कहो कौन्तेय-६५

विपिन किशोर सिन्हा

(भीष्म पर्व का अन्त)

महासंग्राम का दसवां दिन। मार्गशीर्ष माह के कृष्णपक्ष की एकादशी तिथि। पूर्व दिशा से चलता हुआ पवन शरीर में सिहरन भर देता था। भगवान भास्कर पूरब के क्षितिज पर सावधानी से खड़े हो गए। गुनगुनी धूप प्रिय लग रही थी लेकिन मन कांप रहा था – नियति ने पता नहीं कैसे-कैसे दायित्व मुझे सौंप रखे थे। बचपन में पितामह के अतिरिक्त किसी की गोद मुझे सुहाती नहीं थी। खेलते समय जब वे दिखाई पड़ जाते, मैं उछलकर उनकी गोद में बैठ जाता। उनके धवल वस्त्र मैले हो जाते लेकिन वे कुछ नहीं कहते – सीने से चिपका मेरे ललाट को चूम लेते। मैं अपने किसी भाई को उनकी गोद में बैठने नहीं देता। उनपर मेरा एकाधिकार था। मैं उन्हें ‘पिता’ के संबोधन से पुकारता था। मेरे कपोलों पर हल्की चपत लगाकर हंसते हुए वे कहते, “पगले, मैं तुम्हारा पिता नहीं, पितामह हूं।” वे कभी-कभी ही हंसते थे, लेकिन जब हंसते थे, शुभ्र धवल घनी दाढ़ी और उज्ज्वल दंतपंक्ति के कारण आभास होता था जैसे हिमालय का ऊंचा शिखर सूर्य किरणों में झिलमिला रहा है।

जिस गंगापुत्र ने मेरे लिए अपने स्नेह, प्रेम और ममता की गंगा अविरल बहाई, उसी के वध का दायित्व मुझे सौंपा गया था। युद्ध में जाते समय, जीवन में पहली बार अपने नेत्रों के कोनों में एकत्रित जलकणों को मैंने उत्तरीय से पोंछा।

भेरी, मृदंग, नगाड़े और शंखध्वनि से दसवें दिन के युद्ध का उद्घोष किया गया। हमारी व्यूह रचना में अग्रिम स्थान शिखण्डी को प्रदान किया गया। मैं और भीम उसके रथचक्रों की रक्षा में तत्पर थे। अन्य महारथी हमारे पीछे द्वितीय-तृतीय पंक्ति में थे। कौरव सेना पितामह भीष्म को आगे कर बढ़ी। अचार्य द्रोण और अश्वत्थामा उनके रथचक्रों की सुरक्षा में तैनात थे।

आज पितामह प्राणों का मोह छोड़ युद्ध में उतरे थे। उनके वेग को सहन करना किसी के वश में नहीं था। वे दावानल की तरह हमारी सेना को भस्म कर रहे थे। शिखण्डी उनपर प्रहार कर रहा था लेकिन वे अविचलित थे। उसके बाणों का उत्तर वे अपनी हंसी से देते थे। मैं शिखण्डी को प्रोत्साहित कर रहा था लेकिन काम बन नहीं रहा था। हमारी सेना तहस-नहस हो रही थी। कोई विकल्प न देख मुझे आगे आना ही पड़ा। सिंहनाद के साथ मैंने शत्रुओं का संहार आरंभ किया। कौरवों के सभी महारथी पीछे हटने के लिए वाध्य हो गए। श्रीकृष्ण बड़ी चतुराई से मेरे नन्दिघोष रथ को कभी आगे करते तो कभी शिखण्डी के ठीक पीछे ला खड़ा करते। अचानक पितामह की बाईं ओर रथ में सवार दुशासन दिखाई पड़ा। द्रौपदी चीरहरण की स्मृति एक बार पुनः सजीव हो उठी। मैंने तीखे बाणों से उसका वक्षस्थल बींध डाला। वह पीड़ा से कराहते हुए पितामह के पीछे छिप गया।

