कहो कौन्तेय-५७

विपिन किशोर सिन्हा

(श्रीकृष्ण का आखिरी शान्ति-प्रस्ताव)

श्रीकृष्ण ने मुस्कुराकर दुर्योधन को देखा। मधुर वाणी में दुर्योधन से कहने लगे –

“कुरुनन्दन! मेरी बात ध्यान से सुनो। इससे तुम्हारा, तुम्हारे परिवार, क्षत्रिय समाज और संपूर्ण आर्यावर्त का हित होगा। तुमने बुद्धिमानों के कुल में जन्म लिया है, अतः शुभ कार्य ही तुमसे अपेक्षित है। पाण्डव तुम्हारे भ्राता हैं। वे अत्यन्त बुद्धिमान, शूरवीर उत्साही और आत्मज्ञ हैं। उन्होंने कभी भी तुम्हारा अनिष्ट नहीं किया है और मैं विश्वास दिलाता हूं कि यदि तुम उनका न्यायोचित आधा राज्य लौटा देते हो, तो भविष्य में कभी तुम्हारे अनिष्ट के विषय में सोचेंगे भी नहीं। तुम उनके साथ संधि कर लो। महाराज धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य. कृपाचार्य, सोमदत्त, वाह्लिक, अश्वत्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा तुम्हारे अधिकांश बन्धु-बान्धव भी यही चाहते हैं।

तुम पाण्डवों की ओर से मुंह मोड़कर किसी दूसरे के भरोसे अपनी रक्षा करना चाहते हो तथा दुशासन, शकुनि और कर्ण के हाथ में अपना ऐश्वर्य सौप्पकर पृथ्वी कॊ जीतने की आशा रखते हो। यह असंभव है। इस समय तुम्हारे विवेक पर लोभ, क्रोध, ईर्ष्या और द्वेष का आधिपत्य है जो गलत संगति का परिणाम है। तुम्हारे ये तथाकथित हितचिन्तक न तो तुम्हें ज्ञान, धर्म और मोक्ष की प्राप्ति करा सकते हैं और न ही संभाव्य महासमर में विजय दिला सकते हैं। तुम्हारे पास जितनी सेना एकत्र हुई है, वह भीमसेन के मुख की ओर भी आंख नहीं उठा सकती। भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा और जयद्रथ मिलकर भी अर्जुन का समना नहीं कर सकते। तुम्हीं इन सब राजाओं में कोई ऐसा वीर दिखाओ जो युद्धभूमि में अर्जुन का सामना कर सकुशल घर लौट सकता हो। कुछ ही दिन पूर्व विराटनगर में अर्जुन ने जिस तरह तुम्हें और तुम्हारे समस्त महारथियों को पराजित किया, वह तुम्हारी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है। उस सम्य वह अकेला था, इस सम्य मैं भी उसके साथ हूं। ती*नों लोकों में ऐसा कोई योद्धा नहीं जो मेरी और अर्जुन की सम्मिलित शक्ति का तेज सह सके। जो पुरुष युद्ध में अर्जुन को जीतने की शक्ति रखता है, वह तो अपने हाथों में संपूर्ण पृथ्वी को कन्दुक की भांति उठा सकता है, क्रोध से सारी सृष्टि को भस्म कए सकता है और देवताओं को भी स्वर्ग से गिरा सकता है।

हे तात! तुम तनिक अपने पिता, पुत्र, भाई, बन्धु-बान्धव, संबन्धियों और मित्रों की ओर तो देखो। इन्हें नष्ट होने से बचा लो। कौरवों का बीज सुरक्षित रहने दो। इस वंश का पराभव आमंत्रित मत करो, अपनी कीर्ति को कलंकित मत करो, अपने को कुलघाती मत कहलाओ। धर्मनिष्ठ पाण्डव तुम्हें ही युवराज बनाएंगे। उत्साह से अपने पास आती हुई राज्यलक्ष्मी का तिरस्कार मत करो और इस तरह चिरकाल तक आनन्दपूर्वक सुख भोगो।”

“जिसे आप पाण्डव कह रहे हैं, वे महाराज पाण्डु के औरस पुत्र नहीं हैं। वे कुरुकुल के उत्तराधिकारी नहीं हो सकते। उनका इस राज्य से कोई संबन्ध नहीं है। राज्य का विभाजन मुझे स्वीकार नहीं।” दुर्योधन ने दो टूक उत्तर दिया।

“अगर पाण्डव कुरुकुल के नहीं, तो क्या तुम कुरुकुल के वंशज हो? तुम्हारे पिता की उत्पत्ति भी नियोग विधि से हुई थी। मैं वह अन्तिम व्यक्ति हूं जिसकी धमनियों में महान कुरुओं का रक्त आज भी प्रवाहित होता है। अगर तुम्हारी बातों को आधार माना जाए तो इस सिंहासन पर मेरे अतिरिक्त किसी का भी अधिकार नहीं बनता – धृतराष्ट्र का भी नहीं पाण्डुब का भी नहीं।” पितामह ने तिलमिलाकर दुर्योधन को डांटा।

“तो आप ही इस सिंहासन पर आरूढ़ क्यों नहीं हो जाते?”

