वार्ताकार समूह, मुलाक़ात, रिपोर्ट्स और फिर भी नतीजा शून्य / देवेश खंडेलवाल

साल 2010 में केंद्र ने जम्मू कश्मीर में हुई पत्थरबाज़ी के घटना के बाद जम्मू कश्मीर की समस्या का हल निकालने के लिए तीन सदस्यों के एक वार्ताकार दल का गठन किया। इस वार्ताकार समूह ने “जम्मू कश्मीर की जनता के साथ एक नया समझौता” नाम की रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौप दी है। खैर यह कोई पहली बार नहीं है की सरकार ने जम्मू कश्मीर के संदर्भ में कोई समिति बनाई हो इससे पहले भी केंद्र सरकार कई बार कश्मीर मुद्दे को लेकर कई समितियां बना चुकी है। लेकिन कभी किसी समिति की सिफ़ारिशों पर चर्चा तक नहीं हुई अमल करना तो दूर की बात है। समितियां सिर्फ खर्चे बढ़ाने के लिए बना दी जाती है।

पिछली गर्मियों में कश्मीर सुलग रहा था। शुरुआती तौर पर पूरा मामला बस मानवाधिकार मामलों के हनन को लेकर था लेकिन एक सोची समझी रणनीति के बाद कश्मीर की आज़ादी का मामला बन गया। पूरे प्रकरण में 100 से भी ज्यादा लोगों की जान चली गयी। अलगाववाद, तनाव, बंद, कर्फ्यू और खून का गंदा खेल अपने चरम पर था। अब जब देर सबेर केंद्र सरकार को ध्यान आया तो पहले 39 सदस्यों का भारी भरकम एक संसदीय दल बनाकर भेजा। लेकिन यह दल भी कश्मीर से खाली हाथ लेकर दिल्ली लौट आया।

2010 में जो वार्ताकारों का समूह जम्मू कश्मीर गया जिसमे राधा कुमार, एम एम अंसारी, दिलीप पड़गाँवकर को शामिल किया गया। लेकिन इस वार्ताकार दल ने वही काम किया जिसका अंदेशा पहले से ही था। एक मजबूत हल निकालने की बजाय वार्ताकार समूह ने समझौता करने पर ज्यादा ज़ोर दिया। समस्या ये है की समझौते के कई पक्ष हो सकते है। हालांकि ठोस नतीजा तो तब निकलता जब जम्मू कश्मीर के सभी धड़ो के साथ बातचीत होती। जम्मू कश्मीर की समस्या को बढ़ावा देने वाले अलगाववादी नेताओं ने तो इस वार्ताकार समूह से ने मिलने से ही इंकार कर दिया। सच्चाई तो ये थी की इस वार्ताकार समूह के पास कश्मीर की वादियों में घूमने का एक अच्छा मौका था वो भी गृह मंत्रालय के पैसे पर। इस वार्ताकार समूह पर गृह मंत्रालय ने करीब 70 लाख से भी ज्यादा का खर्चा कर डाला लेकिन रिज़ल्ट निकला शून्य।

अब जरा इस वार्ताकार समूह में शामिल सदस्यों पर नज़र भी डाल ली जाए। इस वार्ताकार दल में से एक दिलीप पड़गाँवकर वह शक्स है जो आईएसआई के एजेंट गुलाम नबी फ़ई की कश्मीर अमेरीकन काउंसिल द्वारा आयोजित “इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस” का कई दफा हिस्सा बन चुके है। और दूसरी तरफ राधा कुमार ब्रुसेल्स में कश्मीर सेंटर द्वारा आयोजित, अब्दुल मजीद ट्रांबू की अध्यक्षता में एक कॉन्फ्रेंस का हिस्सा बन चुकी है। दोनों ही कॉन्फ्रेंस को आईएसआई से पैसा मिलता था। अब ऐसे में अगर इनसे किसी ठोस नतीजे पर पहुँचने की उम्मीद की जाए तो वाकई में ये एक मूर्खता होगी।

दोनों वार्ताकार एक तरफ एंटी इंडिया सेमीनार्स का लगातार हिस्सा बनते रहे है। वही दूसरी तरफ बात कश्मीर मामले को शांति और अमन के साथ सुलझाने का प्रयास कर रहे है। गृह मंत्रालय को सौपी गयी पूरी रेपोर्ट् बस एक कोरी कल्पना पर आधारित है। जिसे लेकर कोई शोध तक नहीं किया गया।

अपनी रेपोर्ट्स में इस दल ने लिखा है की पंचायती राज संस्थाओं को राज्य स्तर पर, ग्राम पंचायत, नगर पालिका परिषद या निगम स्तर पर कार्यकारी और वित्तीय शक्तियाँ देनी होगी। अब जरा जम्मू कहमीर के हालातों पर भी नज़र डाल ली जाए। जम्मू कश्मीर में 2011 में पंचायत चुनाव हुए थे। पंचायत चुनाव बिना किसी आतंकी घटना के पूरी तरह से सफल रहे। भारी संख्या में जम्मू कश्मीर के लोगों ने अपने चुनाव अधिकार का प्रयोग किया। जिसका सिर्फ एक मात्र कारण ही केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता लेना था। अब ये वित्तीय सहायता किसे मिलने वाली थी उसका जवाब है की बारहवें वित्तीय कमीशन में जम्मू कश्मीर को करीब 12 बिलियन रुपयों का नुकसान उठना पड़ा जिसका कारण था की जम्मू कश्मीर में पंचायती व्यवस्था के तहत चुनावों का न होना। जब जम्मू कश्मीर में पंचायत चुनाव हो गए तो उमर अब्दुल्ला को केंद्र से करीब 4-5 बिलियन वार्षिक मदद की उम्मीद थी। हद्द तो तब हो गयी की यूनाइटेड जिहाद काउंसिल और हिज़्ब-उल- मुजाहिदीन के आतंकी सईद सल्लाहुद्दीन तक ने पंचायत चुनावों के पक्ष में बोलना शुरू कर दिया। यानि साफ था की पंचायत चुनावों की सफलता का जम्मू कश्मीर के लोगो को समस्याओं के खात्मे से कोई लेना देना नहीं था बल्कि मामला तो पैसों का था जो केंद्र सरकार से इन चुनावों के जरिये आतंकियों को मिलने वाले थे। ये सब जमीनी स्तर एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ था। अब चुनाव हुए साल भर से भी ऊपर हो गए और जम्मू कश्मीर के लोगो की समस्या निपटारा तो हुआ ही नहीं और बल्कि कई पंचों की हत्या लगातार जारी है। इन हालातों में इस समूह को लगता है की पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय शक्तियाँ मिले।

