जेएनयूः यह तो इनके डीएनए में!

जब पढ़ता था तब इतिहास, भूगोल में अपनी कभी रुचि नहीं रही। बस पास होने लायक नंबर आ जाते थे। तब यह सब बेकार की बातें लगती थी। अब इतिहास में रुचि बढ़ती जा रही है क्योंकि जब आप खुद इतिहास का हिस्सा बनने जा रहे हो तो यह महसूस होने लगता है कि आज जो कुछ हो रहा है उसका पिछला इतिहास रहा है।
हमने इतिहास की अच्छी बातों से भले ही कुछ न सीखा हो पर उसकी बुराईयों को जरुर आत्मसात किया हैं इसलिए जब लोकेश व्यास समेत अनेक पाठकों ने मुझसे भी जेएनयू व प्रेस क्लब की घटना पर लिखने को कहा तो मेरा मानना था कि व्यासजी व वैदिकजी जैसे महान विचारक इस बारे में अपनी राय जता चुके हैं तो मेरे लिए कुछ लिखने को बचता ही नहीं है। मैं इनके सामने खुद को अज्ञानी मानता हूं। अगर ये लोग विश्वविद्यालय के चासंलर हैं तो मैं इनके सामने केजी का छात्र हूं।
सच कहूं तो मुझे यह सब देखकर जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ। मेरा खून भी नहीं खौला। बस इतना अचरज जरुर हुआ कि हाफिज सईद, अफजल गुरु व पाक समर्थक नारे लगाने में इतनी देर क्यों लगी? ये सारी घटनाएं जेएनयू व प्रेस क्लब तक ही सीमित रहकर क्यों रह गई? अफजल गुरु की बरसी पर तो राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए थे।
इस सोच की वजह यह रही कि मैंने हिस्ट्री चैनल पर एक ऐसा कार्यक्रम देखा था जिसे मैं आज तक भूला नहीं पाया। इसमें बताया गया था कि कुख्यात मंगोलियाई आताताई चंगेज खान ने न सिर्फ चीन समेत तमाम देशों पर आक्रमण कर उन्हें अपना गुलाम बनाया बल्कि उसके सैनिकों ने वहां की नस्ल बिगाड़ने का अभियान इतने व्यापाक स्तर पर चलाया कि आज दुनिया में हर पांचवा इंसान उसका वंशज है। मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं। हम सबको पता है कि डीएन के जरिए वंशानुगत (अव) गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाते हैं। हजारों साल से इसकी श्रृंखला चली आ रही है। चंगेज खान ने 1227 तक योरोप, अफ्रीका, एशिया, दक्षिणी अमेरिकी तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया था।
ठिक विपरित महाभारत और रामायण की घटना तो हजारों साल पुरानी है। जरा सोचिए कि क्या पांडव और कौरवों के वंशज नहीं होंगे? जिस दुशासन ने द्रौपदी का चीरहरण किया था, उसके भी बच्चे रहे होंगे। जो व्यक्ति अपनी भाभी के साथ नंगई पर उतर आया हो क्या वह आस पड़ोस की महिलाओं को छोड़ देता होगा? वो तो वैसे भी राज परिवार से था। उनकी पीढ़ियां भी चली आ रही होंगी। वे कोई मदरसे में तो पढ़ने जाएंगी नहीं। संस्कार भी वंशानुगत गुण होता है। काम तो रावण ने भी अत्यंत निंदनीय किया था। वह भी सीता को जबरन उठाकर ले गया था। पर वह होशियार था। मेरा मानना है कि इसकी एक वजह उसका ब्राह्मण होना था। उसको पता था कि किस सीमा तक बदतमीजी सही जा सकती है। इसलिए उसने सीता को महिला सुरक्षाकर्मियों की देखरेख में कैद करवाया और उन्हीं के जरिए विवाह करने के लिए दबाव डलवाता रहा।
उस रावण की भी तमाम पटरानियां थीं जिनका नाम इतिहास में दर्ज नहीं है। इनके भी बच्चे हुए होंगे। वे भी वंशागत गुणों से लबरेज होंगे। यह सब इन्हीं गुणों का प्रभाव है। क्या कभी लकड़बग्घों या सियार को आम अमरुद खिलाकर या दूध पर पाला जा सकता है? क्या कीचड़ में लोटने वाला सूअर मखमली गद्दी पर चैन की नींद सो सकता है? सांप को कितना ही दूध क्यों न पिलाओं व हमेशा फुंकार मारकर डसने की ही कोशिश करेगा?
