झारखण्ड : सौदेबाजी के दुष्परिणाम

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प्रमोद भार्गव

मिलीजुली सरकारों का वजूद अक्सर सौदेबाजी की बुनियाद पर ही टिका होता है। सौदे की शर्ते प्रच्छन्न, अर्थात छिपी हुर्इ होती हैं और समर्थन को वैचारिक समानता का आधार बताया जाता है। झारखण्ड की ताजा राजनीतिक उठापटक इस बात की तसदीक है कि गठबंधन के सरोकार महज सत्ता के लालच में सिमटकर रह गए हैं। झारखण्ड मुकित मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन ने भाजपा नेतृत्व वाली अर्जुन मुंडा सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया है। इस दल के 18 विधायक हैं। इसके साथ ही झामुमो विधायक दल के नेता और उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को क्षेत्रीय समस्याओ ं के सामाधान निकालने में असफल रहने के मुददे गिनाने के साथ यह भी खुलासा कर दिया कि वे 28-28 महीने सरकार की बागडोर संभालने की शर्त को झुठला रहे हैं। मसलन समर्थन की असली गांठ 28-28 महीनें सरकार चलाने की शर्त से बंधी थी। शिबू सोरेन भी इसी प्रमुख शर्त का पालन न होने के कारण भाजपा से बेहद खफा और आहत हैं। अर्जुन मुंडा ने भले ही औपचारिक रुप से राज्यपाल सैयद अहमद को अपना इस्तीफ देने के साथ ही 82 सदस्यीय राज्य विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी हो, लेकिन शिबू सोरेन और उनके पुत्र हेमंत सोरेन अभी भी कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता पर काबिज हो जाने के विकल्प तलाश रहे हैं। अब गेंद राज्यपाल के हाथ है और राज्यपाल का विवेक कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी की मुटठी में बंद है।

अर्जुन मुंडा सरकार के डांवाडोल होने का सबसे ज्यादा असर भारतीय जनता पार्टी पर पड़ने वाला है। उसे इस असर का दंश झारखण्ड विधानसभा चुनाव में तो झेलना ही पड़ेगा, लोकसभा चुनाव में भी भुगतना होगा। भ्रष्टाचार और मंहगार्इ की मार झेल रही कांग्रेस ने भाजपा को अखिल भारतीय स्तर पर अनुकूल राजनीतिक वातावरण की पृष्ठभूमि रच दी थी, लेकिन वह इसे वोट के स्तर पर भुनाने में नाकाम रही। इसका ताजा उदाहरण उसका हिमाचल प्रदेश की सत्ता से बेदखल हो जाना है। अब झारखण्ड और कर्नाटक में जिस तरह भाजपा सरकारें असितत्व के संकट से जूझ रही हैं, उससे साफ हो गया है कि उसके केंद्रीय नेतृत्व की मुटठी से क्षेत्रीय नेतृत्व रेत की तरह फिसलता जा रहा है। घरेलू नेतृत्व की चुनौतियों से मुकाबला कर वह कोर्इ कारगर हल नहीं निकाल पा रही है। बावजूद यदि वह आत्ममुग्धता की शिकार बनी रहती है तो उसे इसी साल 9 प्रांतों में होने वाले विधानसभा चुनावों में तो खामियाजा भुगतना ही होगा, लोकसभा में अपेक्षित परिणाम मिलने वाले नहीं है।

कर्नाटक में बागी येदियुरप्पा द्वारा स्वतंत्र पार्टी बना लेने के बाद जगदीश शेटटार के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार अल्पमत में आ चुकी है। तकनीकी रुप से ही वह बमुशिकल विधानसभा में बहुमत में है। जाहिर है, देर-सबेर उसका जाना तय है। हालांकि कर्नाटक की यह भाजपा सरकार निर्वाचन के बाद संपूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुर्इ थी। किंतु पूर्व मुख्यमंत्री वीएस येदियुरप्पा पर लोकायुक्त द्वारा अवैध खनन मामले में भ्रष्टाचार का शिकंजा कसने और फिर मामला पंजीबद्ध होने व येदियुरप्पा के जेल जाने के बाद जगदीश शेटटार मुख्यमंत्री बने। येदियुरप्पा जेल से जमानत पर छूटने के बाद मुख्यमंत्री बनने के लिए छटपटाते रहे। केंद्रीय नेतृत्व की नाकामी यह रही कि वह न तो येदिरप्पा को दोबार मुख्यमंत्री बना पाया और न ही उन्हें संतुष्ट कर, अपने कुनबे में रख पाया। नतीजतन भाजपा को इस फूट को नुकसान आगामी चुनावों में भुगतना होगा।