दिलीप पड़गाँवकर के मुताबिक चुनाव और जम्मू कश्मीर की समस्या एक दूसरे से कोई लेना देना नहीं है। राधा कुमार इस बात को कह भी चुकी है की “एक बहुत बड़ी संख्या में जम्मू कश्मीर के लोग लोकतान्त्रिक सीमा से बाहर सोचते है”। जब इन दोनों वार्ताकारों का ये कहना है तो वित्तीय सहायता की मांग किसके लिए कर रहे है? आतंकियों के लिए।

यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है की जम्मू कश्मीर में अलगाववादी धड़ों को सीमा पार से सहायता मिलती है। और जब भी जम्मू कश्मीर में कोई हिंसा होती है तो वहाँ की राज्य सरकार बिलकुल बेबस नज़र आती है। कश्मीर घाटी में ऐसे कई लोगो को पकड़ा जा चुका है जो वार्ताकोरों के सामने कह चुके है को कट्टरपंथी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से उन्हे पत्थर बाज़ी के लिए 400 रुपए मिलते थे। हवाला के जरिये पैसों का लेन-देन होता है। इस बात को खुद केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह संसद में कह चुके है। यही नहीं इंटेलिजेंस रेपोर्ट्स पहले ही केंद्र सरकार को आगाह कर चुकी थी कई लड़ाके जिनका संबंध लश्कर-ए-तोईबा से है, कश्मीर में एंट्री कर चुके है। जो की बाद में खुद सोपोरे सहित कई इलाकों में पत्थरबाज़ी के साथ गनफायर में शामिल थे। इस के बाबजूद भी किसी ने इस और ध्यान तक नहीं दिया और जब समस्या ने विकराल रूप धरण कर लिया तो राज्य की शांति के लिए वार्ताकार समूह का गठन कर दिया। इससे बेहतर था की केंद्र सरकार इंटेलिजेंस रेपोर्ट्स की बातों पर ध्यान देती और पहले ही पत्थरबाज़ी की घटना का कोई हल खोज सकती थी। और इस वार्ताकार समूह ने भी इस और अपना ध्यान देना उचित नहीं समझा।

वार्ताकार समूह ने एक लंबी चौड़ी रिपोर्ट सरकार को सौप दी। लेकिन अभी क्या हाल है कश्मीर में वही आज़ादी, आटोनोमी, हिंदुस्तान सरकार से मुक्ति के नारे लगाए जाते है। सवाल यह है की आज़ादी के बाद से जिस समस्या का हल आज तक नहीं निकाल पाया वो समस्या अब तीन सदस्य दल ने मिनटों में कागजों में कथित तौर पर सुलझा लिया, वो भी समझौते के रूप में। कुलमिलकर कहा जा सकता है की जम्मू कश्मीर की समस्या को उलझाने के लिए बनाया गया वार्ताकारों का समूह वाकई में पैसों की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं था। जम्मू कश्मीर के 22 जिले, 700 से भी ज्यादा प्रतिनिधिमंडलों से मुलाक़ात और तीन गोलमेज़ सम्मेलनों के बाद भी अगर कोई परिणाम न निकाल कर आए तो साफ है की इस पूरी जम्मू कश्मीर यात्रा का मकसद बस इस पूरे मसलें का हल निकालना ही नहीं था बल्कि उसे और ज्यादा समस्याग्रस्त बनाना था।

1 COMMENT

  1. इन वार्ताकारों का एक अत्यंत महत्व पूर्ण पक्ष है इन लोगों के घुलाम नबी फाई के साथ सम्बन्ध. अमेरिकान जांच कर्ताओं के अन्वेषण से यह स्पष्ट हो चूका है की घुलाम नबी फाई का पूरा कार्यक्रम आई एस आई के अफसर द्वारा तय किया जाता था की उसके द्वारा आयोजित कांफ्रेंसों में किस किस को आमंत्रित किया जाएगा और कांफेरेंस के अंत में जो विज्ञप्ति प्रकाशित की जायेगी उसमें क्या लिखा होगा. स्पष्ट है की दिलीप पाडगांवकर और राधा कुमार आई एस आई द्वारा आमंत्रित किये गए थे इन लोगों के भारत विघटन में सन्नद्ध आई एस आई की योजनाओं में संलिप्त होने पर इन के साथ कैसा बर्ताव होना चाहिए या इन्हें किस प्रकार का दंड दिया जाना चाहिए इस बात पर अभी तक हमारे लेखक गण क्यों मौन हैं यह भी एक आश्चर्य का विषय है.
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