‘जरनैलिज्म’ नहीं जर्नलिज्म

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यह अघोरपंथी राजनीति का दौर है। या यूं कहें कि अघोरपंथी राजनीति पर भदेस किस्म की प्रतिक्रिया है। अघोरपंथ में सांसारिक बंधनों और लोक मर्यादाओं की परवाह नहीं की जाती। आज राजनीति भी लोकआकांक्षाओं से बहुत दूर जा चुकी है और उस पर प्रतिक्रिया भी सत्याग्रह से आगे बढ़ कर मुंह पर थूकने और जूता फेंकने तक आ पहुंची है।

चिदंबरम पर जूता फेंकने की चर्चा अभी थमी भी नहीं थी कि नवीन जिंदल भी जूते की जद में आ गये। इंटरनेट पर ब्‍लॉगर चटखारे लेकर इस घटना की चर्चा कर रहे हैं। इस बात की गिनती की जा रही है कि दुनियां में कितने प्रसिद्ध लोग जूतों का निशाना बन चुके हैं। पहले आया कि चिदंबरम जूते का हमला झेलने वाले चौथे आदमी हैं। फिर आया कि वे दूसरे भारतीय हैं जिसे जूते का शिकार होना पड़ा। नवीन जिंदल इस कड़ी में तीसरे व्यक्ति बन गये हैं।

जनमत को नकारने की मनोवृत्ति जो कांग्रेस ही नहीं बल्कि राजनीति में एक सिरे से दूसरे सिरे तक व्याप्त हो गयी है। चिदंबरम और नवीन जिंदल पर जूता उछालने के साथ ही अरुंधती राय पर चप्पल फेंकने और जिलानी के मुंह पर थूकने की घटनाएं भी एक ही शृंखला की कड़ियां हैं। यह मानव गरिमा के विरुद्ध है, निन्दनीय है। लेकिन सभी के पीछे जनविरोध को ठेंगे पर रखने की प्रवृति जिम्मेदार है।

हाल ही में एडिनबर्ग में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास तथा ब्रिटिश प्रधानमंत्री रॉबर्ट ब्राउन के निवास पर युद्ध विरोधियों ने जम कर जूते लहराये। यद्यपि इंगलैंड में जूता फेंकने की परम्परा की जानकारी नहीं मिलती फिर भी वहां इसकी बढ़ती लोकप्रियता लीक पर चलने वाले ब्रिटिश कुलीन समाज के बदलते चरित्र तथा नये प्रयोगों के प्रति स्वागतशीलता का परिचायक है।

इससे पहले ईराक में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश, केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में चीन के राष्ट्राध्यक्ष वेन जिआ बाओ और स्वीडन में इजराइल के राजदूत बेनी डेगन पर भी जूते उछाले जा चुके हैं। अमेरिका और चीन के नेताओं के बाद चिदंबरम ने विश्व की तीसरी महाशक्ति के प्रतिनिधि के रूप में इस क्लब में प्रवेश किया है। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ समय बाद इस क्लब की सदस्यता पाने की होड़ शीतयुद्ध से भी अधिक खतरनाक दौर में पहुंच जाये।

तेजी से ‘ग्‍लोबल’ हो रहे इस ट्रेंड के भारतीय संदर्भ भी हैं। इस सूची में जितने भी गैर भारतीय हैं उन्हें दूसरे देश में पराये लोगों के हाथों जूते खाकर संतोष करना पड़ा है। किन्तु भारत इस मामले में आत्मनिर्भर है। चिदंबरम हों, अरुंधती राय हों या नवीन जिंदल, सभी ने अपनी ही धरती पर, अपने ही लोगों के हाथों जूते पाकर देश की लाज बचायी है। स्वदेशी के समर्थक निस्संदेह इस घटना को राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़ कर देखेंगे। खास तौर पर चिदंबरम के संदर्भ में, जो देश की हर समस्या का हल विदेशी निवेश में खोजते रहे हैं, यह एक सुखद आश्चर्य से कम नहीं है।

दुर्भाग्य से चिदंबरम पहले भारतीय तो बन ही नहीं सके, जूतों का प्रहार झेलने वाले पहले कांग्रेसी नेता बनने से भी वंचित रह गये। इस घटना के सूत्र कांग्रेस इतिहास के पृष्ठों में भी खोजे जा सकते है। 1907 में सूरत में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में कांग्रेस के संस्थापकों में से एक श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को जूतों का सामना करना पड़ा था। नरमदल और गरम दल के बीच हुए इस संघर्ष का अंत कांग्रेस के विभाजन में हुआ।