“मूर्ख दुर्योधन! क्या तुम्हें ज्ञात नहीं, कि मैं सिंहासन पर न बैठने की प्रतिज्ञा से बंधा हूं। इसी का लाभ उठाकर तुम्हारे पिताश्री उसपर विराजमान हैं।”

“पितामह! आपके मतानुसार, हस्तिनापुर राज्य के स्वाभाविक उत्तराधिकारी न हम हैं और न पाण्डव। तो फिर यह विवाद कैसा? जिसके पास शक्ति होगी, वही इसका शासक होगा। हमारे पास शक्ति है, अतः सत्ता हमारी है। पाण्डवों में यदि सामर्थ्य है, तो हमें युद्ध में पराजित कर आधी क्या, संपूर्ण सत्ता प्राप्त कर सकते हैं।” दुर्योधन ऐसे बोल रहा था, जैसे गदा प्रहार कर रहा था।

“जो न्याय है, उसे दुराग्रह द्वारा अमान्य न करो दुर्योधन। तुम्हें युद्ध के परिणामों का भान नहीं है, लेकिन मुझे हो रहा है। महाविनाश को टालने के लिए मैं अन्तिम प्रस्ताव रख रहा हूं।”

सभा में उपस्थित सभी सभासदों की दृष्टि एक बार फिर श्रीकृष्ण पर आकर ठहर गई। सभी उत्सुक थे उनका नया संधि-प्रस्ताव सुनने हेतु।

“आश्रय के लिए – सहारे के रूप में, इस विशाल हस्तिनापुर साम्राज्य के कम से कम पांच गांव ही तुम इन पांच बन्धुओं को देने के लिए तैयार हो जाओ।” मन को अत्यन्त कठोर करते हुए श्रीकृष्ण ने प्रस्ताव रखा।

“नहीं, कदापि नहीं। पांच ग्राम तो क्या, बिना युद्ध किए, अपने जीते जि पाण्डवों को, इस राज्य का सूई के अग्रभाग पर थरथराते हुए धूल के कण बराबर भी कोई भाग मैं नहीं दूंगा। यह मेरा अन्तिम निर्णय है और आपके अन्तिम प्रस्ताव का अन्तिम उत्तर।” क्रोधावेश में बोलते हुए दुर्योधन की आंखों से अंगारे बरस रहे थे।

पाण्डवों के लिए सिर्फ पांच ग्राम! श्रीकृष्ण का प्रस्ताव और दुर्योधन का उत्तर सुन पूरी सभा स्तब्ध थी। संवेदनशील सभासद, योद्धाओं के हृदय द्रवित हो उठे। पितामह, आचार्य, द्रोण. कृपाचार्य और विदुर की आंखों से बहते नीर को स्पष्ट देखा जा सकता था। कृष्ण ने ललकारते हुए नीति वचन कहे –

“दुर्योधन अहंकार और सत्ता के मद में उन्मत्त है। ऐसा एक दिन में नहीं हुआ है। कौरवों में जो वयोवृद्ध हैं, यह उनकी भूल का परिणाम है। महाराज धृतराष्ट्र कहने के लिए राजा हैं, लेकिन वास्तविकि सम्राट दुर्योधन बन बैठा है, ठीक उसी तरह जिस तरह दुराचारी कंस ने अपने पिता के जीवित रहते उनका राज्य छीन लिया था। मैंने उसे उसके पाप का दण्ड दिया था – मृत्यु दण्ड के रूप में।

कुल की रक्षा के लिए एक पुरुष को, ग्राम की रक्षा के लिए कुल को, देश की रक्षा के लिए ग्राम को और धर्म ली रक्षा के लिए आरी पृथ्वी का त्याग अगर आवश्यक हो, तो निस्संकोच कर देना चाहिए। दुर्योधन, कर्ण, दुशासन और शकुनि के लिए सबसे उचित स्थान कारागार है। अतः समय रहते इन चारों को बन्दी बना कारागार में डालकर आपलोग पाण्डवों से संधि कर लें और इस पृथ्वी के समस्त क्षत्रियों को महा विनाश से बचा लें।”

दुर्योधन की राजसभा में उसी को बन्दी बनाने का सुझाव सिर्फ कृष्ण ही दे सकते थे। सब चुप थे। एक-दूसरे की ओर देखकर सामने वाले के मन की थाह ले रहे थे। एक विलक्षण भारीपन प्रासाद की सामान्य स्थिति का गला दबा बैठा था। दुशासन किसी षड्‌यंत्र की आशंका से सिहर गया। दुर्योधन के कान में मुंह सटाकर धीरे से फुसफुसाया –

“राजन! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पितामह, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने पिताश्री के साथ मिलकर कृष्ण की सहमति से कोई षड्‌यंत्र रच रखा है। यदि आप स्वयं की इच्छा से संधि नहीं करेंगे, तो ये लोग आपको, मुझे और कर्ण को बांधकर, पाण्डवों के हाथ सौंप देंगे।”

क्रमशः

 

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