पितामह अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन कर रहे थे। शिखण्डी के बाण उनके कवच का स्पर्श कर गिर जाते थे। दिन का उत्तरार्ध आरंभ हो चुका था। आज का दिन व्यर्थ न चला जाय अतः श्रीकृष्ण के निर्देश पर शिखण्डी की ओट लेते हुए मैं पितामह से भिड़ गया। भीम, धृष्टद्युम्न, सात्यकि, अभिमन्यु आदि को कौरव पक्ष के अन्य महारथियों से लोह लेने के लिए छोड़ दिया।

पितामह मेरी ओर देखकर मुस्कुराए। उन्होंने अपने धनुष पर जैसे बाण चढ़ाया, मैंने प्रत्यंचा काट दी। एक, दो, तीन – वे धनुष उठाते, मैं काटता गया। क्रोध से उनका मुखमण्डल आरक्त हो उठा। दोनों हथेलियों से पर्वतों को विदीर्ण करने वाली एक बड़ी शक्ति उन्होंने मेरे रथ पर प्रक्षेपित की। शान्त भाव से मैंने पांच बाणों की सहायता से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। शिखण्डी इस अवसर का लाभ उठाकर उनपर निरन्तर बाण-वर्षा कर रहा था।

पितामह ने धनुष उठाने के कई प्रयत्न किए। मैं धनुष काटता गया। उनका धनुष ही मेरा लक्ष्य था। उनके हाथ में धनुष होने पर देवराज इन्द्र भी उनको जीतने का साहस नहीं कर सकते थे। मैंने अत्यन्त चपलता से उनकी छाती में पच्चीस बाण मारे और सौ बाणों से उनके मर्मस्थलों को बींध डाला। पितामह समझ गए कि मैं उन्हें धनुष धारण करने नहीं दूंगा। उन्होंने पुनः एक घातक शक्ति से मुझपर प्रहार किया। मेरे बाणों ने मार्ग में ही उसके तीन टुकड़े कर दिए। हाथ में ढाल और तलवार ले रथ से उतरने लगे। वे उतर पाते, इसके पूर्व ही मैंने तीखे बाण मारकर उनकी ढाल और तलवार के सैकड़ों टुकड़े कर डाले। पैने बाणों से उनका रोम-रोम बींध डाला। उनके पूरे शरीर में दो अंगुल का भी स्थान नहीं बचा था, जहां बाण न लगा हो। सबके देखते-देखते कुरुकुल का सूरज बाणों से छलनी होकर कुरुक्षेत्र की रक्तस्नात भूमि पर गिर पड़ा।

दोनों सेनाओं में हाहाकार मच गया। भगवान भास्कर ने हमारी ओर से मुंह मोड़ लिया। युद्ध स्थगित कर दिया गया। हमारी ओर से विजय की दुन्दुभि बजनी आरंभ हुई थी कि हाथ के इशारे से मैंने रोक दिया। मेरे हृदय पर कितना बड़ा वज्रपात हुआ था, इसका आभास सिर्फ मुझे था। पाण्डव पक्ष तो हर्ष से फूला न समा रहा था।

पितामह के शरीर में बाण शरीर के आर-पार बिंधे हुए थे। धरती से उनके शरीर का स्पर्श नहीं हुआ था। ऐसा लग रहा था कि वे शर-शैया पर शयन कर रहे हों। उस समय सूर्य दक्षिणायन में था। पितामह ने मृत्यु स्वीकार नहीं की। सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश के उपरान्त ही उन्होंने प्राण त्यागने का निर्णय लिया। देह-त्याग के लिए शर-शैया पर ही उन्हें छप्पन दिनों तक प्रतीक्षा करनी थी।

