रा.स्‍व. संघ के प्रचारक ज्‍योति जी की स्‍मृति में शोकसभा आयोजित

गत 10 जून 2012 को सायं 6 बजे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिल्ली कार्यालय केशव कुंज में संघ के वरिष्ठ प्रचारक माननीय ज्योति जी की पावन स्मृति में शोक सभा आयोजित की गई।

शोक सभा का प्रारम्भ में संस्कार भारती के कार्यकर्ता जगदीश जी ने भजन संगीत प्रस्तुत किया। शोक सभा में संघ के कई पदाधिकारियों, स्वयंसेवकों एवं माननीय ज्योति जी के परिवार के सदस्यों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धान्जलि अर्पित की। ज्योति जी के व्यक्तित्व पर बोलते हुए वरिष्ठ प्रचारक श्री प्रेमचन्द्र जी ने कहा कि यद्यपि हम एक शोक सभा के लिए इकठ्ठे हुए हैं किन्तु इस दिन को हमें प्रेरणा दिवस के रूप में मनाना चाहिए। ज्योति जी का पार्थिव शरीर हमारे बीच नहीं है किन्तु उनके जीवन की अनेक ऐसी स्मृतियां हैं जो हमें निरंतर प्रेरित करती रहेंगी। वो स्वभाव से कड़े थे और वास्तव में सत्य हमेशा कड़वा ही होता है। एक बार उन्होंने मुझे डांटकर बुलाया – ‘‘कहां घूम रहे हो, चलो इधर आओ’’ मैं डरते-डरते उनके पास गया तो पता चला कि उन्होंने मिठाई खाने के लिए बुलाया था। उन्होंने अपने जीवन के 69 वर्ष संघ कार्य में लगा दिए। वो एक-एक पैसे का हिसाब रखते थे। वो जब हिमाचल प्रदेश में प्रचारक थे तो उन्होंने माननीय राजेन्द्र चड्ढा जी को एक पत्र लिखा कि मुझे बिलासपुर से दिल्ली आना है, कौन सा ऐसा मार्ग है जो सबसे सस्ता हो। उनका स्पष्ट मत था कि स्वयंसेवकों के खून-पसीने से अर्जित किए गए पैसे का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। भगवान से हमारी प्रार्थना है कि हमें भी ज्योति जैसी शक्ति और समझ दे, ताकि हम उनके पदचिन्हों पर चल सकें।

अपने शोक संदेश में पूर्व राज्यपाल व वरिष्ठ भाजपा नेता श्री केदारनाथ साहनी जी ने ज्योति जी के व्यक्तित्व को याद करते हुए कहा कि ज्योति जी एक आदर्श प्रचारक थे। आजादी के लिए जब सत्याग्रह हो रहा था उस समय जो लोग जेल गए उनके परिवार वालों की क्या समस्याएं हैं, वे कुशलता से हैं या नहीं ये कार्य उन्होंने अपने हाथों में लिया। कभी भी अपने घर परिवार की चिन्ता नहीं की, किन्तु संघ का कोई भी स्वयंसेवक अगर बीमार है या उसके परिवार में किसी प्रकार की समस्या है तो वे उसकी बराबर चिंता किया करते थे।

शोक सभा में ज्योति जी के छोटे भाई श्री अरविन्द जी भी उपस्थित थे। उन्होंने ज्योति के जीवन को याद करते हुए यह कहा कि उनकी स्मरण शक्ति बड़ी तीव्र थी, उनके जीवन-काल में बचपन से जो भी घटना घटी या हमारे परिवार में जो कुछ भी हुआ, उनको वह दिन, समय व तारीख उनको हमेशा याद रहती थी। किताबों में लिखी बातों ज्यादा उनका मस्तिष्क विश्वसनीय था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख माननीय सुरेश चन्द्र जी ने कहा कि ज्योति जी का जीवन देश और समाज के लिए था। जिस माँ की कोख से ज्योति जी जैसा बालक जन्म लेता है वो माँ और वह परिवार धन्य हो जाता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट चर्चा की है कि जो भगवान में लीन होते हैं या परोपकार के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं उनका जीवन धन्य है। जब मैं राजस्थान में प्रचारक था तो चित्तौड़ के प्रति श्रद्धा होने के कारण 15 दिन वहां बिताए, मन हुआ कि यहां के जो शहीद हैं उनका पिंडदान किया जाए। किसी वरिष्ठ व्यक्ति से चर्चा की तो उन्होंने कहा कि जो राष्ट्र के लिए शहीद हुआ है, उसको पिंडदान की आवश्यकता नहीं होती। ज्योति जी का जीवन परम ज्योति में विलीन हो गया। उनका शरीर हमारे बीच नहीं है किन्तु उनके कार्य की वह ज्योति हमेशा हमें आलोकित करती रहेगी।

