कश्मीर: समस्या और समाधान

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-विजय कुमार

कश्मीर घाटी एक बार फिर सुलग रही है। उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती या अन्य सेकुलरों के अनुसार इसका कारण है सेना की ज्यादती। उनकी राय है कि सेना को यदि स्थायी रूप से हटा दें, तो घाटी में स्थायी शांति हो जाएगी। मुख्यमंत्री तो बहुत समय से यह मांग कर रहे हैं; पर अब जब उनकी अपनी जान और सत्ता ही खतरे में पड़ गयी है, तो वे फिर से सेना, कर्फ्यू, वार्ता और राजनीतिक समाधान की भाषा बोल रहे हैं।

उमर का राजनीतिक समाधान का राग वही है, जो अलगाववादी और पाकिस्तान प्रेरित देशद्रोही नेता लम्बे समय से गाते आये हैं। यानि जो लोग 1947 या उसके बाद कभी भी पाकिस्तान चले गये, उन्हें सम्मान सहित वापस लाएं। उन्हें नागरिकता देकर उनकी सम्पत्ति वापस करें। जो घुसपैठिये, आतंकवादी और पत्थरबाज जेल में हैं, उन पर दया की जाए। युवकों को सरकारी नौकरियां दी जाएं.. आदि। एक बात जो ये नेता नहीं बोलते; पर इन सब मांगों में से स्वतः परिलक्षित होती है, वह यह कि बचे खुचे हिन्दुओं को भी घाटी से सदा के लिए निकाल दिया जाए।

कश्मीर समस्या वस्तुतः नेहरू के पाप और अपराधों का स्मारक है। दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो यह मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि की समस्या है। इसे समझने के लिए डा. पीटर हैमंड द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘स्लेवरी, टेरेरिज्म एंड इस्लाम, दि हिस्टोरिकल रूट्स एंड कन्टैम्पेरेरी थ्रैट’ का अध्ययन बहुत उपयोगी है। इसके बारे में अंग्रेजी साप्ताहिक उदय इंडिया (17.7.2010) ने बहुत रोचक विवरण प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने बताया है कि जनसंख्या वृद्धि से मुस्लिम मानसिकता कैसी बदलती है ?

लेखक के अनुसार जिस देश में मुस्लिम जनसंख्या दो प्रतिशत से कम होती है, वहां वे शांतिप्रिय नागरिक बन कर रहते हैं। अमरीका (0.7 प्रति.), ऑस्ट्रेलिया (1.5 प्रति.), कनाडा (1.9 प्रति.), चीन (1.8 प्रति.), इटली (1.5 प्रति.), नोर्वे (1.8 प्रति.) ऐसे ही देश हैं। चीन के जिन प्रान्तों में मुसलमान उपद्रव करते हैं, वहां उनकी संख्या इस प्रतिशत से बहुत अधिक होने से वहां उनकी मनोवृत्ति बदल जाती है।

मुस्लिम जनसंख्या दो से पांच प्रतिशत के बीच होने पर स्वयं को अलग समूह मानते हुए वे अन्य अल्पसंख्यकों को धर्मान्तरित करने लगते हैं। इसके लिए वे जेल और सड़क के गुंडों को अपने दल में भर्ती करते हैं। निम्न देशों में यह काम जारी है: डेनमार्क (2 प्रति.), जर्मनी (3.7 प्रति.), ब्रिटेन (2.7 प्रति.), स्पेन (4 प्रति.) तथा थाइलैंड (4.6 प्रति.)।

पांच प्रतिशत से अधिक होने पर वे विशेषाधिकार मांगते हैं। जैसे हलाल मांस बनाने, उसे केवल मुसलमानों द्वारा ही पकाने और बेचने की अनुमति। वे अपनी सघन बस्तियों में शरीया नियमों के अनुसार स्वशासन की मांग भी करते हैं। निम्न देशों का परिदृश्य यही बताता है। फ्रांस (8 प्रति.), फिलीपीन्स (5 प्रति.), स्वीडन (5 प्रति.), स्विटजरलैंड (4.3 प्रति.), नीदरलैंड (5.5 प्रति.), ट्रिनीडाड एवं टबागो (5.8 प्रति.)।

मुस्लिम जनसंख्या 10 प्रतिशत के निकट होने पर वे बार-बार अनुशासनहीनता, जरा सी बात पर दंगा तथा अन्य लोगों और शासन को धमकी देने लगते हैं। गुयाना (10 प्रति.), भारत (13.4 प्रति.), इसराइल (16 प्रति.), केन्या (10 प्रति.), रूस (15 प्रति.) आदि में उनके पैगम्बर की फिल्म, कार्टून आदि के नाम पर हुए उपद्रव यही बताते हैं।

