यह 29 अप्रैल 2000 की घटना है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उस वक्त भी एक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ था. इसका आयोजक वामपंथी संगठन के छात्र-नेताओं ने किया था जो सीपीएम की छात्र विंग स्टूडेंट फेडेरेशन ऑफ इंडिया के कार्यकर्ता थे. इसके आयोजन में विश्वविद्यालय ने भी आर्थिक सहयोग किया था. इस कार्यक्रम का नाम था “इंडिया-पाकिस्तान मुशायरा”. इसमें भारत और पाकिस्तान के शायर शामिल थे. यह कार्यक्रम एक खुली जगह पर हो रहा था. गंगा ढाबा के पास केसी मार्केट के पीछे एक ओपन एयर थियेटर में. कोई भी जाकर मुशायरे का आनंद उठा सकता था. जेएनयू के छात्रों के साथ साथ कुछ लोग बाहर से भी आए हुए थे. उस जमाने में बाहरी लोगों के आने जाने पर पाबंदी नहीं थी.
लोग मुशायरे का लुफ्त उठा रहे थे. लेकिन अचानक वहां हंगामा मच गया. पाकिस्तान से आए एक शायर ने कुछ भारत-विरोधी बातें कह दी. कुछ लोगों ने विरोध किया. विरोध करने वालों में बाहर से आए दो शख्स सबसे मुखर थे. इन दोनों को वामपंथी छात्रों ने घेर लिया. दोनों छात्रों के बीच फंसे थे. छात्रों ने पूछा कौन हो तुम लोग .. कहां से आये हो. दोनों से जवाब मिला कि दोनों आर्मी के मेजर हैं और कारगिल में पाकिस्तानियों से लड़कर छुट्टी बिताने दिल्ली आए हैं. दोंनो ने अपने आईकार्ड निकाल कर छात्रों को दिखाए. उन्होंने ये भी कहा : हम पाकिस्तानियों के मुंह से भारत की बुराई नहीं सुन सकते हैं. उनको लगा होगा कि शायद आर्मी का नाम सुन कर छात्र कुछ नहीं बोलेंगे. लेकिन, छात्रों की टोली से किसी ने कहा : मारो मारो.. ये आर्मी वाला है. फौरन कुछ छात्रों ने पीछे से दोनों पर हमला कर दिया. दोनों जमीन पर गिर गए.. फिर उठकर एक ने अपना रिवाल्वर निकाल लिया और छात्रों को पीछे जाने को कहा. वो सिर्फ रिवाल्वर दिखा रहे थे. गोली नहीं चलाई. उन्हें लगा कि छात्र पीछे हट जाएंगे और वो सुरक्षित वहां से निकल जाएंगे. लेकिन इस बीच कुछ छात्रों ने पीछे से पत्थर चलाना शुरू कर दिया. दोनों लहुलुहान हो गए. दोनों नीचे गिर गए. फिर क्या था.. बहुत ही बेदर्दी से दोनों की पिटाई की. जब तक दोनों अधमरे नहीं हो गए.. तब तक वामपंथी छात्र उनकी पिटाई करते रहे. दोनों के कपड़े फाड़ कर उनके गुप्तागों पर भी वहशियाना हमला किया. जब ऐसा लगा कि दोनों मर गए तब ये छात्र वहां से निकले.
विश्वविद्यालय की सिक्योरिटी की सूचना पर पुलिस आई और कारगिल के दो हीरो के अधमरे शरीर को अपनी गाड़ी में लाद कर ले गए. इस बीच एक बात और हुई. एक टीवी चैनल का रिपोर्टर और कैमरामैन भी वहां मौजूद था. कैमरामैन ने इस पूरी घटना को अपने कैमरे में कैद कर लिया. दोनो वहां से गंगा ढाबा पहुंच कर चाय पी रहे थे कि छात्रों का इसी गिरोह वापस गंगा ढाबा पहुच कर दोनों को घेर लिया. जबरदस्ती उनसे टेप छीने और उन्हें कैम्पस से बाहर जाने को कहा. दोनों ने काफी मिन्नतें की लेकिन उन्हें टेप नहीं मिली. रात में पता चला कि दोनों आर्मी आफिसर आईसीयू में भर्ती हैं.. उनकी हालत खराब है. शायद एक की मौत हो जाए.