 जीवन परिचय 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक माननीय ज्योति स्वरूप जी का प्रातः 28 मई 2012 को देहावसान हुआ। श्री ज्योति जी 21 जनवरी 1922 को मेरठ की मवाना तहसी के गांव नगला हरेरू में जन्में वे 5 भाइयों और 4 बहनों में सबसे बड़े थे। इनके पिता श्री रामगोपाल उस कालखण्ड में सेना के अभियांत्रिकी विभाग में सेवारत थे। आपकी आरंभिक शिक्षा बैरकपुर छावनी बंगाल में हुई, बाद में उच्च शिक्षा के लिए वापस मेरठ आ गए। वहां के नानकचंद कालेज कालेज में अध्ययन करने के साथ ही उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्पर्क हुआ। त्यागी छात्रावास में रहते हुए उनका शाखा जाना प्रारम्भ हुआ, पहली बार 7 नवंबर 1939 को तिलक पथ पर लगने वाली शाखा गए। इससे पूर्व 1 अक्टूबर 1939 को जब वीर सावरकर मेरठ आए थे, तब भी ज्योति जी अपने चाचा श्री जयभगवान के साथ उन्हें सुनने आए थे। तब सावरकर के साथ भाऊराव देवरस तथा बापूराव मोघे भी आए थे। 1940 में जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पहली बार मेरठ आए तो उनका प्रेरक उद्बोधन भी ज्योति जी ने सुना। उन सबका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और 1943 में स्नातक और संघ शिक्षा वर्ग- तृतीय वर्ष की शिक्षा पूर्ण करने के बाद वे प्रचारक निकले। श्री नारायण राव पुराणिक उनके प्रचारक थे। एक साल बाद मुजफ्फरनगर में उनकी पहली नियुक्ति हुई। विभाजन के बाद उन्हें राजस्थान भेजा गया। वहां वे जयपुर के विभाग प्रचारक बनाए गए। 1963 में उन्हें जम्मू-कश्मीर का विभाग प्रचारक बनाकर भेजा गया। 1965 में श्री चमनलाल जी के सहयोगी के रूप में दिल्ली कार्यालय बुलाए गए तथा कार्यालय प्रमुख बने। 1971 में कांगड़ा में उन्हें एक सेवा प्रकल्प में एक चिकित्यालय का दायित्व सौंपा गया। 1972 में उन्हें एक जिले का प्रचारक बनाया गया।

1975 में वे पंजाब प्रांत भेजे गए। और 1979 में रज्जू भैय्या ने उन्हें पुनः दिल्ली बुला लिया तथा दिल्ली प्रांत के व्यवस्था प्रमुख का दायित्व उन्होने सम्भाला। दिल्ली में रहकर भाऊराव देवरस जी और रज्जू भैय्या के पत्र व्यवहार को भी उन्होंने सम्भाला। तदोपरांत वे दिल्ली प्रांत कार्यालय प्रमुख बने पहले अभिलेखागार फिर पुस्तकालय का दायित्व उन्हें सौंपा गया तथा अंत तक दिल्ली में ही अपना दायित्व निभाते रहे। 1996 में केन्द्रीय व्यवस्था का दायित्व उन्हें सौंपा गया। जीवन के अंतिम क्षणों में भी उनकी स्मरण शक्ति ऐसी थी कि दशकों पुरानी बातें भी उन्हें महीने व दिन के हिसाब से याद थीं। 1940 में रक्षा बंधन के दिन उन्होंने बाबा साहब आपटे की उपस्थिति में उन्होंने संघ की प्रतिज्ञा ली थी। बसंतराव ओक, श्रीगुरुजी और एकनाथ रानाडे का उनके जीवन पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा। उनकी यह सोच थी कि मातृभूमि की निःस्वार्थ सेवा से बढ़कर सुख और कहां है। पिछले कुछ समय से वे हृदय व मधुमेह संबन्धी रोगों से जूझ रहे थे। पर उनके चेहरे पर किंचित भी निराधा व झुंझलाहट के भाव नहीं थे। वे कहते थे मैं शीघ्र ही स्वस्थ होकर अपने काम में लगूंगा।

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