कहो कौन्तेय-५६ (महाभारत पर आधारित उपन्यास अंश)

विपिन किशोर सिन्हा

(हस्तिनापुर की राजसभा में श्रीकृष्ण का पदार्पण)

यह कार्तिक मास की पूर्णिमा का दिन था। रेवती नक्षत्र और मैत्री मुहूर्त्त में श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया। शत्रुओं के दुर्ग में श्रीकृष्ण का प्रवेश! सभी चिन्तित हो रहे थे लेकिन मैं उनकी सुरक्षा के प्रति तनिक भी चिन्तित नहीं था। जिसने बाल्यावस्था में ही पूतना और बकासुर को खेल-खेल ही में मार डाला था, गोवर्धन पर्वत को तर्जनी पर धारण कर इन्द्र को चुनौती दी थी; अरिष्टासुर, धेनकासुर, चाणूर, केशी और कंस को धूल में मिला दिया था, उसकी सुरक्षा की चिन्ता कोई अज्ञानी ही कर सकता था। लेकिन युधिष्ठिर को पता नहीं क्यों चिन्ता सताए जा रही थी। श्रीकृष्ण ने उनके मनोभावों को ताड़ लिया। उनकी संतुष्टि हेतु उन्होंने सात्यकि, कृतवर्मा सहित दस महारथी, एक हजार पैदल और एक हजार अश्वारोही योद्धा अपने साथ ले लिए। रथ के पृष्ठ भाग में शंख, चक्र, गदा, धनुष, तूणीर, शक्ति और अनेक दिव्यास्त्र भी रख दिए गए। उन्हें विदा देने के लिए हम पांचो भ्राताओं के अतिरिक्त महाराज, द्रुपद, केकयराज, चेकितान, शिखण्डी और धृष्टद्युम्न विशेष रूप से उपस्थित थे। हम सबने शुभकामनाओं के साथ श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर के लिए विदा किया।

मथुरा में कंस के कारागार में जन्मे, गोकुल में कृष्ण के नाम से पले, चमत्कारी कर्मों के कारण, मानव से भगवान बने श्रीकृष्ण ने अपनी ऐतिहासिक यात्रा प्रारंभ कर ही दी। महाराज धृतराष्ट्र को पूर्व सूचना भेज दी गई थी। हस्तिनापुर को नववधू की तरह सजाया गया – नगरजनों के आवासों के सम्मुख, अशोक और आम्रवृक्षों के पत्तों के बन्दनवार बनाए गए, सुगन्धित जल से मार्ग को सींचकर स्थान-स्थान पर सुन्दर अल्पनाएं चित्रित की गईं, पुष्प मालाओं से सजाकर ऊंचे-ऊंचे ध्वज और तोरण लगाए गए। दुर्योधन ने केशव को रिझाने के लिए सारे प्रयत्न किए थे। वह शल्य की ही तरह श्रीकृष्ण को भी अतिरिक्त स्वागत, आदर-सत्कार के बल पर अपने पक्ष में मिलाने का दिवास्वप्न देख रहा था। मूढ़ दुर्योधन इसके सिवा कुछ और सोच भी नहीं सकता था। साधु, चोर लंपट और ज्ञानी सभी को अपनी ही तरह समझते हैं।

श्रीकृष्ण का प्रथम पड़ाव वृकस्थल में पड़ा। मुस्कुराते हुए वहीं से हस्तिनापुर पर दृष्टिपात किया। कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि कुरुवंश की यह राजधानी उपर से चमकते-दमकते महलों और गगनचुंबी महलों का अलंकार धारण किए, अपने गर्भ में कितना बड़ा ज्वालामुखी छिपाए हुए है। उपर-उपर प्रसन्नता की हरीतिमा थी, हर्ष का वसन्त था, पर भीतर-भीतर घृणा, विद्वेष और प्रतिहिन्सा की ज्वाला धधक रही थी। क्या कृष्ण की अमृतवाणी उस ज्वाला को शान्त कर पाएगी? इसका उत्तर कृष्ण औए सिर्फ कृष्ण के ही पास था।

रात्रि विश्राम के पश्चात सूर्य की सर्वस्पर्शी किरणों के साथ श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर में प्रवेश किया। मुख्य द्वार पर असंख्य वाद्यों के संगीत के साथ भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर, अश्वत्थामा, दुर्योधन के अतिरिक्त सभी धृतराष्ट्र पुत्रों ने उनकी अगवानी की। उनके दर्शन के लिए राजमार्ग पर बालक, युवक, वृद्ध और वनिताओं का मेला-सा लगा था। श्रीकृष्ण ने प्रेमपूर्वक सबका अभिवादन स्वीकार किया। किसी के भी जय-जयकारों से हस्तिनापुर इतना कभी नहीं गूंजा था, जितना उस दिन श्रीकृष्ण के जयकारों से गूंज रहा था।

महात्मा विदुर को आग्रहपूर्वक अपने रथ में बिठा वे राजपथ पर चल पड़े। अल्प समय में ही विदुर जी ने हस्तिनापुर में कौरवों की गतिविधियों, धृतराष्ट्र और दुर्योधन के मनोभावों से उनको अवगत करा दिया। श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम दुर्योधन से ही मिलने का निर्णय लिया। स्वयं बात करके उसकी मनोदशा का आकलन अत्यन्त आवश्यक था।

