कहो कौन्तेय-६४ (महाभारत पर आधारित उपन्यास अंश)

(भीष्म-वध के लिए भीष्म से मंत्रणा)

विपिन किशोर सिन्हा

सूर्यवंशी क्षत्रिय नित्य ही लक्ष-लक्ष की संख्या में विनाशकारी युद्ध की भेंट चढ़ रहे थे। लेकिन सूर्य को इससे क्या? वह चौथे दिन भी प्रखरता से निकला। कौरवों ने वृषभ व्यूह की रचना की, हमने गजराज। प्रतिदिन कम से कम एकबार मैं और पितामह आमने-सामने होते थे। आज भी हुए। लेकिन चौथा दिन याद किया गया – धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, वीरवर भीम और घटोत्कच के पराक्रम के लिए। भीषण युद्ध में भगदत्त के बाणों से जब भीम कुछ क्षणों के लिए अचेत हुए, तो घटोत्कच के क्रोध की सीमा नहीं रही। भीम ने पहले ही भगदत्त की गजसेना की कमर तोड़ दी थी, घटोत्कच ने सफाया ही कर दिया। भगदत्त के प्राण संकट में पड़ गए। पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य ने उसे सुरक्षा कवच दिया। घटोत्कच इनके भी छक्के छुड़ा रहा था। तभी भगवान भास्कर ने पश्चिम के क्षितिज में डुबकी लगा ली। युद्ध बंद हो गया। उस दिन कौरव सेना को हर मोर्चे पर मुंह की खानी पड़ी थी।

प्रभात काल में नित्य सूरज का उगना और सायंकाल पश्चिम के क्षितिज में डूब जाना एक नियमित क्रिया होती है। यह महासमर भी उसी तरह हमारे दैनिक जीवन का एक अंग बनता जा रहा था। प्रभात होते ही नित्य नई-नई व्यूह रचना होती, नवीन उत्साह के साथ सभी युद्ध में प्रवृत्त होते और सूर्यास्त तक अपने अनगिनत प्रिय पात्रों की बलि चढ़ा लौट आते। ऐसा कोई नहीं था जिसने अपनों को खोने की वेदना नहीं सही हो। युद्ध के पांचवे दिन अन्तिम क्षणों में भूरिश्रवा ने सात्यकि के दस महारथी पुत्रों का वध किया, सातवें दिन भीमसेन के हाथों दुर्योधन के पन्द्रह भाई मारे गए, मेरी पत्नी, नागकन्या उलूपी से उत्पन्न इरावान वीरगति को प्राप्त हुआ। मृत्यु से पूर्व उसने शकुनि को पुत्रहीन किया।

युद्ध से वितृष्णा-सी होने लगी थी। शकुनि, कर्ण की कुमंत्रणा और दुर्योधन का हठ, कितने और बन्धु-बान्धवों का विनाश कराएगा, अनुमान लगाना कठिन था। पुत्र इरावान की मृत्यु ने मुझे अन्दर से विचलित कर दिया। मैंने जीवन में उसे कभी कुछ नहीं दिया। व्रतभंग के कारण वनवास की अवधि में उलूपी से मेरी भेंट हुई थी। हम दोनों के प्रेम का प्रतीक था इरावान। उसने मेरे लिए, अपने पिता के लिए रणभूमि में अपने प्राण न्यौछवर किए थे। मृत्यु से पूर्व उसने अतुलित पराक्रम का प्रदर्शन किया था। गर्व के साथ नम आंखों से मैंने उसे श्रद्धांजलि अर्पित की।

 

महासमर के नौ दिन बीत चुके थे। ऊंट कभी हमारी ओर करवट लेता तो कभी कौरवों की ओर। हमारे और विजय के बीच पितामह नित्य ही चट्टान बनकर खड़े हो जाते। उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। उनका वध करने की यद्यपि मैंने प्रतिज्ञा कर रखी थी लेकिन इस तथ्य से मैं अवगत था कि आसानी से उनका वध नहीं किया जा सकता। मैं प्रतिदिन नई युक्तियों के साथ उनका सामना करता, अब प्राणघातक प्रहार भी करने लगा था। परन्तु पितामह मेरे सारे प्रयासों को निष्फल कर देते थे। अधिक दिनों तक उन्हें जीवित रखने का अर्थ था – पाण्डवों की पराजय। महाराज युधिष्ठिर की चिन्ता भी बढ़ती जा रही थी। समस्या के समाधान हेतु युद्ध-समाप्ति के बाद नवें दिवस की रात्रि में आगे की रणनीति निर्धारित करने के लिए एक विशेष बैठक बुलाई गई। सभी मुख्य पाण्डव, वृष्णि और सृंजय वीर उसमें उपस्थित हुए। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए अपनी व्यथा सुनाई –

