…बस घर से भागता हुआ इंसान दिखा

-प्रणय विक्रम सिंह-
Nepal-earthquake-3
न हिन्दू दिखा, न मुसलमान दिखा !
बस घर से भागता हुआ इंसान दिखा।।
कुछ ऐसी ही भागमभाग के दहशतजदा मंजर से दो-चार हो रहा है शहर। हर शक्ल खौफजदा नजर आ रही है। एकाएक सड़क पत्तों की तरह हिलने लगती है और इंसानी गरूर का सिंहनाद करती बहुमंजली इमारतें कागज की मानिंद कांपती महसूस होती है। लोग कौतुक और बदहवासी के आलम में अपने कार्यालयों और प्रतिष्ठानों से लिफ्ट छोड़ कर जीने से जान बचाने को भागने लगते हैं। आलम देखिये कि लोग मकानों से ज्यादा पार्कों में खुद को महफूज महसूस कर रहे हैं। खबरे हैं कि बरसों बाद गांवों में भी बड़ी जमात रात को खेतो और मैदान में सोई। स्कूलों में छुट्टी कर दी गई तो अबोध बच्चे मुस्कुराकर चहक उठे कि आज तो मजा आ गया। सूबे की प्रशासनिक व्यवस्था का मरकज सचिवालय ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ की कालजई पंक्तियों को चरितार्थ कर शनिवार को एकाएक आनन-फानन में खाली हो गया। शनिवार को तो सरकार-ए-सरजमीन लखनऊ में मुख्य सचिव से लेकर चपरासी तक सभी सड़क पर खड़े कुदरत की ताकत का बड़ी विस्मयता के साथ ‘निरीक्षण’ कर रहे थे। ‘पैरों तले जमीन खिसकने’ का सजीव अनुभव कैसा होता है इसकी अनुभूति सदर-ए-रियासत से लेकर उत्तर भारत की आम अवाम पिछले दो दिनो से कर रही है। पड़ोसी मुल्क नेपाल का अनुभव ज्यादा खराब है। वहां धरती के डोलने से हजारों हंसते-खेलते इंसानी जिस्म बेजान शरीरों में तब्दील हो गये। बेशुमार जान-माल कुदरत के कहर का शिकार हो गई। जो गगनचुंबी इमारत कुछ लम्हा पहले आदम की जात के हौसले और गुरूर का इश्तहार थी अब वह जमींदोज हो कर कुदरत की ताकत का मुजाहरा पेश कर रही थी। शायद तभी अदब व अदीबों के शहर लखनऊ में मस्जिदों में दुआ पढ़ी जा रही है कि ‘ऐ खुदा हमारे गुनाहों को माफ कर। हम गुनहगारो पर अपने रहमतों की बारिश कर। हम तेरे सजदे में हैं।’ मंदिरों में प्रार्थना हो रही है मगर किसी एक व्यक्ति के लिये नहीं वरन समूची मानवता के लिये। कहर के साथ अक्ल का बड़ा अजीब रिश्ता होता है। कहा भी गया है भय बिनु होय न प्रीति। खैर प्रकृति का कहर कब और कहां बरपे यह कहना मुश्किल है, विज्ञान द्बारा काफी प्रगति किए जाने के बाद भी आज हम प्राकृतिक आपदाओं के सामने बेबस नजर आते हैं। लेकिन यह बात जाहिर है कि चाहे सुनामी हो या फिर भूकंप आदि, कहीं न कहीं इस सबके लिए प्रकृति के साथ हो रही छेड़छाड़ एक बड़ी वजह है। किंतु यह बात तो हर बार दोहरायी जाती है। धरती की कोख का बेलिहाज खनन कर उसकी ताकत को कम करने की कोशिश दशको से चल रही हैं। नदियों के प्राकृतिक बहाव को रोक कर अपने मुनाफे और सहूलियत के लिये उनकी दिशाओं को मोड़ने का गुनाह करने से भी बाज नहीं आये हम। दुस्साहस देखिये कि धरती का दामन छोटा होता महसूस हुआ तो इंसानी अंहकार ने आसमानों में बस्तियां बनाने की योजनाएं शुरू कर दी। जमीनें उजाड़ दी, पर्वतों के सीने चीरकर अपने लिए ऐशगाहों के निर्माण कर लिए, जंगल उजाड़ दिए, पहले वृक्ष काटकर गगनचुम्बी इमारतों की नींव रखी, बाद में ‘प्लांटेशन’ के लिये मैराथन दौड़ कर अपनी पिक्स फेसबुक