20 प्रतिशत और उससे अधिक जनसंख्या होने पर प्रायः दंगों और छुटपुट हत्याओं का दौर चलने लगता है। जेहाद, आतंकवादी गिरोहों का गठन, अन्य धर्मस्थलों का विध्वंस जैसी गतिविधियां क्रमशः बढ़ने लगती हैं। इथोपिया (32.8 प्रति.) का उदाहरण ऐसा ही है। 40 प्रतिशत के बाद तो खुले हमले और नरसंहार प्रारम्भ हो जाता है। बोस्निया (40 प्रति.), चाड (53.1 प्रति.) तथा लेबनान (59.7 प्रति.) में यही हो रहा है।

60 प्रतिशत जनसंख्या होने पर इस्लामिक कानून शरीया को शस्त्र बनाकर अन्य धर्मावलम्बियों की हत्या आम बात हो जाती है। उन पर जजिया जैसे कर थोप दिये जाते हैं। यहां अल्बानिया (70 प्रति.), मलयेशिया (60.4 प्रति.), कतर (77.5 प्रति.) तथा सूडान (70 प्रति.) का नाम उल्लेखनीय है।

80 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम जनसंख्या अन्य लोगों के लिए कहर बन जाती है। अब वे मुसलमानों की दया पर ही जीवित रह सकते हैं। शासन हाथ में होने से शासकीय शह पर जेहादी हमले हर दिन की बात हो जाती है। बांग्लादेश (83 प्रति.), इजिप्ट (90 प्रति.), गजा (98.7 प्रति.), इंडोनेशिया (86.1 प्रति.), ईरान (98 प्रति.), इराक (97 प्रति.), जोर्डन (92 प्रति.), मोरक्को (98.7 प्रति.), पाकिस्तान (97 प्रति.), फिलीस्तीन (99 प्रति.), सीरिया (90 प्रति.), ताजिकिस्तान (90 प्रति.), तुर्की (99.8 प्रति.) तथा संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रति.) इसके उदाहरण हैं।

100 प्रतिशत जनसंख्या का अर्थ है दारुल इस्लाम की स्थापना। अफगानिस्तान, सऊदी अरब, सोमालिया, यमन आदि में मुस्लिम शासन होने के कारण उनका कानून चलता है। मदरसों में कुरान की ही शिक्षा दी जाती है। अन्य लोग यदि नौकरी आदि किसी कारण से वहां रहते भी हैं, तो उन्हें इस्लामी कानून ही मानना पड़ता है। इसके उल्लंघन पर उन्हें मृत्युदंड दिया जाता है।

इस विश्लेषण के बाद डा. पीटर हैमंड कहते हैं कि शत-प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या होने के बाद भी वहां शांति नहीं होती। क्योंकि अब वहां कट्टर और उदार मुसलमानों में खूनी संघर्ष छिड़ जाता है। भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि ही आपस में लड़ने लगते हैं। कुल मिलाकर मुस्लिम विश्व की यही व्यथा कथा है।

अब इस कसौटी पर कश्मीर घाटी को रखकर देखें, तो तुरन्त ध्यान में आ जाएगा कि वहां की मूल समस्या क्या है ? पूरे भारत में मुस्लिम जनसंख्या भले ही 13.4 प्रतिशत हो; पर घाटी में तो 90 प्रतिशत मुसलमान ही हैं। हिन्दू बहुल जम्मू की अपेक्षा मुस्लिम बहुल कश्मीर से अधिक विधायक चुने जाते हैं, जो सब मुसलमान होते हैं। वहां मुख्यमंत्री सदा मुसलमान ही होता है। शासन-प्रशासन भी लगभग उनके हाथ में होने से जम्मू और लद्दाख की सदा उपेक्षा ही होती है। 1947 से यही कहानी चल रही है।

इस कहानी के मूल में नेहरू की मूर्खता, पाप और अपराध हैं। लेडी माउंटबेटन और शेख अब्दुल्ला से उनके संबंध अब सार्वजनिक हो चुके हैं। यदि कश्मीर का विलय भी नेहरू की बजाय सरदार पटेल के हाथ में होता, तो हैदराबाद और जूनागढ़ की तरह यहां भी समस्या हल हो चुकी होती; पर दुर्भाग्यवश इतिहास की घड़ी की सुइयों को लौटाया नहीं जा सकता। हां, उससे शिक्षा लेकर आगे का मार्ग प्रशस्त अवश्य किया जा सकता है।