क्षण भर में ही पितामह के पतन का समाचार दोनों सेनाओं में विद्युत-वेग से फैल गया। जो जहां था, वहीं ठिठक गया। खड्ग लिए सैकड़ों हाथ, घूमती हुई गदाएं, धनुष पर चढ़े तीर, शवों को कुचलते रथचक्र, शत्रुओं के विनाश का चिन्तन करते हुए मस्तिष्क, सब थमके रह गए। समाचार विस्मयकारी तो था लेकिन सत्य था। अन्तिम दर्शन के लिए दोनों पक्षों के प्रमुख योद्धा पितामह की ओर बढ़ चले।

हम सभी उनके निकट खड़े थे – उन्हें घेरकर। दुर्योधन युधिष्ठिर के पास खड़ा था, दुशासन भीम के पास, विकर्ण मेरे पास और शकुनि श्रीकृष्ण के पास। तेरह वर्षों के बाद पहली बार हम इतने आस-पास खड़े थे। श्र्द्धा से भरी सबकी आंखें जलवृष्टि कर रही थीं।

शरशैया पर लेटे पितामह का सिर नीचे की ओर झूल रहा था। सबको एकसाथ देखने का उनका प्रयास सफल नहीं हो रहा था। पीड़ा भी असह्य थी। बाणों से रिसते गाढ़े और चमकदार लहू से पृष्ठतल की धरती लाल हो रही थी। उनके कांपते होठों ने कुछ कहा। घुटने के बल बैठ मैंने अपना कान उनके होठों से सटा दिया। वे फुसफुसाए –

“वत्स अर्जुन! यह लटका हुआ सिर मुझे कष्ट दे रहा है, इसे आधार दो।”

दुर्योधन ने भी यह वाक्य सुना। उसको लगा कि वे कुछ गोपनीय बात मुझे बताना चाह रहे थे। उसके हृदय का कलुष ज्यों का त्यों था। उसने भी अपने कान मेरे साथ पितामह के मुंह से सटा दिए थे।

राजसी तकिया लाने का उसने तत्क्षण आदेश दिया। मैं चुपचाप बैठा रहा। मेरे गहरे अपराध बोध ने मेरे अंग-अंग को शिथिल कर दिया था।

पितामह को राजसी तकिए की आवश्यकता नहीं थी। दुर्योधन को इशारे से रोका, बोले – “धनंजय! कुछ करते क्यों नहीं? मुझे वीरोचित तकिया चाहिए।”

आंसू पोंछते हुए मैंने अपना गाण्डीव उठया, तीन बाणों को अभिमंत्रित कर पृथ्वी में प्रहार किया। लगने के बाद वे सीधे हो गए। आधार पाकर पितामह का मस्तक ऊंचा हो गया।

मैं उनका अपराधी, नतशिर उनके सामने खड़ा था। उन्होंने मेरी ओर शान्ति से देखा। एक बार पलकें मूंदीं। मेरी धड़कनें बंद हो गईं। पलकें फिर खुलीं। मैंने राहत की सांस ली। प्राण में प्राण आए। कांपते स्वर में वे फिर बोले –

“महाबाहो! तुम्हारे बाणों से मेरा शरीर जल रहा है। मुंह सूखा जाता है। मुझे जल दो।”

मैंने अपना गाण्डीव फिर उठाया और नन्दिघोष पर जा बैठा। सब आश्चर्यचकित थे। रथ द्वारा ही मैंने पितामह की पांच बार परिक्रमा की। एक दमकता हुआ बाण निकाला, मंत्र पढ़कर पार्जन्य अस्त्र से संयोजित किया और पितामह के समीप रिक्त स्थान पर पूरे वेग से प्रहार किया। पृथ्वी से अमृत के समान शीतल जल की धारा निकली।

पितामह तृप्त हुए, उनकी पीड़ा भी जाती रही।

अब वे कुछ स्वस्थ प्रतीत हो रहे थे। उनके विशाल परिवार के सभी जीवित सदस्य हाथ बांधे चारो ओर खड़े थे। उन्होंने बारी-बारी से सबको देखा। दुर्योधन को नाम से पुकारा। सामने आ मेरे पास ही वह घुटने के बल बैठ गया।

