कहो कौन्तेय-८२ (महाभारत पर आधारित उपन्यास अंश)

(दुर्योधन-वध)

विपिन किशोर सिन्हा

हम पांचों भ्राता श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे सूर्यकुण्ड के किनारे पहुंचे। भीम ने ऊंचे स्वर में दुर्योधन को ललकारा लेकिन जल में कोई हलचल नहीं हुई। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के साथ संक्षिप्त मंत्रणा की। धर्मराज ने दुर्योधन को संबोधित करते हुए ऊंचे स्वर में कहा –

“सुयोधन! समस्त क्षत्रियों तथा अपने कुल का संहार कराकर, अब अपने प्राण बचाने के लिए सरोवर में जा घुसे हो। युद्धभूमि से कायरों की भांति पलायन कर जल के अन्दर कौन सा अनुष्ठान कर रहे हो? तुम्हारा दर्प, अभिमान और शौर्य कहां चला गया? डर के मारे जल के अन्दर छिप के बैठने से तुम अपनी रक्षा नहीं कर सकते। जिस तरह तुमने भीम को विष देकर मृत्युदान देने का प्रयास किया था, अगर उसी को याद कर हम पूरे सरोवर में विष घोल दें, तो तुम्हारा क्या होगा? तुम्हारे पौरुष, अहंकार और वज्र -सी गर्जना को क्या लकवा मार गया है? यदि क्षत्रिय धर्म में तुम्हें तनिक भी विश्वास हो, तो बाहर निकलो, हमारे साथ युद्ध करो। हम लोगों को परास्त कर पृथ्वी पर राज्य करो, या हमारे हाथों मरकर सदा के लिए रणभूमि में सो जाओ।”

सरोवर के जल में हलचल हुई। दुर्योधन की ग्रीवा जल के सतह के उपर दिखाई पड़ी। उसने उधिष्ठिर को उत्तर दिया –

“किसी भी प्राणी को भय होना आश्चर्य की बात नहीं। लेकिन मैं यहां प्राणों के भय से नहीं, वरन विश्राम की इच्छा से आया हूं। वैसे भी जिनके लिए मैं राज्य चाहता हूं, वे सभी भ्राता मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। पृथ्वी के समस्त पुरुष रत्नों और क्षत्रिय पुंगवों का विनाश हो चुका है। यह भूमि विधवा स्त्री के समान श्रीहीन हो चुकी है, अतः इसके उपभोग के लिए मेरे मन में तनिक भी उत्साह शेष नहीं है। जब पितामह भीष्म शान्त हो गए, आचार्य द्रोण, मित्रवर कर्ण, प्रिय भ्राता दुशासन और मातुल शकुनि वीरगति को प्राप्त हो गए, तो अब मेरी दृष्टि मे इस युद्ध का न कोई औचित्य है और न कोई आवश्यकता। मैं मृगचर्म धारण करके आज से वन में ही जाकर रहूंगा। अब तुम जाओ और जिसका राजा मारा गया, योद्धा नष्ट हो गए हों तथा रत्न क्षीण हो चुके हों, उस हस्तिनापुर का राजा बन, राज्यश्री का आनन्द्पूर्वक उपभोग करो।”

“……लेकिन मेरी प्रतिज्ञा का क्या होगा दुष्ट? जिन जंघों को अनावृत्त कर तुमने द्रौपदी से बैठने का आग्रह किया था, उन्हें मुझे अपनी गदा से चूर-चूर करना है। तेरी मृत्यु मेरे हाथों लिखी है। नीच, नपुंसक! कायरता छोड़ जल से बाहर आ और मेरे साथ गदायुद्ध कर मृत्यु को प्राप्त कर। मैं कुछ ही पलों के युद्ध में तुझे मृत्युदान दूंगा।” भीम ने गरजते हुए युद्ध के लिए ललकारा।

“मैं अकेला हूं और तुम पांच हो। क्या एक निःशस्त्र योद्धा से पांच सशस्त्र योद्धाओं का युद्ध करना न्याय संगत होगा?” दुर्योधन ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया।

युधिष्ठिर ने छूटते ही बिना कुछ सोचे समझे उत्तर दिया – “तुम हम पांचों में किसी एक के साथ अपने मनचाहे अस्त्र को ले युद्ध कर सकते हो।”

युधिष्ठिर ने एक बार फिर सबकुछ दांव पर लगा दिया। द्यूत मानसिकता उनका स्वभाव बन चुकी थी। दुर्योधन ने कातर नेत्रों से श्रीकृष्ण के पास खड़े बलराम को देखा। वे तीर्थयात्रा से आज ही लौटे थे। उन्होंने भी जल से बाहर आ भीम की चुनौती स्वीकार करने का आग्रह किय।

दुर्योधन तैरता हुआ तट पर आया और गदायुद्ध का वेश धारण किया। अपने निन्यानबे भ्राताओं को यमलोक पहुंचाने वाले भीमसेन को देखकर, अत्यधिक क्रोध में भर, उनको ललकारते हुए कहा –

“मेरे निन्यानबे सहोदरों का वध करने वाले इस नीच पेटू पाण्डुपुत्र भीम का वक्ष विदीर्ण किए बिना मेरे भ्राताओं को तर्पण का जल प्राप्त नहीं होगा, अत्यन्त प्रिय भ्राता दुशासन की आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी। मैं, कुरु युवराज दुर्योधन, इस पेटू का निर्णायक गदायुद्ध के किए आह्वान करता हूं।”