दुनिया के कई देशों में ऐसी समस्याओं ने समय-समय पर सिर उठाया है। चीन, जापान, रूस, बर्मा, बुलगारिया, कम्पूचिया, स्पेन आदि ने इसे जैसे हल किया, वैसे ही न केवल कश्मीर वरन पूरे देश की मुस्लिम समस्या 1947 में हल हो सकती थी। 1971 में बांग्लादेश विजय के बाद भी ऐसा माहौल बना था; पर हमारे सेक्यूलर शासकों ने वे सुअवसर गंवा दिये।

इस समस्या के निदान के दो पक्ष हैं। पहला तो अलगाववादियों का सख्ती से दमन। वह राजनेता हो या मजहबी नेता, वह युवा हो या वृद्ध, वह स्त्री हो या पुरुष; वह मूर्ख हो या बुद्धिजीवी; वह मुसलमान हो या हिन्दू; पर देश के विरोध में बोलने वाले को सदा के लिए जहन्नुम भेजने का साहस शासन को दिखाना होगा। ऐसे सौ-दो सौ लोगों को गोली मार कर उनकी लाश यदि चौराहे पर लटका दें, तो आधी समस्या एक सप्ताह में हल हो जाएगी। हम अब्राहम लिंकन को याद करें, जिन्होंने गृहयुद्ध स्वीकार किया; पर विभाजन नहीं। इस गृहयुद्ध में लाखों लोग मारे गये; पर देश बच गया। इसीलिए वे अमरीका में राष्ट्रपिता कहे जाते हैं।

समाधान का दूसरा पहलू है कश्मीर घाटी के जनसंख्या चरित्र को बदलना। यह प्रयोग भी दुनिया में कई देशों ने किया है। तिब्बत पर स्थायी कब्जे के लिए चीन यही कर रहा है। चीन के अन्य भागों से लाकर इतने चीनी वहां बसा दिये गये हैं कि तिब्बती अल्पसंख्यक हो गये हैं। ऐसे ही हमें भी पूरे भारत के हिन्दुओं को, नाममात्र के मूल्य पर खेतीहर जमीनें देकर घाटी में बसा देना चाहिए। पूर्व सैनिकों के साथ ही ऐसे लोगों को वहां भेजा जाए, जो स्वभाव से जुझारू और शस्त्रप्रेमी होते हैं। सिख, जाट, गूजर आदि ऐसी ही कौमें हैं। ऐसे दस लाख परिवार यदि घाटी में पहुंच जाएं, तो वे स्वयं ही अलगाववादियों से निबट लेंगे।

कुछ लोग इसके लिए अनुच्छेद 370 को बाधा बताते हैं; पर यह ध्यान रहे कि दवा रोग मिटाने के लिए होती है। यदि उससे नया रोग पैदा होने लगे, तो उसे फेंकना ही उचित है। यदि अनुच्छेद 370 घाटी को देश से अलग करने में सहायक हो रहा है, तो उसे वैध-अवैध किसी भी तरह समाप्त करना ही होगा। मुस्लिम वोटों के दलाल चाहे जो कहें; पर यदि कश्मीर ही भारत में नहीं रहा, तो इस आत्माहीन अनुच्छेद का क्या हम अचार डालेंगे ?

कश्मीर भारत का मुकुटमणि है। डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बलिदान देकर ‘दो विधान, दो प्रधान और दो निशान’ के कलंक को मिटाया था। मेजर सोमनाथ शर्मा जैसे हजारों वीरों ने प्राण देकर पाकिस्तान से इसकी रक्षा की है। क्या उनका बलिदान हम व्यर्थ जाने देंगे ? अब वार्ता के नाटक का नहीं, निर्णायक कार्यवाही का समय है। इसमें जितना समय हमारे अदूरदर्शी राजनेता गंवा रहे हैं, कश्मीर उतना हाथ से निकल रहा है।

कहते हैं कि जो इतिहास से शिक्षा नहीं लेते, उनके लिए इतिहास स्वयं को दोहराता है। सारा देश पूछ रहा है कि क्या एक बार फिर हम इसी नियति की ओर बढ़ रहे हैं ?

