कहो कौन्तेय-६६

विपिन किशोर सिन्हा

(भीम और सात्यकि का पुरुषार्थ)

ग्यारहवें दिन का सूर्य विहंसकर उदित हुआ। उस पर सूर्यवंशियों और चन्द्रवंशियों के विनाश का कोई प्रभाव नहीं था। आज पितामह के स्थान पर गुरु द्रोण व्यूह के मुहाने पर थे। कर्ण उनकी दाईं ओर था। हमेशा की तरह मैं और भीम अपनी व्यूह-रचना के अग्रिम स्थान पर थे। शंख ध्वनि की गई। नगाड़े बज उठे, युद्ध आरंभ हो गया। आचार्य द्रोण ने अद्भुत पराक्रम दिखाया। हमारे पक्ष के सभी योद्धाओं के दांत खट्टे कर दिए उस वृद्ध महारथी ने। उनकी आंखें महाराज युधिष्ठिर को ढूंढ़ रही थीं। लेकिन उनतक पहुंचना उनके वश में नहीं था। सात्यकि, धृष्टद्युम्न, भीम, मैं नकुल और सहदेव ने उन्हें अभेद्य सुरक्षा कवच प्रदान कर रखा था। हमारे महारथी अभिमन्यु, धृष्टकेतु, द्रुपद और शिखण्डी ने अपने पराक्रम से कौरव सेना का वेग रोक दिया। मैं और भीम बारी-बारी से अग्रिम मोर्चे पर पहुंच आवश्यकतानुसार सहायता पहुंचाते थे। पूरा दिन बिना किसी विशेष दुर्घटना के बीत गया।

युद्ध का बारहवां दिन। युद्ध के उद्घोष के पूर्व ही त्रिगर्त देश के पांच राजकुमार मेरे सम्मुख खड़े थे। उन्होंने मेरे वध की प्रतिज्ञा कर रखी थी। वे मुझे प्रत्यक्ष युद्ध की चुनौती दे रहे थे। मैंने उनकी चुनौती स्वीकार की। रणभेरी बज उठी। वीरवर भीम, सत्यजित, सात्यकि और अभिमन्यु को युधिष्ठिर की सुरक्षा सौंप मैं त्रिगर्तों की ओर लपका। महारथी सुशर्मा उनका नेतृत्व कर रहा था। वे संशप्तक योद्धा थे। उनका ध्येय था – मृत्यु या विजय, दोनों में से एक का निश्चित वरण।

संशप्तकों ने मुझसे एक प्रलयंकारी युद्ध किया। मुझे आधे दिन से अधिक समय तक उनसे जूझना पड़ा। अधिकांश त्रिगर्त-वीर खेत रहे। सुशर्मा का भाई वीरगति को प्राप्त हुआ। स्वयं सुशर्मा मूर्छित होकर रणभूमि छोड़ने को विवश हुआ। हम कुरुक्षेत्र के दक्षिण भाग में युद्ध कर रहे थे। अचानक उत्तर दिशा में धूल के बादल दिखाई पड़े। मुझे युधिष्ठिर की चिन्ता सताने लगी। श्रीकृष्ण ने रथ उधर ही मोड़ दिया।

प्राग्ज्योतिष पुर का राजा भगदत्त हमारी सेना को आतंकित करते हुए युद्ध कर रहा था। उसने आचार्य द्रोण को पीछे कर मोर्चा स्वयं संभाल लिया। युधिष्ठिर को घेरे में रख हमारे महारथी सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील थे। भगदत्त के सामने आ, मैंने उसे चोट पहुंचाना आरम्भ किया। कुछ ही देर में उसका धैर्य चूक गया। तिलमिलाकर उसने मुझपर वैश्णवास्त्र का संधान कर दिया। पलक झपकते श्रीकृष्ण ने मुझे अपनी ओट में ले लिया। सहजता से वैश्णवास्त्र को अपने सीने पर लेते हुए मुझे भगदत्त का शीघ्र वध करने का आदेश दिया।

भगदत्त हाथी पर सवार था। पलकों पर अतिरिक्त मांस होने के कारण बड़ी कठिनाई से उन्हें खोल पाता था। उसकी आंखें प्रायः बन्द रहती थीं। युद्ध में आंखें खुली रखने के लिए कपड़ों की पट्टी से पलकों को ललाट में बांध कर रखता था। यह रहस्य श्रीकृष्ण ने मुझे बताया। फिर क्या था? मैंने तीक्ष्ण बाण मारकर पहले उसके ललाट पर बंधी पट्टी काट दी। उसकी आंखें बंद हो गईं। वह दूसरी पट्टी बांधने का उपक्रम करता, इसके पूर्व एक घातक अर्द्ध चन्द्राकार बाण से उसकी छाती भेद दी। उसका हृदय फट गया और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

