जीनत जिशान फाजि़ल
हाल ही में सर्वोच्च न्यायलय ने अपने एक अहम फैसले में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि वे अपने यहां सभी थानों में बाल कल्याण अधिकारी (सीडब्ल्यूओ) की तैनाती करे जो थानों में किशोरों के साथ होने वाले पुलिस बर्ताव पर निगरानी करेंगे। शीर्ष अदालत ने यह फैसला एक स्वंयसेवी संगठन की ओर से दायर याचिका पर दिया है। जिसमें उक्त संगठन ने अदालत से किशोर न्याय (देखरेख और सुरक्षा) कानून को अमलीजामा पहनाए जाने के लिए हस्तक्षेप की मांग की थी। वास्तव में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उस आलोक में महत्वपूर्ण है जब रास्ता भटककर जुर्म की दुनिया में कदम रखने वाले किशोरों के साथ पुलिस अपराधियों जैसा सुलूक करने लगती है। किशोर न्याय (देखरेख और सुरक्षा) कानून वर्ष 2000 में अमल में आया जिसका संशोधित अधिनियम साल 2007 में लागू किया गया। संशोधित एक्ट के चैप्टर तीन और रूल 11 में कहा गया है कि नाबालिगों की ओर से किए गए वैसे अपराध जिसमें सात साल तक सजा का प्रावधान है, उनमें एफआईआर दर्ज नहीं होगी। यदि पुलिस को बच्चे का अपराध गंभीर लगता है तो वह उसे जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने पेश करेगी।
इस अधिनियम को लागू करने के पीछे असल मकसद किशोरों को सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक रूप से अपराध की दुनिया से दूर रखना, उनका उचित मार्गदर्शन करना और पुनर्वास करना है ताकि वह दुबारा उस दलदल में न फंस जाएं। लेकिन यह अधिनियम अब भी कई स्तर पर कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। विषेशकर जम्मू व कश्मीर में बाल अपराध के ग्राफ में बढ़ोतरी के बावजूद राज्य सरकार अब तक किशोर न्याय (देखरेख और सुरक्षा) कानून (जेजेसीपीए) को अमल में लाने में असफल साबित हो रही है और यह पूरी तरह से सरकारी फाइलों में उलझ कर रह गया है। किशोर न्याय (देखरेख और सुरक्षा) कानून के अनुसार अगर कोई बच्चा जुर्म करता है तो मनोवैज्ञानिक रूप से उसके मुजरिमाना रूझानात को कम करने की कोशिश की जानी चाहिए। परंतु जम्मु-कष्मीर में किशोर अपराधियों के साथ पुलिस सामान्य अपराधियों की तरह व्यवहार करती है तथा इन्हें दूसरे मुलजिमों के साथ सेल में रखा जाता है और बाल न्यायालय के स्थान पर सामान्य न्यायालय में ही पेश किया जाता है। ऐसे लम्हों से गुजरने के बाद किशोर अपराधियों के और भी खतरनाक हो जाने की आषंका बढ़ जाती है।
यहां के एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता और पेषे से वकील अबदुल रशीद हनजुरा के अनुसार जम्मु-कष्मीर में इस तरह का कानून 1997 में ही बनाया गया था। परंतु कानून बनने के इतने सालों बाद भी राज्य में किशोर अपराधियों से संबंधित मामलों की सुनवाई के लिए कोई बाल अदालत स्थापित नहीं की जा सकी है। इस संबंध में उन्होंने 2009 में उच्च न्यायलय में एक याचिका भी दायर किया था जिसपर एक सदस्यी बेंच ने सुनवाई करते हुए राज्य सरकार को तीन महिने के अंदर इसे लागू करने का आदेश दिया था, लेकिन अब तक इसपर कोई सरगर्मी भी नजर नहीं आती है। यद्यपि राज्य विधानसभा में इस संबंध में प्रस्ताव भी पारित हो चुके हैं बावजूद इसके राज्य में किशोर अपराधियों पर सामान्य अपराधियों की तरह जम्मू एंड कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) तथा छोटे-मोटे अपराधों के लिए रणबीर पैनल कोड (आरपीसी) के तहत ही मामले दर्ज किए जाते हैं। (ज्ञात हो कि देश के अन्य राज्यों की तरह जम्मू-कश्मीर में भारतीय दंड संहिता के स्थान पर आरपीसी का उपयोग किया जाता है।)