7 COMMENTS

  1. No india no pakistan is not the solution …i know the sufferings. They are demanding like cutting the head due to headache. Kashmiri are our nation members and we are responsible for them because pakistan and china trying to distract our areas .and its our duty to fight with chikangunia and dengu…we have the solutions but our approaches (vaccines) are not working well enough .

  2. महोदय में एक वावात कहना चाहता हूँ कि — भारत में अंग्रेजी शासन हमारे हिन्दुओ के लिए अभिशाप न हो कर एक वरदान है, क्योंकि अगर आज तक मुस्लिम शासन हमारे देश में होता .. तो फिर एहा एक भी हिंदु नहीं रहेजाता- आज की तारीख में भारत एक मुस्लिम देश होता— सुकर् है कि अंग्रेजो ने ए मुसलमानों की हरम शासन खतम करके देश आपने कब्जे में ले लिया ओर हिन्दुओ को मुसलमान होने से वचालिया —-

  3. आप की बात बिलकुल सही है परन्तु यह बात अगर आप जब अटल बिहारी बाजपाई पी एम् थे तब उन्हें बताते तो अच्छा था आप लोग जब सत्ता में होते है तो मांद में घुस जाते है और जब बाहर होते है तो बड़ी बड़ी बाते करते है

  4. सरकार ने कभी भी काश्मीर समस्या को गम्भीरता से नही लिया बल्कि हमेशा राजनॆतिक फ़ायदे के लिये उपयोग किया. काश्मीर का साजिश पूरी दुनिया जानती है.
    जनमत संग्रह हास्यापद प्रश्न है. हर राज्य अलग रास्ट्र की मांग करेगा.
    सामान्य नियम है – कुते का बच्चा भोकता है, बिल्ली क बच्चा म्याउ बोलेगा, मेरा बच्चा हिन्दी बोलता है, अन्य बच्चे वही भाषा बोलेगे जो उनके माता पिता बोलेगे क्योकि वे जन्म से यही देखते सुनते आ रहे है. अगर प्रथक काश्मीर की मांग होती है तो कोइ अचरज नही है क्योंकी सरकार ने खुद हालात बनाए है. जरूरत है ठोस कदम उठाने की.
    अगर राजनेतिक इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी असम्भव नही. हमें पजाब आतन्कवाद नही भूलना चाहिय जिसे पूर्ण समाप्त कर दिया गया है.
    जरूरत है पकिस्तान से पूरी तरह से सम्बन्ध समाप्त करने कि क्योंकी पाकिस्तान ही समस्या की जड है. क्यो हम पुराने प्रेमी की तरह उससे मिलने की आस लगा कर अपना घर बर्बाद कर रहे है.