“आज्ञा पितामह,” आर्त्त स्वर में वह बोल।

“पुत्र! शोक और क्रोध का परित्याग कर मेरी बात ध्यान से सुनो। अर्जुन जैसा पराक्रमी योद्धा इस जगत में दूसरा कोई नहीं है। आग्नेय, वारुण, सौम्य, वायव्य, वैष्णव, पाशुपात, ब्राह्म, पारमेष्ठ्य, धात्र, त्वाष्ट्र और वैवस्वत इत्यादि अस्त्रों का संचालन या तो अर्जुन को ज्ञात है या श्रीकृष्ण को। तीसरा कोई भी इनका ज्ञाता नहीं है। तुमने विगत दस दिनों में इस महासंग्राम में उसकी वीरता प्रत्यक्ष देखी है। मुझ जैसे अजेय महारथी को शरशैया प्रदान करने वाला और कोई नहीं, धनुर्धारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ही है। इसके सभी कर्म अलौकिक हैं। अर्जुन को युद्ध में जीतना असंभव है। मैं मृत्यु का द्वार खटखटा रहा हूं। मरने वाले की अन्तिम इच्छा पूरी की जाती है।

तात! मेरे मरने के पूर्व ही इस महायुद्ध की समाप्ति कर दो। मैं चाहता हूं कि मेरी आहुति अन्तिम आहुति हो। पाण्डवों को उनका इद्रप्रस्थ दे दो। वे बड़े धर्मात्मा हैं। मेरी आज्ञा से युद्ध समाप्त कर तुम्हारे साथ आजीवन प्रेमपूर्वक रहेंगे।

मेरी बात मान जाओ वत्स। मुझे अपराध बोध से मुक्त हो, शान्ति के साथ प्राण त्यागने दो।”

दुर्योधन का चेहरा तमतमा गया। क्रोध और झुंझलाहट से भरकर उठ खड़ा हुआ। कुपित दृष्टि से पितामह को देखता हुआ बिना उत्तर दिए धृष्टतापूर्वक चला गया।

घायल पितामह ने फिर एक बार पलकें मूंदकर अश्रुकणों को पी लिया।

पितामह की सुरक्षा और प्रकाश की व्यवस्था कर उनकी आज्ञा ले, हमलोग अपने-अपने शिविरों में लौट आए।

श्रीकृष्ण के शिविर में ग्यारहवें दिन के युद्ध की रणनीति निश्चित करन्र के लिए हमारे पक्ष के सभी सलाहकार गंभीर मुद्रा में बैठे थे। तभी गुप्तचर ने सूचना दी कि कौरवों ने द्रोणाचर्य को अपना अगला सेनापति नियुक्त किया है। आचार्य द्रोण ने दुर्योधन को प्रसन्न करने हेतु महाराज युधिष्ठिर को जीवित पकड़कर दुर्योधन को सौंपने की प्रतिज्ञा भी की थी।

बैठक में सन्नाटा छा गया। द्रोण की प्रतिज्ञा को आसानी से नहीं लिया जा सकता था। वे ठान लेने पर कुछ भी करने में समर्थ थे। युधिष्ठिर के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएं स्पष्ट दीख रही थीं। श्रीकृष्ण की दृष्टि मेरे मुखमण्डल पर केन्द्रित थीं। सब लोग मुझसे कुछ सुनना चाहते थे।

महाराज! मेरे जीवित रहते कोई भी आपको बन्दी नहीं बना सकता। भले ही नक्षत्र सहित आकाश गिर जाए, पृथ्वी के टुकड़े-टुकड़े हो जाएं, लेकिन आचार्य द्रोण की प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो सकती। मैं आपकी रक्षा के लिए आपके आस-पास ही रहूंगा। आप स्वयं भी शूरवीर हैं। अपने मन में भय के लिए तनिक भी स्थान न रखें।” मैंने महाराज को आश्वस्त किया।

क्रमशः

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