झारखंड चुनाव विशेष : उबाऊ चुनाव,चौकाऊ परिणाम एवं उलझाऊ समीकरण

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राबड़ी मलाई खैलह, खैलह कलाकंद, आब खैहह शकरकंद अलग भेलह झारखंड।।। झारखंड के रूप में एक नए राज्य के गठन होते ही, बिहारी कहे जाने वाले भाषा में ऐसे गीतों की बाढ़ सी आ गयी थी। खासकर पटना से रांची की तरफ जाने वाले बसों के नए झारखंड की सीमा में प्रवेश करते ही सड़क किनारे के ढाबों पर ऐसे गीतों की आवाज़ तेज़ हो जाती थी। शेष बिहार के लोग भी बिना किसी झेंप के इस गाने का आनंद लेते और अपने पड़ोसी बन गए भाई को शुभकामना प्रदान करते। साथ ही यह दुआ भी करते कि दशकों के कांग्रेस और लालूराज के जिस कुशासन को झेलते-झेलते बिहारियों की कमर टेढ़ी हो गयी थी, कम से कम उसके छोटे भाई इससे मुक्त होंगे। अपने नए प्रदेश में लालू-राबड़ी के चंगुल से मुक्त हो, अपने हाथों अपनी तकदीर खुद ही गढ़ेंगे। अपने साथ ही निर्मित हुए अन्य दोनों राज्यों की तरह ही अपने संसाधनों का खुद के विकास के निमित्त बेहतर उपयोग कर पाने का अवसर पा कर तो फूले नहीं समा रहे थे झारखंड के लोग। शेष बिहार के लोगों के चेहरे पे शिकन इसलिए भी नहीं थी, क्यूंकि जब झारखंड में लूट-खसोट भी मचा था तो उससे बिहार की जनता को उसका कोई फायदा नहीं मिल पाया था। सारा का सारा संसाधन मुट्ठी भर नेताओं के जेब में ही चली जाया करती थी। सो राबड़ी-मलाई खाते रहने के कटाक्ष से बिहारी लोग खुद को जोड़ नहीं पाते थे। सबको मालूम था कि ये व्यंग्य आम लोगों के लिए नहीं वरन उन भ्रष्ट नेताओं के लिए था, जिसने समूचे बिहार को ही नरक में तब्दील कर दिया था। झारखंड के लोगों की आँखों में एक सपना आकार लेने लगा था। उन सबको लगा था कि अब एक ऐसा राज्य बनेगा जहां अपने अधिकार को पाने के लिए किसी बिरसा मुंडा को शहादत नहीं देनी पड़ेगी, किसी “शशिनाथ झा” के परिवार को अनाथ नहीं होना पड़ेगा। भले ही कई “टाटानगर” का निर्माण हो, लेकिन कोई “साक्ची” गाँव उजाड़ा नहीं जाएगा। अपने प्राकृतिक खनिज संपदा एवं वन्य संसाधन का अपने हित में उपयोग कर प्रदेश के माटी पुत्र फिर से ढोल और मांदर की आवाज़ पर सरहुल आ आनंद ले सकेंगे।

लेकिन जिस तेज़ी से प्रदेश के लोगों की आशाओं पर तुषारापात हुआ, जिस तरह प्रदेश को लूट-खसोट का अड्डा नेताओं ने बना दिया। सारा लाज-शर्म बेच कर, तमाम लोकतांत्रिक परम्पराओं, मर्यादाओं को तिलांजलि दे कर जिस तरह अंग्रजों से भी ज्यादा अपने लोगों ने वहाँ से खिलवाड़ किया, सोच कर ही मन नफरत से भर उठता है।ना लूटने वाले चेहरे बदले ना ही लूटने का तरीका। शिबू सोरेन द्वारा अपने सांसदों को बेचकर पैसा कमाने की जो शुरुआत की गयी थी वह उसके ही सचिव की हत्या से लेकर, राज्यपाल के रूप में शिब्ते रज़ी द्वारा लोकतंत्र से किये जाने वाले बलात्कार तक, एक निर्दलीय को मुख्यमंत्री बनाने से लेकर, उसके द्वारा प्रदेश का खजाना खाली कर दिए जाने तक अनवरत चलता रहा। लुटता रहा प्रदेश और “जजिया कर” पहुचता रहा पटना से दिल्ली तक। जिन-जिन लोगों ने लोकतंत्र पर “कोड़ा” फटकारा था उन सभी को “नमक” का हक अदा किया जाता रहा, छीनता रहा गरीबों का निवाला मस्त होते रहे चारा घोटालेबाज। अकारण ही लाद दिया गया राष्ट्रपति शासन भी। मज़ाक का पात्र भी बना दिया गया था प्रदेश को। लेकिन उम्मीद नहीं मरी थी फिर भी। लोकसभा के चुनाव का परिपक्व परिणाम एवं मुख्यमंत्री रहते हुए शिबू सोरेन की शर्मनाक हार ने यह भरोसा पैदा किया था कि इस बार जनादेश एक उचित एवं स्थायी सरकार के लिए होगा। बिना किसी खरीद-फरोख्त, लाभ-लोभ के एक अच्छी सरकार के लिए पिछले परिणामों ने मार्ग प्रशस्त किया था। लेकिन इस वर्तमान परिणाम ने झारखंड को फिर से अनाचार की उसी अंधी खाई में समा जाने को विवश कर दिया है जिससे उबरने की उम्मीद पाले हुए थे प्रेक्षकगण । फिर से त्रिशंकु विधान सभा यानी फिर से गुंडों-मवालियों, खान माफियाओं का रसूख, फिर से ब्लेकमेलरों का बन आना, फिर से सूटकेस की सरकार। खैर!