  5. महोदय,
    यहाँ विचार योग्य बात है की कश्मीर समस्या का क्या समाधान हो सकता है. क्या वहाँ हर छह साल में चुनाव कराकर स्थिति सामान्य होने का दावा किया जा सकता है या फिर किसी क्रांतिकारी समाधान पर विचार करना होगा.
    इस सम्बन्ध में निम्न हल पर बात करनी वर्तमान में आवश्यक है ….
    पुर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के शब्दो मे कहे तो कश्मीरियत की बात होनी चाहिए। सरकार और घाटी मे आन्दोलनकारियो दोनो को कुछ ऐसा करने की जरुरत है जिससे सभी लोगो को लगे और दिखे भी की उनके साथ न्याय हो रहा है। सबसे बड़ी चुनौती उस वैचारिक बिन्दू की खोज करने की जिस पर वार्ता की शुरुआत हो सके, मुख्यत निम्न बिंदु हो सकते हैं जिन पर बात की जानी चैहये
    जनमत संग्रह — कश्मीरियो को यह अधिकार मिले कि वे भारत रहना चाहते है या पाकिस्तान मे या दोनो से अलग होना चाहते है उनके वैसा करने दिया जाय। काश्मीर के घाटी मे जो आन्दोलन हो रहा है वह भारत की भगोलिक स्वतंत्रता को तहस नहस कर सकता है इस लिए धारा 370 को तत्तकाल प्रभाव से हटा दिया जाय। ताकि भारत के बाकी प्रांतो मे रह रहे लोग वहा जाकर रह सके । तीसरा हम कश्मीरियो की भावना कद्र करते हुए सभी गुटो से बातचीत करके उसे स्वायतता देने की बात की जाय।
    सबसे पहले हम पहले विकल्प पर विचार करते है युएनओ के प्रस्ताव के अनुसार कश्मीर जनमत-संग्रह की बात है जिसमे ये कश्मीरियो को यह अधिकार मिले कि वे भारत रहना चाहते है या पाकिस्तान मे या दोनो से अलग होना चाहते है। वर्तमान स्थिति को देखते हुए तो यह विल्कुल नामुकिन लगता है। क्योकि इसे न भारत मानेगा न पाकिस्तान यानि पहला प्रस्ताव तो पहली नजर मे ही खारिज हो जाता है।
    घाटी मे अलगाववादी अपने आप को पाकिस्तान और भारत दोनो से अलग होने की मांग करते है, उनके अनुसार स्विटजरलैन्ड के तरह आजाद कश्मीर बनाने का है। लेकिन इस्लामाबाद की नजर मे आजाद कश्मीर का अर्थ पाक से अलग कश्मीर नही। कश्मीर के ज्यादातर निवासी पाकिस्तान मे तो विल्कुल नही मिलना चाहते है। पाकिस्तानी इस तरह का तर्क देते है कश्मीर की अबादी मे मुस्लिम बहुलता है इस लिए उसे पाकिस्तान मे शामिल हो जाना चहिए उनका यह भी कहना है कि हिन्दू देश है इस लिए मुसलमान वहा पर मह्फुज नही रह सकते । इसके विरोध मे तर्क दिये जाते है कि भारत एक धर्मनिरपेघ देश यहा पर मुसलमानो की अबादी 15 करोड से अधिक मुसलमान रहते है। अगर धर्म के अधार यदि कोई बटबाडा होता है तो इससे पुराने जख्म पुन ताजा हो जायेंगे। ओर हमको ये बात कतई गवारा नहीं होनी चाहिए ..
    संविधान की धारा 370 हटाने की मांग राजनीति करते है उनका भी मांग पहली नजर मे व्यवहारिक नही लगता है। 370 वह धारा है जिसके बदौलत जम्मू और कश्मीर भारत का हिस्सा बना । अगर इसे हटा दिया जायेगा तो कश्मीर के जनता के साथ विश्वासघात होगा। ऐसा करने अलगाववादी के अफवाहो को बल मिलेगा कि हिन्दू कश्मीर के ताना बान को तोडना चाहता है।
    लेकख का तर्क है कि भारत को चीन के तर्ज पर जिसने तिब्बत ताकत के बुते पर निपट कर चीन का अभिन्न अंग बना लिया उसी तरहा भारत को भी वैसा ही करके कश्मीर मसले का समाधान निकाल लेना चाहिए। यह नैतिक और राजनीतिक तौर पर गलत होगा। जो इस समस्या का सही समाधान चाहते है उन्हे निराशा हाथ लगेगी।
    अब स्वयतत्ता का विकल्प बचता है इसके लिए धारा 370 को मुख्यबिन्दू बनाके आत आगे की जा सकती है। इसके लिए सरकार को साहसिक फैसले लेने जैसे अगर अलगाववादी 1953 से पहले की स्थिति पर बातचीत करना चाहते है तो सरकार को यह विकल्प भी खुला रखना होगा।
    बुकर पुरस्कार से सम्मानित और मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुंधति रॉय का तो यह भी कहना है कि अब समय आ गया है जब भारत सरकार को कल्पना से बाहर नज़र आने वाले समाधान पर भी विचार करना होगा और वो विकल्प है कि भारत सरकार को कम से कम कश्मीर घाटी पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए जबकि हिंदू बहुल जम्मू और बौद्ध बहुल लद्दाख को अपने ही पास रखना चाहिए.

    हालाँकि यह एक ऐसा सुझाव है जिसे अनेक वर्षों पहले ही रद्द किया जा चुका है और ये व्यवहारिक भी नहीं माना जा सकता है
    वर्तमान में सरकार की अकर्मण्यता के कारन ही ये समस्या विकराल रूप ले रही है , समस्या कितनी भी गंभीर क्यों न हो उसका कोई न कोई हल ज़रूर होता है परन्तु उसके लिए निर्णायक कार्यवाही का मन होना चाहिए
    यहाँ agyaani जी का कथन ——- पर ये सब तभी संभव है जब हमारे राजनेता कुछ इच्छाशक्ति दिखायें , बिलकुल सही प्रतीत होता है