दुर्योधन के आश्चर्य की सीमा नहीं थी। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि श्रीकृष्ण सीधे उसके महल में आएंगे। वह तो उनके राजसभा में पहुंचने की सूचना की प्रतीक्षा कर रहा था। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम और व्यवस्था के अनुसार उन्हें सीधे राजसभा में ही जाना था। लेकिन श्रीकृष्ण औरों की दी हुई व्यवस्था में कबसे बंधने लगे। उनका प्रत्येक कर्म सदा ही एक नई व्यवस्था की रचना करता था।

दुर्योधन थोड़ा हड़बड़ाया अवश्य, परन्तु शीघ्र ही स्वयं को संयत करते हुए श्रीकृष्ण का उचित स्वागत-सत्कार किया, कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान किया, फिर भोजन के लिए प्रार्थना की। केशव दुर्योधन के यहां भोजन कैसे ग्रहण करते? उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया। कारण पूछने पर गंभीर वाणी में स्पष्ट कर ही दिया –

“राजन! अपना उद्देश्य पूर्ण होने के बाद ही दूत द्वारा भोजनादि ग्रहण करने का विधान है। जब मेरा कार्य पूरा हो जाएगा, तब मेरा और मेरे सहयोगियों का सत्कार करना। मैं शल्य नहीं हूं, अतः काम, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर धर्म को नहीं छोड़ सकता। भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति पड़ने पर। मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेमभाव नहीं है और मैं किसी आपत्ति में भी नहीं हूं। यह अन्न भी तुम्हारा नहीं है। इसपर पाण्डवों का स्वाभाविक अधिकार है। इसे तुमने अधर्म और अन्याय से दस्यु की भांति प्राप्त किया है। अतः धर्मपथ पर चलने वाले पुरुषों के लिए अखाद्य है। पूरे हस्तिनापुर में सिर्फ विदुरजी का ही अन्न खाने योग्य है। मैं उन्हीं के घर भोजन करूंगा।”

दुर्योधन निरुत्तर था। श्रीकृष्ण ने विदुरजी का आतिथ्य स्वीकार किया। भोजनोपरान्त रात्रि-विश्राम भी वहीं किया।

सूर्य तो अपने सात अश्वों से जुते रथ पर सवार हो क्षितिज के उस पार नित्य ही प्रकट होता है। कभी तो उसकी रश्मियों के साथ ऊँ का शान्त स्वर वातावरण को गुंजायमान करता है और कभी युद्ध की रणभेरी कोलाहल भर देती है। कैसा होगा अगला पल, मानव मन अन्जान है, लेकिन नींद खुलते ही सूर्य की प्रथम किरणों के साथ सुप्रभात की कामना अवश्य करता है। हस्तिनापुर के सम्राट, नगरवासी, ग्रामवासी, दास-दासी, परिजन, सबने दोनों हथेलियों को जोड़ ब्रह्मा, मुरारी, त्रिपुरान्तकारी, भानु, शशि, भूमि और नौ ग्रहों से सुप्रभात की कामना के साथ श्रीकृष्ण के शान्ति प्रस्तावों की सफलता के लिए प्रार्थना की। केशव ने भी प्रातः काल उठकर स्नान, जप अग्निहोत्र, सूर्य उपस्थान के पश्चात दुर्योधन और शकुनि द्वारा महाराज धृतराष्ट्र का संदेश पा, राजसभा के लिए प्रस्थान किया।

हस्तिनापुर की राजसभा। महान कुरुवंशियों की राजसभा। किसे पता था कि महाराज धतराष्ट्र के नेतृत्व में आज उसकी अन्तिम बैठक हो रही थी। महाराज धृतराष्ट्र और महारानी गांधारी भव्य राजसिंहासन पार आसीन थे। पृष्ठभूमि में कुरुओं के मानचिह्न के रूप में ढालकर बनाई गई चन्द्रदेव की स्वर्ण प्रतिमा प्रतिष्ठित थी। श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ आतुर योद्धाओं और सभासदों से राजसभा भरी थी। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दुशासन अग्रिम पंक्ति में विराजमान थे। श्रीकृष्ण ने महात्मा विदुर, सात्यकि के साथ सभाभवन में प्रवेश किया। अमात्य वृषपर्वा ने उन्हें उनके विशेष आसन पर विराजमान कराया। महाराज और सभासदों से यथायोग्य अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ। औपचारिकताओं के निर्वहन के पश्चात श्रीकृष्ण ने द्वार पर खड़े महर्षि परशुराम, कण्व और नारदादि ऋषियों को देखा। उनके आग्रह पर पितामह भीष्म ने शीघ्र ही उनके लिए अलग आसनों की व्यवस्था कर उन्हें स्थान ग्रहण कराया। महाराज की ओर से श्रीकृष्ण का स्वागत अमात्य वृषपर्वा ने किया। झुककर अपना स्थान ग्रहण करने के पूर्व वे बोले –

“……..आज की यह राजसभा अभूतपूर्व है। आज यहां निश्चित होगा कि कल का सूरज शान्ति की शीतलता लेकर आएगा या युद्ध की भीषण ज्वाला। समय महत्त्वपूर्ण है, परिस्थिति विकट। द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण अपने आगमन का प्रयोजन स्वयं बताएंगे। सभी राजा, मंत्री, सचिव एवं सभासद शान्तिपूर्वक उसपर विचार करेंगे, ऐसा हमारा आग्रह है।”

क्रमशः

 

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