शर्तों पर बनी सरकारों का असिथर होना या गिरना कोर्इ नर्इ बात नहीं है। कर्नाटक में ही इसके पहले भाजपा की जनता दल ;एसद्ध के साथ अनबन हो चुकी है। यहां जनता दल सेकुलर के कुमारस्वामी ढार्इ साल भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री रहे। लेकिन जब भाजपा का मुख्यमंत्री पद संभालने का अवसर आया तो पूर्व प्रंधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की जद ;एसद्ध ने मुंह फेर लिया। सौदेबाजी की शर्तों के चलते उत्तरप्रदेश में पहले मायावती मुख्यमंत्री बनी, किंतु जब भाजपा की बारी आर्इ तो वे समर्थन देने से मुकर गर्इं और सरकार अपदस्थ हो गर्इ। अब भाजपा यही खेल झारखण्ड में झारखण्ड मुकित मोर्चा के साथ खेलने में लगी है। नैतिकता का तो यह तकाजा था कि गठबंधन का धर्म निभाते हुए उसे झामुमो को सत्ता का फल भोगने का अवसर देना चाहिए था। अब मुटठी से तोते उड़ते देख झामुमो वे मुददे उछाल रही है, जिन्हें सत्ता में भागीदार रहते हुए पूरे कराने की जवाबदेही उसकी भी थी। इन मुददों में राज्य के 500 मदरसों को सरकारी सहायता, स्थानीयता की नीति को महत्व और उस पर अमल, झारखण्ड आंदोलनकारियों को दी जाने वाली राहत, विस्थापितों के लिए राहत व पुनर्वास नीति, नौ आदिवासी भाशाओं को सरकारी स्तर पर संरक्षण और संथाल परगना किराएदारी अधिनियम ;एसपीटीएद्ध पर मुख्यमंत्री का अभिमत षामिल हैं। लेकिन उत्तरप्रदेश और कर्नाटक में दूध की जली भाजपा ने सौदेबाजी की बजाए मूल्यों और सिद्धांतो की राजनीति करने का हवाला देकर राज्य विधानसभा भंग करने की सिफारिश करके नया जनादेश लेने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

फिलहाल यह जरुरी नहीं है कि राज्यपाल मुख्यमंत्री की सिफारिश को मानते हुए मौजूदा राज्य विधानसभा भंग कर दें। वे कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के इशारे का इंतजार करेंगे और कांग्रेस तथा झामुओं के रुप में नया गठबंधन वर्चस्व में आता है तो उन्हें गांठ बांध लेने का अवसर देंगे। जाहिर है झामुमो द्वारा समर्थन वापिसी और अर्जुन मुंडा द्वारा नए जनादेश की मांग के साथ ही कांग्रेस नर्इ सरकार बनाने की वैकलिपक संभावनाएं तलाशने के लिए सकि्रय हो गर्इ है। कांगेस इस उम्मीद को इसलिए भी आगे बढ़ा रही है, क्योंकि अभी विधानसभा चुनाव में आठ माह का वक्त है। हालांकि इतना तय है कि यदि नर्इ सरकार वजूद में आती है तो कांग्रेस नेतृत्व वाला मुख्यमंत्री नहीं होगा। वह राष्ट्रीय जनता दल को समर्थन में भागीदार बनाकार झामुमो को ही मुख्यमंत्री की कमान सौंपकर दूरगामी रणनीति को अंजाम देगी। जिससे कुछ न कर पाने की स्थिति में झामुमो की छवि जन मानस में खराब हो और कांगे्रस कालांतर में लाभ में रहे। तय है, इस तरह का राजनैतिक दृष्टि कोण ही गलत है, क्योंकि जोड़-तोड़ वाली यह सरकार न तो समस्याओं के समाधान ढूंढ पाएगी और न विकास व कानून व्यवस्था पर खरी उतरेगी। ऐसी सरकार से बारे-न्यारे सिर्फ उन लोगों के होंगे, जो सत्ता में शामिल होकर उसका दोहन करने लग जाएंगे। अच्छा है कांग्रेस सौदेबाजी की परिणति से असितत्व में आने वाली सरकार से दूर रहे। क्योंकि इस तरह की सत्ता जनता के लिए फलदायी नहीं रहती और वह वकत आने पर साझेदारों पर भी अपने गुस्से का ठींकरा फोड़ती है। बहरहाल झारखण्ड में अब तक सामने आए राजनीतिक घटनाक्रम ने साफ कर दिया है कि वहां सभी दल सत्ता के लालची हैं और वे जनता को सुनहरे सपने दिखाकर उसकी कोमल भावनाओं का दोहन करने में लगे हैं। अब वहां के मतदाता को भी यदि गठबंधन की सौदेबाजी के दुष्चक्रसे मुक्त होना है, तो जरुरी है वह किसी एक दल को स्पष्ट जनादेश दे।

 

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