“हे मधुसूदन! युद्ध के नौ दिन बीत गए। अब तक हमारे आधे सैनिक और महारथी अपनी आहुति दे चुके लेकिन कोई परिणाम निकलता दिखाई नहीं दे रहा। अजेय पितामह हमारे विजय के मार्ग में सबसे बड़े अवरोध सिद्ध हो रहे हैं। इस समय वे धधकती हुई अग्नि के समान प्रतीत होते हैं। उनकी तरफ आंख उठाकर देखने का साहस भी हम नहीं कर पा रहे हैं। जैसे जलती हुई आग की ओर दौड़ने वाला पतंग मृत्यु के मुख में ही जाता है, वही दशा भीष्म के सामने जाने पर हमारी सेना की हो रही है। मेरे सारे भ्राता उनके बाणों की चोट से अत्यन्त कष्ट पा रहे हैं। उनके जीते जी विजयश्री हमारा वरण नहीं कर सकती। आप ही कोई युक्ति बताइये जिससे उनसे पार पाया जा सके।”

महाराज युधिष्ठिर कि बातों में सच्चाई थी। भविष्य के प्रति अनिश्चितता थी, निराशा भी थी। श्रीकृष्ण ने उन्हें सांत्वना दी और कहा –

“धर्मराज! आप विषाद न करें। आपके चारो भ्राता अत्यन्त शूरवीर, दुर्जय, पराक्रमी और शत्रुओं का नाश करने वाले हैं। भीम और अर्जुन तो वायु और अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदन प्राप्त है। उनके प्राण तो उनकी इच्छा से ही निकलेंगे लेकिन अर्जुन अगर चाहें तो उन्हें अपने बाणों के प्रहार से इस स्थिति में ला सकते हैं कि वे युद्ध के योग्य न रह जाएं। अर्जुन के लिए यह कोई कठिन कार्य नहीं है। असंभव को भी संभव बना देना उनके लिए बाएं हाथ का खेल है। दैत्य और दानवों के साथ संपूर्ण देवता भी उनके साथ युद्ध करने आ जाएं, तो अर्जुन उन्हें भी मार सकते हैं, फिर भीष्म की तो बिसात ही क्या है? लेकिन ऐसा करने की यदि अर्जुन की इच्छा नहीं है तो आप मुझे स्नेहपूर्वक आदेश करें – मैं अकेले भीष्म का वध कर दूंगा।”

मेरे मन की दुर्बलता मुझसे अधिक श्रीकृष्ण जानते थे। उनका कथन सत्य था। मैंने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया। मौन रहकर सबकी बातें सुनता रहा।

युद्ध आरंभ होने के पूर्व हमें आशीर्वाद देते समय पितामह ने युधिष्ठिर से कहा था कि वे युद्ध तो दुर्योधन की ओर से ही करेंगे लेकिन आवश्यकता पड़ने पर हमारी विजय के लिए, हमारे हित के लिए उचित सलाह देते रहेंगे। उनका शरीर तो कौरवों के साथ रहेगा लेकिन मन पाण्डवों में ही लगा रहेगा। श्रीकृष्ण को यह बात याद आ गई। उन्होंने प्रस्ताव रखा –

“महाराज! आपके पितामह देवव्रत बड़े ही पुण्यात्मा हैं। इस कठिन स्थिति से निपटने के लिए उन्हीं से उपाय पूछा जाय। उनकी जैसी सम्मति होगी, हमलोग उसी के अनुसार युद्ध करेंगे।”

श्रीकृष्ण के इस प्रस्ताव पर सबकी सहमति थी। हम पांचो भ्राता श्रीकृष्ण के साथ पितामह के शिविर में गए। उनकी चरण वंदना करके, म्लान मुखमण्डल लिए हम उनके सामने बैठ गए। हम में से प्रत्येक के चेहरे पर उनकी दृष्टि कुछ-कुछ पल के लिए रुकी। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि हम उदास हैं। उन्होंने अत्यन्त स्नेह से युधिष्ठिर के कन्धे को अपने हाथों का स्पर्श देते हुए कहा –

