गए थे। इन लोगों के पास से भी बड़ी मात्रा में बेगामी संपत्ति बरामद हुई थीं। इन्हें भी अदालत ने चार साल की सजा दी और दस-दस करोड़ का अर्थदण्ड भी दिया है।

जयललिता का यही वह बुरा दौर था,जब वे 1996 में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते विधानसभा का चुनाव हार गईं थीं। उनके राजनीतिक दल अन्नाद्रमुक को भी जबरदस्त मुंह की खानी पड़ी थी। 1996 में जब द्रमुक सत्ता में लौटी और एम करूणानिधि मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने जयललिता और उनके करीबियों को गिरफ्तार करके सलाखों के पीछे करवा दिया था। अब एक बार फिर जयललिता विपरीत हालात के शिकंजे में हैं। हालांकि अब करूणानिधि और उनका दल की शाक्ति के केंद्र में नहीं है,लेकिन कानून अपना काम कर रहा है। खुद मुख्यमंत्री रहते हुए जयललिता को न केवल सत्ता गंवाना पड़ रही है,बल्कि बतौर जुर्माना संपत्ति भी गंवानी पड़ रही है। भ्रष्टाचार से मुक्ति के उपाय की दिशा में यह एक अह्म फैसला है। यदि राजनीति और प्रशासन से जुड़े भ्रष्टाचारियों की संपत्ति इसी तरह से बतौर जुर्माना वसूलने की शुरूआत देश में हो जाएगी तो जनता को भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन की खुली हवा में सांस लेने का अवसर उपलब्ध हो जाएगा।

 

 

1 COMMENT

  1. desh me aaj netao ko kanun ka khof nahi hai isi karan brastachar badha hai fesla 18 sal ke bad aaya hai ye nahi hona chahiye turant karyvahi ho or fesla ho tabhi jake in bhrast logo ko kanun ki takat ka pata chalega!!

  2. अच्छा निर्णय , अच्छी शुरुआत,पर नेता सुधरेंगे, इसमें शक है, फिर भी कुछ भय तो व्याप्त होगा , अभी तो मुलायम, माया भी फैसला सुनने के लिए इस कतार में खड़े हैं उच्च अदालतों को भी शीघ्र निर्णय दे इन्हें जेल भेज देना चाहिए, क्योंकि ये नेता जमानत ले कर फिर वापिस माहौल को गन्दा करते हैं , भारतीय राजनीति को स्वच्छ करने में सुप्रीम कोर्ट का गत निर्णय बहुत सहायक होगा

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