बंग-भंग के बाद ही कांग्रेस में यह मंथन प्रारंभ हो गया था कि भारत को सुधार नहीं स्वराज्य चाहिये। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और श्री अरविन्द स्वराज्य के पक्ष में थे और उसके लिये कोई भी बलिदान करने को तैयार थे। 1906 में कोलकाता में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ। इसमें गरमदल के नेताओं की पहल पर स्वदेशी, स्वराज, विदेशी का बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा के प्रस्ताव पारित हुए। देखते ही देखते स्वराज्य की मांग और विदेशी के बहिष्कार का आन्दोलन मद्रास से रावलपिंडी तक पूरे देश में फैल गया।

अंग्रेजों के दवाब में उनकी ‘जय हो’ कहने वाले नरमदली सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, फिरोज शाह मेहता, दादा भाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले और रासबिहारी घोष आदि ने इस आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की। 1907 को सूरत अधिवेशन के दौरान कोलकाता अधिवेशन में पारित हुए उपरोक्त प्रस्ताव बांटे गये। नीचे बैठे हुए तिलक जी ने जैसे ही प्रस्ताव पर नजर डाली, वे बोल पड़े- ‘धोखा हुआ है।’ चारों प्रस्ताव बदल दिये गये थे। यह पता लगते ही शोर-शराबा शुरू हो गया। गतिरोध अगले दिन तक भी समाप्त न हो सका। ऐसी ही स्थितियों में नरमदल के नेताओं ने जबरदस्ती रासबिहारी घोष को अध्यक्ष चुनने की घोषणा की जिसके बाद हुए हंगामे में मंच पर बैठे सुरेन्द्र नाथ बनर्जी पर जूतों की बरसात शुरू हो गयी। अंतत: कांग्रेस का विभाजन हो गया और गरम दल ने श्री अरविन्द को अपना नेता चुन लिया।

यह संयोग ही है कि जिस जरनैल सिंह ने गृहमंत्री की ओर जूता उछाला उसकी भी इस प्रतिक्रिया का कारण था उसका यह मत कि कांग्रेस नेतृत्व सिखों के साथ धोखा कर रहा है। यद्यपि जरनैल सिंह ने स्वयं अपने कृत्य को गलत माना है और कांग्रेस ने उसे माफ भी कर दिया है लेकिन इस घटना ने वर्तमान राजनैतिक स्थिति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है।

सिख समाज की ओर से बार-बार टाइटलर और सज्ज्न कुमार को टिकट न देने की अपील की जा रही थी। उसे नजरअंदाज कर कांग्रेस क्या संदेश देना चाहती थी। इस घटना के बाद उनके टिकट काटने से क्या यह संदेश नहीं जायेगा कि इस प्रकार की अवांछित हरकतें करके कांग्रेस के नेतृत्व को झुकाया जा सकता है।

इससे भी अधिक चिन्ता का विषय है जनमत को नकारने की मनोवृत्ति जो कांग्रेस ही नहीं बल्कि राजनीति में एक सिरे से दूसरे सिरे तक व्याप्त हो गयी है। चिदंबरम और नवीन जिंदल पर जूता उछालने के साथ ही अरुंधती राय पर चप्पल फेंकने और जिलानी के मुंह पर थूकने की घटनाएं भी एक ही शृंखला की कड़ियां हैं। यह मानव गरिमा के विरुद्ध है, निन्दनीय है। लेकिन सभी के पीछे जनविरोध को ठेंगे पर रखने की प्रवृति जिम्मेदार है।

मीडिया को भी अपनी भूमिका पर विचार करना होगा। ऐसी घटनाओं का एक कारण जनमत और जनविरोध को मीडिया द्वारा अपेक्षित तीव्रता के साथ न उठाना भी है। वहीं ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों को मीडिया जबरदस्त प्रचार मुहैया कराता है। उन्हें अपराधी के बजाय सेलेब्रिटी बना देता है। कथित टीआरपी का मोह छोड़ इससे बचना होगा तभी मीडिया लोकतंत्र को मजबूत बनाने में सहयोग कर पायेगी। सुनिश्चित करना होगा कि ‘जर्नलिज्म’ इतनी प्रभावशाली भूमिका अदा करे ताकि ‘जरनैलिज्म’ के लिये कोई स्थान न बन सके।

-आशुतोष

(लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं)

2 COMMENTS

  1. janmat ka fasla hamesh media aur janta karti hai is liya aaj is mudday ko hawa denay kay bajay hamay chona hoga ki kya isi taraha hota rahayga …………. hamay apni pratist ka dhayan rakhana hoga ki ham patkar hai tabhi desh mai janta sahi neta ko chun sakti hai 09837261570

  2. जनमत को नकारने की प्रवृत्ति ही एसी घटनाओ को जन्म देती है | यद्यपि विरोध करने का यह नैतिक तरीका नही है लेकिन जन अवहेलना होने पर जनता का छोभ किसी न किसी रूप में तो अभिव्यक्त होगा ही परन्तु मीडिया की ये नैतिक जिम्मेदारी बनती है की ऐसे लोगों को हीरो बनाने के बजाय वैचारिक स्तर पर इसकी आलोचना करे |

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