“पुत्र युधिष्ठिर! तुम्हारा मुख क्यों म्लान है? इतना उदास तुम्हें पहले कभी नहीं देखा। तुम्हीं बताओ – मैं तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूं जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो? तुम्हारा विषाद दूर करने के लिए, तुम्हारे पक्ष में युद्ध करने के अतिरिक्त मैं कोई भी कठिन से कठिन कार्य कर सकता हूं। मैं तुम्हारा पितामह हूं। निस्संकोच अपने हृदय की बात मुझपर प्रकट करो। तुम्हारे हितार्थ सत्परामर्श देने के लिए मैं प्रतिबद्ध हूं।”

पितामह द्वारा बार-बार आश्वासन दिए जाने के बाद युधिष्ठिर ने मुंह खोला –

“हे कुरुश्रेष्ठ! जिस युक्ति से यह नरसंहार बंद हो जाय, वह बतलाइये। प्रभो! युद्ध में आपका वेग असहनीय है। जब आप रथ पर सवार होकर सेना का विनाश करने लग जाते हैं, तो हमारी विजय की आकांक्षा धूमिल पड़ने लग जाती है। आपने हमें विजय का आशीर्वाद दिया है लेकिन आपके रणभूमि में रहते यह असंभव है। हमारी आधी सेना नष्ट हो गई है। अब आप ही बताइये, हम आपको कैसे जीत सकते हैं, किस प्रकार अपना राज्य पा सकते हैं?”

चतुर पितामह श्रीकृष्ण की ओर देख मुस्कुराए। उनकी यह मुस्कान श्रीकृष्ण के मुस्कान की तरह ही रहस्यमय थी। कैसी विडंबना थी – हम उन्हीं से उनके वध का उपाय पूछ रहे थे। क्या हमारे पतन और दुर्योधन के पतन में कोई अन्तर रह गया था? सत्ता के लिए उसने हमारा विनाश चाहा था और सत्ता के लिए ही हम अपने परम आदरणीय पितामह का वध चाह रहे थे। ऐसा लगा जैसे हृदय में कोई शूल धंसता जा रहा हो।

पितामह ने अधिक समय न लेते हुए सधे शब्दों में उपाय बता ही दिया –

“धर्मराज! सारा जगत जानता है कि शान्तनुनन्दन गंगापुत्र देवव्रत, स्त्री पर कभी बाण नहीं चलाता है। तुम्हारी सेना में जो शिखण्डी है, वह पहले स्त्री के रूप में उत्पन्न हुआ था, बाद में पुरुष हुआ। मैं उसे स्त्री ही मानता हूं। कल अर्जुन उसे अपना कवच बनाकर मुझसे युद्ध करे। शिखण्डी जब मेरे सामने रहेगा, मैं धनुष धारण करने के पश्चात भी युद्ध नहीं करूंगा। मेरे वध के लिए यही एक छिद्र है। इस संसार में श्रीकृष्ण और अर्जुन के सिवा दूसरा कोई वीर नहीं जो मुझे वीरगति दे सके। इस अवसर का लाभ ले, अर्जुन मुझे घायल कर रथ से गिरा सकता है।”

मेरा हृदय हाहाकार कर उठा। मैंने अपना मस्तक पितामह के चरणों में रख दिया। उनके पांव भींग गए। मुझे उठाकर उन्होंने छाती से लगाया, सिर को सहलाया, कपोलों का स्पर्श किया और दृढ़ स्वर में आदेश दिया –

“पार्थ! कर्त्तव्य पालन में कोई चूक मत करना। स्वादिष्ट और हितकारी औषधि दुर्लभ होती है। कठिन परीक्षा के समय जो अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखता है, वही सफल होता है। तुम धर्म और न्याय के पक्षधर हो। तुम्हारी सफलता का अर्थ है – धर्म और न्याय की सफलता। कल का युद्ध निर्णायक होगा। तुम्हें मेरा वध करना ही होगा। विजयी भव। यशस्वी भव।”

हमने उन्हें प्रणाम किया। प्रदक्षिणा की। अश्रुपूर्ण नेत्रों के साथ अपने शिविर को लौट आए।

क्रमशः 

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