ज्यूं ही उन्होंने चुनाव का शंख बजने पर प्रदेश को चार राज्यों में बांटने का सिक्का जनता के बीच उछाल आने वाले चुनाव में भी अपनी सीट पक्की करने की चाल चली तो उस शंख की आवाज सुन सभी लोकतंत्र के भक्षकों ने अपनी अपनी चुनावी तैयारी के समर्थन में हुंकार भरते हुए अपनी टूटी भेरियां,फटे ढोल ,फूटे नगाड़े और जंग लगी सिंगियां बजानी शुरू कर दीं। देखते ही देखते पूरे प्रदेश में बहरा करने वाला षोर इस छोर से उस छोर तक गूंजने लगा।
तब अपनी पार्टी के टूटे फूटे रथ में बैठ वे भी औरों की तरह अपने को साबित करने के लिए चुनावी रण में कूद पड़े। उन्हें लगा कि अपने खोई पहचान को एक बार फिर साबित करने का इससे बेहतर मौका और षायद ही कोई हो! सबने हाईकमान का अषीर्वाद ले अपने अपने चुनावी रथ में सारे लालच के मारे वर्कर जोड़े और मारकाट शुरू कर दी। हाई कमान ने डरते डरते अपने अपने महारथी को आशीर्वाद दिया,विजयी भव! अपने को पार्टी का स्तंभ दिखाने का यही अवसर है वत्स! जाओ! साम, दाम,दंड,भेद,से पार्टी की खोई साख फिर चमकाओ!
प्रदेश की चुनावी जंग में देखते ही देखते चुनाव होने से पहले ही चुनावी षस्त्र अस्त्र,बिन जरूरत के ब्रह्मास्त्र चलने शुरू हो गए। ये देख अर्जुन गहरी चिंता में पड़ गया।
सभी राजनीतिक दल अपने अपने दांव पेंच ले आमने सामने खड़े हैं। जनता को लुभाने के लिए जिसका जैसे मन कर रहा है वैसे जनता के आगे चारा डाल रहा है। अर्जुन देख रहा है कि पूरे प्रदेश में नेताओं पर चुनावी उत्तेजना पूरी तरह छाई है। कोई भी होश में नहीं। सभी बदहवास से हैं। परिवार तक पार्टी सदस्यों में बदल चुके हैं।
कृष्ण ने भी अर्जुन को जनता का उम्मीदवार घोषित कर दिया ताकि चुनाव के बाद भूख,भय, भ्रष्टाचार और भिखारियों से भरे प्रदेश में धर्म की स्थापना हो सके। पर चुनाव की बिसात देख अर्जुन ने कृष्ण के सामने चुनाव न लड़ने की इच्छा व्यक्त कर डाली । उसने कृष्ण से कहा” हे कृष्ण! इस चुनाव की रीत तो मेरी समझ में तनिक भी नहीं आ रही। इस चुनाव ने जनता के पारिवारिक धर्म तक नष्ट कर डाले हैं। हर राजनीतिक दल कुर्सी के लोभ में अंधा हुआ जा रहा है। सभी को कुर्सी पाने से आगे और कुछ भी नहीं दिख रहा। अतः मैं अर्जुन अपने को इस चुनाव में असहाय महसूस करते हुए अपनी उम्मीदवारी खारिज करता हूं” अर्जुन ने बुझे मन से कहा तो कृष्ण बहुत परेशान हो गए। हालांकि वे उस वक्त बड़ी जल्दी में थे,उन्हें लोकपाल पर बहस करने जाना था। देश में धर्म की स्थापना के लिए अन्ना के लोकपाल का सारा काम वे ही अप्रत्यक्ष में देख रहे थे । पर अपने प्रिय शिस्य को संकट में पड़ा देख तनिक रूके,उसे संषय मुक्त करने के लिए जल्दी जल्दी चार षब्द कहते बोले” हे अर्जुन! चुनाव जब ठीक हमारे सिर पर है और ऐसे में जब नया उम्मीदवार भी घोषित नहीं हो सकता, तुम्हारी सोच को ये क्या हो गया! अरे ! तुम तो चुनाव से पहले ही आत्म मंथन करने में व्यस्त हो गए। ये काम तो हारे हुए दलों का चुनाव के बाद का होता है। चुनाव में बढ़े पांवों को पीछे हटाना होने वाले नेता को तो नेता को,शौकिया नेता को भी शोभा नहीं देता। इस मन की सच्ची दुर्बलता को त्याग दो और हे विजयी उम्मीदवार! मेरे आदेशों का पालन करो! मेरे आदशों से अधिक सोचोगे तो मैं भी कुछ नहीं कर पाऊंगा! लोग तो आला कमान को खुश करने के लिए क्या क्या नहीं बके करे जा रहे हैं! और एक तुम हो कि…. और पूछना है कुछ, तो अर्जुन ने कहा,प्रभु बस एक प्रश्न! तो जनता की गर्दन का क्या होगा, अर्जुन के पूछने पर कृष्ण ने हाथ में बंधी घड़ी की ओर देखते कहा, ये चुनाव के बाद का काम है। अभी जो काम सिर पर आया है केवल उसी के बारे में सोचो! मन भटकाओगे तो सत्ता कैसे पाओगे? क्योंकि आज कुर्सी से प्रिय कुछ नहीं! कुर्सी जाने पर नेता को इतना वियोग होता है जितना अपने किसी प्रिय के जाने पर भी नहीं होता! जनता हित ,अहित की बात कुर्सी पर बैठ ही सोची जा सकती है,टाट पट्टी पर बैठ कर नहीं ! इसलिए हे अर्जुन! इधर उधर की सोच बंद। बस ,इलैक्सन ! इलैक्सन!! इलैक्सन!!!