अब्दुल रशीद के अनुसार अगर यह साबित हो जाए कि किसी बच्चे ने जुर्म किया है तो इससे संबंधित सभी सुनवाई किशोर न्यायलय करती है जहां उनके पुनर्वास और देखभाल का खास ख्याल रखा जाता है ताकि उनके व्यवहार में बदलाव लाया जा सके। अगर इन बच्चों को दूसरे मुजरिमों के साथ ही कैद में रखा गया तो संभव है कि ऐसे वातावरण में रहने के बाद उनमें भी वैसी ही आपराधिक प्रवृति उभर जाए। उनका कहना है कि 16 वर्श की आयु तक के किशोर अपराधियों को अदालती सुनवाई के लिए बाल न्यायालय भेजा जाना चाहिए। परंतु राज्य में इनके मामलों की सुनवाई चीफ ज्युडिशियल मजिस्टे्रट की अदालत में की जाती है।
अब तक राज्य सरकार की ओर से श्रीनगर स्थित हरवान में एक अनाथालय को सुधार गृह के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है परंतु जेजेसीपीए के तहत अब तक इस तरह का कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है। राज्य सरकार को चाहिए कि वह प्रत्येक जिला में बच्चों की बेहतरी के लिए एक कमिटी बनाए और उसके साथ ही वह सभी जिलों तथा राज्य स्तर पर एक जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड की स्थापना करे और बाल अपराधियों के मामलों की जल्द सुनवाई शुरू करे क्यूंकि यह अदालतें दूसरी अदालतों से भिन्न प्रक्रिया अपनाती है।
किशोर न्याय (देखरेख और सुरक्षा) कानून के तहत किशोर अदालत तीन सदस्यी होनी चाहिए। जिसमें एक ज्युडिशियल मजिस्टे्रट के अतिरिक्त दो सामाजिक कार्यकर्ता जिनमें एक महिला की नियुक्ति आवश्यक है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि जम्मू-कश्मीर में इस संबंध में कोई ठोस पहल नहीं नजर आता है। हालांकि राज्य के मुख्यमंत्री ने यह स्वीकार किया है कि राज्य में बाल अपराध के मामले अधिक नहीं थे इसीलिए ऐसे कानून की जरूरत नहीं थी लेकिन अब राज्य में बाल अपराधों में वृद्धि हो रही है। तथ्यों और आकंड़ों के अनुसार केवल बारामूला में ही विभिन्न कानून के तहत नाबालिग बच्चों के माध्यम से किए जाने वाले अपराधों में 85 प्रतिशत मामले दर्ज हुए हैं और इसमें लगातार वृद्धि हो रही है। यहां यह बताना जरूरी होगा कि जम्मू व कश्मीर में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 1997 के अनुसार राज्य में 16 वर्श से कम उम्र के बच्चों को नाबालिग माना जाता है जबकि अन्य राज्यों में जहां जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 लागू है वहां 18 वर्श से कम उम्र के बच्चों को नाबालिग की श्रेणी में रखा जाता हैं। राज्य में नाबालिग बच्चों को बाल सुधार गृह में रखने की बजाए हिरासत में रखने के मामले 2008 से ही सामने आ रहे हैं जिसकी मानवाधिकार समेत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कड़ी आलोचना की जाती रही है। आधुनिक परिवेश और बेरोजगारी के सबब किशोर अपराध में वृद्धि दर्ज की जा रही है। ये बड़ी बदकिस्मती की बात है कि इस कानून को राज्य में अब तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका है। पिछले वर्ष घाटी में हुए हंगामों के दौरान 18 वर्श से कम उम्र के बच्चों को भी सेंट्रल जेल में रखा गया था। जो किशोर न्याय अधिनियम, संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार नियम तथा मानवाधिकार के विरुद्ध कार्य था। (चरखा फीचर्स)
(लेखिका विगत कई वर्षों से कश्मीर स्थित एक दैनिक अंग्रेजी समाचारपत्र में कार्यरत हैं तथा विभिन्न सामाजिक विशयों पर स्वतंत्र पत्रकार के रूप में भी लिखती रही हैं)