सवेरे हिंदू अखबार में यह खबर छपी कि दो लोगों ने जेएनयू में घुस कर “इंडिया-पाकिस्तान मुशायरा” में विघ्न डालने की कोशिश की. साथ में वामपंथी संगठन के आयोजकों की तरफ से अखबार ने बताया कि “इंडिया-पाकिस्तान मुशायरा” को असफल बनाने के लिए दोनों को उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भेजा था. मजेदार बात यह है कि इस तरह के बकवास को द हिंदू जैसे अखबार ने छाप भी दिया. इससे हुआ ये कि पाकिस्तान की मीडिया ने भी यही छापा. पाकिस्तान की मीडिया ने भारत सरकार पर यह आरोप लगाया कि योजनाबद्ध तरीके से आडवाणी ने “इंडिया-पाकिस्तान मुशायरा” को बाधित किया.
पूरे जेएनयू कैम्पस में इस घटना को लेकर तनाव रहा. जब पता चला कि कारगिल युद्ध के दो जाबांजों के साथ वामपंथी छात्रों ने यह काम किया है तो कैम्पस में तनाव बढ़ गया. विद्यार्थी परिषद ने घटना के अगले दिन एक बडा जुलूस निकाला. एक दिन बाद सारे अखबारों में सही कहानी आई. तब दुनिया ने जाना कि जेएनयू में दो जांबाज आर्मी ऑफिसर के साथ क्या हुआ था. उस दौरान संसद का सत्र चल रहा था. संसद में यह मामला उठा. मेजर जनरल खंडूरी, राजीव प्रताप रूढ़ी और साहेब सिंह वर्मा ने संसद में इस मामले की जांच की मांग की. संसद में जब यह आरोप लगाए जा रहे थे कि जेएनयू के अंदर राष्ट्रविरोधी तत्वों पर लगाम लगाना जरूरी है तब लोकसभा में सोनिया गांधी के साथ साथ सभी वामपंथी नेता मौजूद थे लेकिन किसी ने भी कुछ नहीं कहा. इस बीच खबर आई कि दोनों की तबीयत बिगड़ रही है तो तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस उनसे मिलने अस्पताल पहुंचे.
इसके बाद जेएनयू में वामपंथियों को लगा कि मामला बिगड़ रहा है तो विश्वविद्यालय के वामपंथी प्रोफेसर हमलावर छात्रों के समर्थन में आ गए. उनकी तरफ से एक पर्चा भी बांटा गया. जिसमें बताया गया कि पाकिस्तानी शायर ने कोई गलत बात नहीं कही और दूसरा यह कि वामपंथी छात्रों की कोई गलती नहीं है क्योंकि दोनों आर्मी आफिसर ने शराब पी रखी थी और बिना अनुमति के कैम्पस में घुस कर हंगामा किया. अगले दो तीन दिन तक हर अखबार में खबरें छपी. अखबारों में बड़े बड़े संपादक ने संपादकीय लिखा. पुलिस ने एफआईआर दाखिल की. उस वक्त लौहपुरुष आडवाणी ने भी कोई एक्शन नहीं लिया क्योंकि उन्हें लगा कि अगर वो छात्रों के खिलाफ कोई कार्रवाई करते हैं तो मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग सरकार के विरोध में लामबंद हो जाएंगे. इसी डर से इस केस में आजतक न कोई गिरफ्तार हुआ और न ही किसी को सजा मिली.
इस घटना को मैं इसलिए बता रहा हूं क्योंकि जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी फिर से विवाद में है. पहली बार कम्यूनिस्टों की हकीकत सामने आई है क्योंकि भारत-विरोधी नारेबाजी और भाषणबाजी का वीडियो सामने आ गया. वैसे, जेएनयू में भारत-विरोधी नारे कई सालों से लग रहे हैं. वामपंथी संगठन भारत के टुकड़े टुकड़े करने की बात करते रहे हैं. भारतीय सेना को भला-बुरा कहना यहां आम बात है. यह कोई नई बात नहीं है. अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इस कैम्पस में आंतकवादियों और कश्मीरी अलगाववादियों को बुलाकर प्लेटफार्म दिया जाता रहा है. इससे पहले भी आजम इंकलाबी के आने पर जेएनयू में हंगामा हुआ था. सबसे दुखद बात यह है कि भारत-विरोधी गतिविधियों को जेएनयू के वामपंथी प्रोफसरों का भरपूर समर्थन मिलता है. सच्चाई ये है जेएनयू में देशभक्ति को अवगुण माना जाता है.