मैं शीघ्र युधिष्ठिर के पास पहुंचना चाह रहा था। मार्ग में शकुनि के दो भ्राताओं, वृषक और अचल ने व्यवधान डाला। मेरे बाणों के प्रहार से दोनों यमलोक के अतिथि बने।

युधिष्ठिर की ओर तेजी से बढ़ते द्रोणाचार्य को धृष्टद्युम्न ने रोका। दोनों में बराबरी का तुमुल युद्ध हुआ। मैं धृष्टद्युम्न के पास पहुंचकर उसकी सहायता के लिए आगे बढ़ा ही था कि सिंहनाद करते हुए कर्ण बीच में आ गया। आते ही आग्नेयास्त्र से मुझपर आक्रमण किया। मैंने वारुणास्त्र से उसे शान्त किया। दोनों ओर से प्रबल प्रहार हो रहे थे। मेरे तेजस्वी बाणों को वह शान्त कर दे रहा था और उसके बाणों को मैं। युद्ध बराबर का था। कही कर्ण मुझपर बीस न पड़ जाय, इस आशंका से भीम, धृष्टद्युम्न और सात्यकि मेरी सहायता के लिए आए तथा कर्ण के तीन भ्राता उसकी सहायता के लिए प्रस्तुत हुए। हम चारों ने एक साथ बाणों और शक्तियों से उसपर प्रहार किया। उसने अत्यन्त कुशलता से, विद्युत वेग से बाणों और शक्तियों को निष्प्रभावी किया और मुझपर बाणों की वर्षा कर आसुरी गर्जना करने लगा। उसकी गर्जना असह्य थी। मैंने सात तीक्ष्ण बाणों से उसे बींध डाला। जबतक वह संभलता, उसके पूर्व ही उसके सामने ही उसके छोटे भ्राता को शीघ्रगामी बाणों द्वारा बींधकर मैने मृत्यु की नींद सुला दी। उसके दो और भाई, शत्रुंजय और विपाट शीघ्र ही बाण-वर्षा करते हुए चढ़ आए। मैंने सीधे जाने वाले छः सायकों द्वारा शत्रुंजय का तथा एक प्राणघातक भल्ल द्वारा विपाट का वध कर दिया।

आचार्य द्रोण, दुर्योधन, कर्ण और जयद्रथ के सामने ही कर्ण के तीन भ्राताओं का वध करके मैंने कर्ण को खुली चुनौती दी थी। मेरे मार्ग में आने का यह परिणाम होना ही था।

धृष्टद्युम्न, भीम और सात्यकि उत्साह में भरकर सिंहनाद कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने उन्हें अवसर देने के लिए मेरे रथ की गति थोड़ी धीमी कर दी। अब कर्ण से लोहा लेने के लिए सात्यकि और भीम आगे आ गए। कर्ण ने दोनों पर शक्तिशाली प्रहार किए। उसके बाणों को शीघ्रता से काटकर से भीम ने दस बाण मारे और उसे शिथिल कर दिया। सात्यकि ने उसका धनुष काट चौंसठ बाणों से उसका अंग-अंग बींध डाला। कर्ण ने दूसरा धनुष उठाया। सात्यकि ने उसे भी काट डाला। उसके संभलने के पूर्व तीन बाणों से कर्ण की भुजाओं और छाती में प्रबल प्रहार किया। कर्ण सात्यकि रूपी समुद्र में डूब रहा था। उसके अंग शिथिल पड़ गए। उसे मूर्छा आ रही थी। स्थिति की गंभीरता को भांपकर द्रोणाचार्य, दुर्योधन और जयद्रथ ने सामने आकर उसे कवच प्रदान किया। सात्यकि के हाथों कर्ण बच तो गया लेकिन कौरव सेना को अपार क्षति उठानी पड़ी।

सूर्य अस्ताचल को जाने लगे। युद्ध रोक दिया गया। आज का दिन सात्यकि का था। उसके पुरुषार्थ के आगे कोई कौरव महारथी टिक नहीं पाया। हमारी सेना सात्यकि को बीच में खड़ाकर जयकार कर रही थी। मुझे भी अपार प्रसन्नता हो रही थी। मुझे विश्वास हो गया कि मेरे अतिरिक्त भी मेरे पक्ष में सात्यकि और भीम जैसे ऐसे योद्धा थे जो कर्ण को पराजित करने की क्षमता रखते थे। मेरे स्नायुतंत्रों को विराम मिला। अपने योद्धाओं के स्वर में स्वर मिलाकर मैंने भी उद्घोष किया –

“सात्यकि-भीम की जय।”

क्रमशः

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