परिणाम प्रदेश की राजनीति के लिए आखिर जो हो, लेकिन भाजपा के लिए तो निराशा की स्थिति ही निर्मित हुई है। हालांकि भले ही जोड़-तोड़ करके पार्टी ने वहाँ पर सरकार बना ली हो, लेकिन पार्टी के लिए यह जबाब देना ज़रूर भारी पड़ेगा जिस पार्टी और व्यक्ति को पानी पी-पी कर कोसती रही है भाजपा आज उसी को सरकार बनाने में सहयोग करना प्रश्नचिन्‍ह ही पैदा करता है। लेकिन जिस तरह का जनादेश मिला है इसमें आपके पास इससे बेहतर की गुंजाइश भी नहीं था। यह तय था कि पार्टी को बीयवान में जाने से रोकने का शायद यह अंतिम मौका था। पार्टीजनों ने इस चुनाव में भी पूरी ईमानदारी के साथ जम कर मिहनत भी की थी। अवसरवादी दलों एवं लोगों से किनारा भी किया था।मौसेरे भाइयों से खुद को दूर रख पार्टी एक बिलकुल सकारात्मक आधार पर मैदान में थी। प्रेक्षकों का भी यही आकलन था की इस बार वोट देते समय जनता उन सभी दलों को सबक सिखाएगी जो झारखंड की दुर्गति के लिए जिम्मेदार रहे हैं। जो भ्रष्टाचार के सहभागी रहे हैं। निर्दलीय को मुख्यमंत्री बना, राज्यपाल तक का इस्तेमाल कर जनादेश का अपमान करने वाले, प्रदेश का खून चूस कर लाइबेरिया तक में खदान खरीदने वालों को जनता सबक ज़रूर सिखाएगी,ऐसा भरोसा था। लेकिन रुझानों को देख कर सभी उम्मीदें धरी-की-धरी रह गयी है। इस परिणाम को तो अप्रत्याशित और चौकाऊ ही कहा जा सकता है। आखिर जब लोक सभा के चुनाव में भाजपा को क्लीन-स्वीप मिला था तो इस चुनाव में इतना नुकसान कैसे? जिस झामुमो के सुप्रीमो शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री रहते हुए भी अपने ही घर के विधान सभा क्षेत्र से मूंह की खानी पड़ी और बेईज्ज़त होकर इस्तीफ़ा देना पड़ा था उनकी पार्टी का इतना शानदार प्रदर्शन? जिस मधु कोड़ा के कारण झारखंड क्या समूचा देश शर्मिन्दा हुआ था उसकी पत्नी की अच्छी जीत,जो कांग्रेस झारखंड के हालत की सूत्रधार रहती आ कर कोड़ा का अभिभावक बनी थी, उसको ऐसी बढ़त? ये सभी विरोधाभास ऐसे हैं जिससे समीक्षकों को किसी निष्कर्ष पर पहुचना काफी मुश्किल ही होगा। और जब तक कोई पुख्ता सबूत नहीं हो तब तक आप चुनाव प्रणाली को भी कुसूरवार नहीं ठहरा सकते जैसा की भाजपा प्रवक्ता ने महाराष्ट्र चुनाव परिणाम के बाद ईवीएम को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की थी।

बहरहाल, परिणामों का किसी राष्ट्रीय पार्टी के पक्ष में नहीं जाना ही इस चुनाव का सबसे सोचनीय पक्ष है। इसके अलावा किसी भी दल को बहुमत ना मिलना भी एक स्याह पक्ष है। वास्तव में पिछले कुछ चुनावों से क्षेत्रीय दलों का निर्णायक भूमिका में आ जाना या अपने अनुसार परिणाम का रुख मोड़ देना संघ के लिए एक अलग चिंता का विषय है।हालिया महाराष्ट्र चुनाव परिणाम भी इसी बात का द्योतक रहा कि केवल राज ठाकरे के द्वारा वोट काटने के कारण ही परिणामों में निर्णायक उलटफेर संभव हुआ। तो आखिर अगर एक अलगाववादी किसी राज्य में भी पैदा होकर परिणाम को बदल डालने की कुव्वत रखता हो तो कहाँ आप किसी राष्ट्रीय दल से ये उम्मीद रख सकते हैं कि वह अपने फायदा के लिए हर राज्य में ऐसे-ऐसे क्षेत्रीय ताकतों को प्रश्रय ना देकर क्षेत्रवाद की आग को भड़कने से रोके? बात जहां तक भाजपा की है तो फिलहाल तो आशा की किरण के लिए भी शायद लंबा इंतज़ार करना पड़ेगा। नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए भी यह रिजल्ट सर मुडाते ही ओले पड़ने जैसा हो गया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर ऐसे परिणाम देकर खुद झारखंड के लोगों ने अपना कितना भला किया है? एक ढुलमुल सरकार के लिए जनादेश देकर तो जनता ने फिर से प्रदेश को वोट की मंडी में ही तब्दील कर दिया है। सदा की तरह ठेकेदारों के लिए राबड़ी-मलाई और कलाकंद खाने का जुगाड़ फिर से हाथ आया है। सदियों से शोषित पीड़ित अपने आदिवासीजन के लिए शकरकंद पर ही आश्रित रहने की विडंबना से बचने का यह मौका भी हाथ से जाता रहा है।

-पंकज झा

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