हाल की घटना के दो दिन बाद तक हर वामपंथी संगठन बचाव में दलील दे रहे थे जेएनयू में अभिव्यक्ति की आजादी है.. छात्रों के विचारों को कुचला नहीं जा सकता है.. दो दिन तक किसी ने एक बार भी पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे की निंदा नहीं की. किसी ने ये भी नहीं कहा कि ये वामपंथी छात्र नहीं हैं. लेकिन पुलिस की कार्रवाई के बाद इनकी अकल ठिकाने आई है. अब ये भारत-विरोधी नारेबाजी की निंदा करते नजर आ रहे हैं. इसकी वजह यह नहीं कि उनका हृदय-परिवर्तन हुआ है बल्कि जिस तरह से वे रंगे हाथ पकड़े गए हैं और देश भर में इनकी थू-थू हो रही है उसमें बचने का कोई रास्ता नहीं बचा है. वर्ना ये फिर झूठ बोलकर खुद को पाक-साफ साबित करने की कोशिश करते. जैसा कि एक फर्जी वीडियो को दिखा कर यह भ्रम फैलाने की कोशिश हो रही है कि पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा देने वाले बाहरी लोग थे या परिषद के लोग थे. लेकिन, आज के इस जमाने में इस तरह की घटिया-कलाबाजी ज्यादा देर तक टिक नहीं सकती है. दरअसल, लोगों को भ्रमितकर राजनीति चमकाना इनकी पुरानी आदत है. जहां तक बात इस घटना पर हो रही राजनीति की तो उसके लिए अगले पोस्ट का इंतजार कीजिए…
जाहिर है, डाक्टर मनीष कुमार उस ख़ास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं,जिन्होंने जे.एन.यूं. में इतने वर्षों रहने के बाद भी अपने ऊपर वाम पंथ का रंग नहीं चढाने दिया.हो सकता है कि मैं भी अगर जे.एन यूं. में रहता,तो मुझ पर यह रंग नहीं चढ़ता.अब आती है उन गतिवधियों के विरोध की,जिसका वर्णन डाक्टर कुमार ने किया है.पता नहीं उस समय उन्होंने उन गति विधियों काखुलकर विरोध क्यों नहीं किया?क्या इससे पत्रकारिता जगत के दिग्गज की कायरता नहीं सिद्ध होती?हो सकता है कि वे अल्पमत में रहे हों,पर क्या वे अपनी लेखनी के बल पर भी आवाज नहीं उठा सकते थे?दूसरी बात जो मुझे परेशान कर रही है,वह यह की डाक्टर कुमार इतने वर्षों तक चुप क्यों रहे?उनकी वेब मैगजीन चौथी दुनिया का बहुत समय तक मैं भी अवलोकक रहा हूँ.मुझे अभी भी याद है की कोयले के घोटाले का सबसे पहला पर्दाफाश चौथी दुनिया ने ही किया था.क्या डाक्टर कुमार बता सकते हैं कि उनकी इस चुप्पी का कारण क्या था?क्या उनके करियर का प्रश्न उनके सामने था?अगर सचमुच आज या इसके पहले जे.एन.यूं. राष्ट्र विरोधी तत्वों काड्डा रहा है,तो क्या डाक्टर कुमार जैसे लोग उसमे दोषी नहीं हैं?
अपनी टिप्पणी मैंने कुछ प्रश्न उठाये हैं और आपसे उस पर कुछ कहे जाने की अपेक्षा है.आपने तो इसपर भी चुप्पी साध ली.
बीते समय मैंने बार बार आपको मनोहर ढंग से बुढ़ापा काटने के कई सुझाव दिए हैं लेकिन आप हैं कि एक उत्सुक बच्चे के समान उछलते कूदते एक स्थान पर स्थिर हो नहीं बैठ सकते| मुझे “देश द्रोही कौन?” पढ़ने को छोड़ आप यहाँ डॉ. मनीष कुमार जी पर कीचड़ उछालने चले आए हैं? आपके प्रश्नों का उत्तर इन्हीं पन्नों पर “परिचर्चा : कांग्रेस का ‘प्रवक्ता’ और ‘लेखक’ पर हमला” में खोजने से मिल जाएगा| अब मेरा आप के लिए प्रश्न है—उत्तर जान कर क्या कीजिये गा? मैं स्वयं मनीष जी की ओर से आपको उपयुक्त उत्तर दे सकता हूँ लेकिन चंदामामा के बेताल भैंस के आगे रोए अपने नैन खोए!