पर अपलोड करके फूले नहीं समाए, चिड़ियों को उड़ा दिया, गायों को कूड़ा कचरा खाने को विवश किया। दरअसल प्रकृति विरोधी विकास हमें विनाश की ओर ले जा रहा है। एक अरसा पहले ही पहाड़ पर प्रलय को सबने देखा। उसके बाद जमीन की जीनत कश्मीर जलजले में डूब गया। फिर बे-मौसम बरसात और ओलावृष्टि ने धरती पुत्रों के मुकद्दर में मौत का मातम लिख दिया। गर किसी को संकेतों में बात समझ आती है तो इसका मतलब यह है कि पहाड़ों को काटने, नदियों को बांधने और जंगलों को मिटाने का मतलब विकास नहीं है, यह खुद को मिटाने की भौतिक तैयारी है। आइये आंकड़ों की भाषा में खुद को मिटाने की तैयारी का मुआयना करते हैं।
दुनिया भर में बाढ़ से मरने वालों में हर पांचवां व्यक्ति भारतीय होता है। हर साल औसतन 18.6 मिलियन हेक्टेयर भू-भाग और 3.7 हेक्टेयर में खड़ी फसलें बाढ़ से प्रभावित होती हैं। हर पांच साल में बाढ़ 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 16०० जानें लील जाती है। पिछले 27० वर्षों में दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की मार भारतीय उपमहाद्बीप ने झेली। इन तूफानों से भारत में मरने वालों की संख्या छह लाख थी। 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में 24 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। भारत का 6० फीसद भू-भाग भूकंप प्रभावित क्षेत्र में आता है। वास्तव में भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं पर जीत पाना इंसान के लिए अब भी एक गंभीर चुनौती है। जिस तरह से भूगर्भ वैज्ञानिक हिमालय में हो रही भूगर्भीय हलचलों के कारण दिल्ली समेत, उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, पंजाब और जम्मू-कश्मीर तक में रिक्टर स्केल पर नौ तक की शक्ति वाले भूकंप की आशंका बार-बार दोहराते रहे हैं, उसके मद्देनजर जलजले को लेकर इस तरह की चैतन्यहीनता काफी गंभीर लगती है। देश के तकरीबन हर शहर में ऐसी अनगिनत विशाल और ऊंची इमारतें सतत बन रही हैं, जिनकी भूकंप सहने की क्षमता संदिग्ध है। सरकार को आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में और अधिक सक्रिय होने की आवश्यकता है। आपदा प्रबंधन तंत्र को दुरुस्त करने के साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों को यह भी देखना होगा कि बुनियादी ढांचे को कैसे मजबूती मिले। लेकिन इसी के साथ कुदरत और इंसान के ताल्लुकात को और ‘पूरक’ बनाने की दिशा में गंभीर कोशिश करने की प्रबल आवश्यकता है। क्या सच नहीं है कि आज भी बारिश का अंदाजा बगैर किसी यंत्र के चीटियों को पहले हो जाता है। बस फर्क इतना है कि वे बारिश के लिये अपना प्रबंध पहले करती हैं और हम आपदा के पश्चात। हमें प्रकृति और पारिस्थितिकी के सहजीवन को समझना होगा। यह धरती सबके लिये है और सभी प्रकृति में संतुलन के लिये उपयोगी हैं। गर ऐसा होता है तो ऐंठ में डूबी मानव जाति को प्रकृति की वीणा पर बजने वाले आर्तनाद के स्वर सुनाई पड़ने लगेंगे और मानवता प्रकृति के डमरू से उत्पन्न हो रहे मृत्युगीत को सुनने के लिये विवश होने से बच सकेगी।

 

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