इसलिए यह सोच एकदम गलत है कि जो जेएनयू का पढ़ा हो उसको मदरसे वाले छात्र के गुण नहीं आएंगे! फिर यह गुण क्यों न आएं। इतिहास बताता है कि हमने युवा पीढ़ी के सामने ऐसे आदर्श प्रस्तुत किए हैं कि वे इनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। हमारे नेताओं ने अपनी हरकतों से ऐसी पीढ़ी तैयार की है जिसने उनके हथकंडों को ही अपना आदर्श मान लिया।
याद है न कि जब जरनैल सिंह भिंडरावाला अपने समर्थकों के साथ अस्त्र शस्त्र से लैस होकर दिल्ली आया था तो तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी ने उसे संत कहा था। उनका बेटा राहुल उनसे भी दो कदम आगे निकला। उसने रोहित की आत्महत्या की तुलना महात्मा गांधी से कर दी। अगर बापू जिंदा होते तो उत्तरप्रदेश से ‘कट्टा’ मंगवा कर आत्महत्या कर लेते! अपना मानना है कि यह सब स्वभाव, संस्कारों और सोच का प्रभाव है।
मैं बहुत सारे ऐसे पत्रकारों को जानता हूं जो कि खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए नवरात्रि में गर्व के साथ शराब पीते हैं। मीट मुरगे का सेवन करते हैं और रमजान में रोजे रखते हैं। मैंने पहले भी लिखा था कि यह सब देखकर वैसा ही लगता है कि जैसे कि पड़ोसी आंटी के पैर छुओ और मां को दुत्कारों। दलील दी जा रही है कि यह अभिव्यक्ति की आजादी का मामला है। पर इस आजादी का यह मतलब तो नहीं है कि आप हिटलर की तरह अपनी सोच का सार्वजनिक प्रदर्शन करें। जिसे हाफिज सईद या अफजल गुरु पसंद हैं वह उन पर किताबें लिख सकता है उनकी प्रशंसा में गीत लिख सकता है पर उसे अपने समूह तक ही सीमित रखना चाहिए क्योंकि उसके सार्वजनिक प्रदर्शन से उन लोगों को होने वाली पीड़ी की अनदेखी नहीं की जा सकती है जो इनकी दहशत का शिकार बने। जिन लोगों ने अपने परिजन संसद पर हुए आतंकी हमले में गंवाए वे जरा उनके दिल से पूछिए कि इस तरह के आयोजनों से उन्हें कितनी चोट पहुंचती होगी। उन्हें भी यह अधिकार है कि कोई उनकी भावनाओं को ठेस न पहुंचाए।
अभिव्यक्ति की आजादी की परिभाषा एक ही होनी चाहिए। जब आतंकवादी फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली एब्दो के दफ्तर में घुसकर उसके कर्मियों को अपनी गोलियों से भून डालते हैं तो आजादी के ये झंडाबरदार, उनके समर्थन में आगे क्यों नहीं आते हैं? जब कुख्यात आतंकवादी संगठन निर्दोष महिलाओं को अपने शोषण का शिकार बनाता है तब वे लोग उनकी आजादी की बात क्यों नहीं करते? यह लोग रक्षा मंत्रालय से प्रेस क्लब में लाखों रुपए का काम करवा लेते हैं। लान में पत्थर लगवा लेते हैं। ऊपर हाल का जीर्णोद्धार करवा लेते हैं पर जब वह उपहार स्वरुप ‘ब्रम्होस्त्र मिसाइल’ की अनुकृति भेंट करता है तो उसे दासता का प्रतीक बताते हुए कागज चिपकाए जाते हैं। उसे तोड़कर फेंक दिया जाता है।
अरे मूर्खों जब पाकिस्तान भारत पर हमला करेगा तो उसकी मिसाइल की प्रोग्रामिंग में यह नहीं लिखा होगा कि किस किस का घर छोड़ना है। आतंकवादियों के बम के छर्रें और गोलियां किसी को लगने से पहले यह नहीं देखती कि उसने अफजल गुरु के समर्थन में नारे लगाए थे या नहीं। मुझे याद है कि जब 1971 में भारत पाक युद्ध हुआ तब एक विशेष मुहल्ले में कुछ लोगों ने उसके हमलावर विमानों की मदद के लिए बड़ा सा बल्ब जला दिया था। तब दरोगा ने उसे पकड़कर पीटने की जगह यही समझाया था कि रोशनी देखकर अगर तुम्हारे घर पर बम गिरा दिया गया तो क्या तुम्हारा परिवार बच जाएगा।
काफी पहले कही लेख पढ़ा था कि एबीसीडी जिसका मतलब था कि अमेरिका बार्न कनफ्यूज्ड देसी (अमेरिका में पैदा हुआ भ्रमिक भारतीय) अब लगता है कि हमें एक नया शब्द आईबीसीडी (इंडियन बार्न कंनफ्यूज्ड देसी) बनाना होगा। जो ऐसा कर रहे हैं वे एक तरह के भ्रम के शिकार हैं। उन्हें पता ही नहीं कि वे क्या कह कर रहे हैं। इन्हें नहीं पता कि देश और सरकार में अंतर होता है। आप मोदी का विरोध करिए। सरकार को गालियां दीजिए, किसी को क्या आपत्ति हो सकती है पर इस भ्रमित पीढ़ी को यह नहीं पता है कि मोदी देश नहीं है। सरकार व देश में अंतर होता है। देश तो जन्म देने वाली मां है। सरकार दाई या अस्पातल है जो गलतियां कर सकता है। इस तरह की सोच पर सिर्फ अमर सिंह या दिग्विजय सिंह का ही एकाधिकार कैसे रह सकता है। हम तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र है जहां नगारिकों को तमाम घोषित व अघोषित अधिकार मिले हुए हैं। इनमें थूकने, गाली देने, अपमान व कुतुर्क करके अपनी व दूसरों की जिंदगी तबाह करने के अघोषित अधिकार भी शामिल है। इसका कतई हनन नहीं होना चाहिए।

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