हमारी जान में जान आई। युधिष्ठिर का यह द्यूत शकुनि के द्यूत से कहीं अधिक भयंकर था। अगर दुर्योधन ने गदा युद्ध के लिए नकुल, सहदेव, महाराज युधिष्ठिर या मुझे ही चुन लिया होता, तो क्या होता? गदायुद्ध में भीम और बलराम के अतिरिक्त उसका सामना करने की सामर्थ्य इस पृथ्वी पर किसी के पास थी क्या? दुर्योधन ने आवेश में आ झटके से निर्णय ले लिया। नियति हमलोगों का साथ दे रही थी, अन्यथा जीती बाजी हाथ से निकलने ही वाली थी।

भीमसेन ने गर्जना कर दुर्योधन को उत्तर दिया –

“जीवन भर कुटिल शकुनि की उंगलियों के संकेत पर नाचते रहने वाले दुरात्मन, द्यूत सभा में आचार्य द्रोण और पितामह भीष्म के समक्ष मेरी प्रिय पत्नी को निर्वस्त्र करने की आज्ञा देनेवाले नराधम, भरी सभा में उसे अपना अनावृत्त जंघा दिखानेवाले असभ्य, नीच! भीम तुम्हारी चुनौती स्वीकार करता है। आज इस शक्तिशाली गदा से तेरे जंघों को चूर-चूर कर तुझे यमलोक भेजूंगा, तेरा घमंड चूर्ण कर दूंगा और राज्य के लिए तेरी बढ़ी लालसा को हमेशा के लिए मिटा दूंगा।”

कुरुक्षेत्र के उस पवित्र सूर्यकुण्ड के तट पर दोनों युद्धोन्मत्त राजपुत्रों का दिल दहला देने वाला गदा-युद्ध आरंभ हुआ। श्रीकृष्ण, बलराम, सभी भ्राताओं के साथ मैं, कृपाचार्य, कृतवर्मा, धृष्टद्युम्न और अश्वत्थामा – हम सभी रोंगटे खड़े कर देनवाले उस गदा-युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी थे।

भीमसेन गदा उठाकर बड़े वेग से दुर्योधन की ओर दौड़े। दुर्योधन ने भी गर्जना करते हुए आगे बढ़कर उनका सामना किया। दोनों की प्रचण्ड गदाएं भीषण गुरु प्रहार की ध्वनि से आपस में टकराने लगीं। प्रबल प्रहारों के कारण गदाओं से चिन्गारियां छूटने लगीं। वज्रपात के समान भयंकर ध्वनि से वातावरण सिहर उठा। दोनों के सुपुष्ट विशाल शरीरों से स्वेद और रक्त की धाराएं बहने लगीं। लड़ते-लड़ते दोनों ही थक गए, फिर घड़ी भर दोनों ने विश्राम किया, पश्चात पुनः अपनी-अपनी गदा उठा एक-दूसरे से जूझ पड़े।

इतना भयंकर गदा-युद्ध मैंने जीवन में कभी नहीं देखा था। दोनों एक-दूसरे से भिड़कर बचाव का भी प्रयत्न करते थे। तरह-तरह के पैंतरे बदलना, चक्कर देना, शत्रु पर प्रहार करना, उसके प्रहार को बचाना, आगे बढ़कर पीछे हटना, वेग से शत्रु पर धावा करना, उसके प्रयत्न को निष्फल कर देना, सावधानी पूर्वक एक स्थान पर खड़ा होना, सामने आते ही शत्रु से युद्ध छेड़ना, प्रहार के लिए चारों ओर घूमना, शत्रु को घूमने से रोकना, नीचे से कूदकर शत्रु का वार बचाना, तिरछी गति से उछलकर प्रहार से बचना, पास जाकर और दूर हटकर शत्रु के ऊपर प्रहार करना – बहुत सी क्रियाएं दिखाते हुए, दोनों वीर लड़ रहे थे लेकिन परिणाम सामने नहीं आ रहा था। भीमसेन के सामने दुर्योधन का इतनी देर तक टिकना घोर आश्चर्य की बात थी। भीम भी हैरान थे। परेशान होकर माथे पर उभरे स्वेद कणों को पोंछते हुए उन्होंने श्रीकृष्ण की ओर देखा –

श्रीकृष्ण ने अपनी सुपुष्ट सांवली जंघा से पीताम्बर हटाया और अनावृत्त जंघे पर सांकेतिक मुष्टि-प्रहार किया। भीम के मुखमण्डल पर चिन्ता की रेखाओं का स्थान स्मित की रेखाओं ने ले लिया। उन्हें विजय का सूत्र प्राप्त हो गया। “जय श्रीकृष्ण” की सिंह गर्जना के साथ महाबली भीमसेन ने दांत पीसते हुए पैंतरा बदलकर दुर्योधन की जंघा पर शक्तिशली गदा का प्रचण्ड प्रहार किया। दुर्योधन के पास संभलने का कोई अवसर ही नहीं था। उसकी दाईं जंघा चूर-चूर हो चुकी थी। अत्यधिक वेदना से चिल्लाता हुआ वह धरती पर धड़ाम से गिर पड़ा। क्षण भर भी विलंब किए बिना वैसा हि एक वज्र प्रहार भीमसे ने दुर्योधन की बाईं जंघा पर भी किया। रक्त का फव्वारा फूट पड़ा। उसकी बाईं जंघा भी चूर-चूर हो गई। दर्प और अहंकार का पुतला दुर्योधन औंधा पड़ा हुआ पृथ्वी को चूम रहा था।

क्रमशः 

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