  6. महोदय,
    दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो यह मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि की समस्या है। इसे समझने के लिए डा. पीटर हैमंड द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘स्लेवरी, टेरेरिज्म एंड इस्लाम, दि हिस्टोरिकल रूट्स एंड कन्टैम्पेरेरी थ्रैट’ का अध्ययन बहुत उपयोगी है।……………………… से लेकर ………………………………इस विश्लेषण के बाद डा. पीटर हैमंड कहते हैं कि शत-प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या होने के बाद भी वहां शांति नहीं होती। क्योंकि अब वहां कट्टर और उदार मुसलमानों में खूनी संघर्ष छिड़ जाता है। भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि ही आपस में लड़ने लगते हैं। कुल मिलाकर मुस्लिम विश्व की यही व्यथा कथा है।…………………… तक का लेख तो टिपण्णी योग्य नहीं माना जाना चाहिए वो भी कश्मीर के संधर्भ में में इसके कोइ मायने नहीं हैं ……………
    सरदार पटेल के संदर्भ में यह अनुभव किया गया कि यदि सरदार पटेल को कश्मीर समस्या सुलझाने की अनुमति दी जाती, जैसा कि उन्होंने स्वयं भी अनुभव किया था, तो हैदराबाद की तरह यह समस्या भी सोद्देश्यपूर्ण ढंग से सुलझ जाती। एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच.वी. कामत को बताया था कि ‘‘यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।’’
    …………………………………………………………………………..
    समाधान का दूसरा पहलू है कश्मीर घाटी के जनसंख्या चरित्र को बदलना। यह प्रयोग भी दुनिया में कई देशों ने किया है। तिब्बत पर स्थायी कब्जे के लिए चीन यही कर रहा है। चीन के अन्य भागों से लाकर इतने चीनी वहां बसा दिये गये हैं कि तिब्बती अल्पसंख्यक हो गये हैं। ऐसे ही हमें भी पूरे भारत के हिन्दुओं को, नाममात्र के मूल्य पर खेतीहर जमीनें देकर घाटी में बसा देना चाहिए। पूर्व सैनिकों के साथ ही ऐसे लोगों को वहां भेजा जाए, जो स्वभाव से जुझारू और शस्त्रप्रेमी होते हैं। सिख, जाट, गूजर आदि ऐसी ही कौमें हैं। ऐसे दस लाख परिवार यदि घाटी में पहुंच जाएं, तो वे स्वयं ही अलगाववादियों से निबट लेंगे।…………………..
    यहाँ लेकख चाहते हैं की देश में गृह युद्ध की स्तिथि पैदा की जाये ये समझ के बाहर है की ये किस तरह का निदान सुझाया जा रहा है जबकि ये पूर्णत असवेंधानिक है शायद लेकख ने भावनाओ में बहकर लिख दिया है वरना वे भली भांति जानते हैं की ऐसा नहीं हो सकता है ……………
    एक तरफ हम चीन की तिब्बत नीती की आलोचोना करते हैं और दलाई लामा को धर्मशाला में रखते हैं ध्यान रहे भाजपा भी समर्थन करती हैं दुसरी तरफ उसकी तिब्बत में की गयी कार्यवही को जायज़ ठहराकर खुद को कटघरे में खड़ा कर रहें हैं……….
    ऐसे सौ-दो सौ लोगों को गोली मार कर उनकी लाश यदि चौराहे पर लटका दें, तो आधी समस्या एक सप्ताह में हल हो जाएगी। ……………..
    यहाँ लेकख ने ऑस्टिन की प्रभु का समादेश की विधि की परिभाषा का समर्थन किया है जिसके बल पर ब्रिटिश ने हम पर २०० साल राज किया और हम उसकी निंदा करते नहीं थकते हैं पता नहीं पर लेकख को शायद ज्ञात न हो की १०० -२०० से अधिक लोग तो मरते रहना कश्मीर में आम बात है पता नहीं उनको केसे लगता ही की ६० साल की समस्या १०० -२०० logo को मार कर हल की जा सकती है ये तर्क से pare है ऐसी सोच का होना खुद एक समस्या है ………………..
    कुल मिलाकर एक गंभीर समस्या को इस लेख द्वारा सतही बना दिया जा रहा है इस प्रकार के लेख चुनावी वातावरण में नेताओं के भाषण का हिस्सा हो सकते हैं ……………
    शुभकामनाओ के साथ ………….. दीपा शर्मा

  7. बिलकुल सही बात कही है महोदय आपने! पर ये सब तभी संभव है जब हमारे राजनेता कुछ इच्छाशक्ति दिखायें तो! क्या हमें वाजपेयी जी /शास्त्री जी जैसा प्रधानमंत्री मिलेगा जो ये असम्भव काम कर दिखाए?

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