काले धंधों की सफेदी…!!

0
146

​तारकेश कुमार ओझा kale
बचपन में सुस्वादु भोजन की लालच में ऐसे कई आयोजनों में चले जाना होता था, जहां पेट भरने के बजाय उलटे जलालत झेलनी पड़ती थी। हालांकि इसके विपरीत अनुभव भी जीवन में होते रहे।मनमाफिक मेनू की क्षीण संभावना वाले अनेक आयोजनों में यह सोच कर गया कि बस लिफाफा थमा कर निकल जाऊंगा, लेकिन वहां उम्मीद के विपरीत लजीज व्यंजन खोने को मिल जाते। जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसे अप्रत्याशित अनुभव लगातार होते रहे। जिनकी दरियादिली के हजार किस्से सुन रखे थे, समय आने पर उनसे सामना हुआ तो उनकी तंगदिली ने मेरा दिल तोड़ कर रख दिया। मसलन जिसकी तुलना दानवीर कर्ण से होती थी उसके पास किसी जरूरत के लिए गया तो कुछ देने के बजाय वह अपना ही रोना लेकर बैठ गया। ऐसे दानवीरों का दुखड़ा सुनते – सुनते कई बार मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैं सोच में पड़ जाता था कि अपनी इस बदहाली के बावजूद इसने अपनी कर्ण वाली इमेज आखिर बनाई तो कैसे। लेकिन काल – चक्र में सामान्य नजर आने वाले कई लोग मुझे ऐसे भी मिले, जिनकी सदाशयता मेरे दिल को छू गई। जिस तरह आज की पीढ़ी को भले वह निरक्षर ही क्यों न हो कॉल, मिस्ड कॉल और रिचार्ज जैसे अंग्रेजी शब्द सिखाने का श्रेय यदि मोबाइल को है तो 70 से 80 के दशक में कुछ ऐसा ही कमाल सट्टे के अवैध कारोबार ने किया था। जिसने अनपढ़ों को भी सत्ता , नहला और दहला सिखला दिया। गैरकानूनी माने जाने वाले इस कारोबार को नजदीक से देखने का अवसर मिलने की वजह से मैं जानता हूं कि इस काले धंधे में गजब की ईमानदारी बरती जाती थी। सहयोगियों को उनके हिस्से की रकम बराबर बगैर झंझट के मिलती रहती। जिसका दूसरे काम – धंधे में हमेशा अभाव बना रहता। वहीं यह धंधा करते पकड़े जाने वालों को आजाद कराने के लिए पुलिस से लेकर अदालती खर्च तक इसके संचालक पूरी ईमानदारी से उठाते थे। भले ही इसके पीछे चाहे जितनी रकम खर्च हो जाए। यही नहीं आपद – विपद में भी इससे जुड़े लोगों को आर्थिक और दूसरे तरह की मदद सहयोगियों से हमेशा मिल जाया करती थी। जबकि दूसरे क्षेत्र में अक्सर ऐसे मामलों में शिकायतें सामने आती रहती है कि हम फंस गए तो कोई मदद को सामने नहीं आया। गैरकानूनी माने जाने वाले कुछ दूसरे क्षेत्रों के सहज- सुखी और संतुष्ट लोगों को देख आश्चर्य होता कि मलाईदार समझे जाने वाली नौकरियों में भी जहां लोग शिकवे – शिकायतें करते रहते हैं, वहीं ये लोग किसी संत – साधक की तरह शांत और तृप्त कैसे नजर आते हैं। समझ बढ़ने पर संगठित अपराध का भान हुआ तो पता चला कि इस क्षेत्र के कई दबंग अपने इलाके में जनता दरबार लगाते थे और वहां पहुंच जाने वाले हर शख्स को कुर्सी पर बैठते ही शीतल पेय का बोतल मिल जाता था। जिसकी कल्पना बड़े – बड़े नेताओं से नहीं की जा सकती। अब गाजियाबाद की एक युवती के अपहरण की अजीबोगरीब कहानी ने बदमाशों की भलमनसाहत का नया क्षीतिज दुनिया के सामने रख दिया है। क्या कमाल की भलमनसाहत है और कैसा प्रोफेशनल एैटीट्य़ूच्ड। युवती को अगवा तो किया चाकू की नोक पर, लेकिन उसके साथ कोई खराब व्यवहार नहीं किया। उलटे उसके साथ बहुत बढ़िया बर्ताव किया। खाने – पीने का पूरा ख्याल रखा। यहां तक कि खाने में फल तक दिए। छोड़ने से पहले महंगी कार में घुमाते रहे औऱ रेलवे स्टेशन में सी आफ करते समय उसे जरूरत के पैसे भी दिए। क्या कमाल का पेशेवर रवैया है। जबकि भले समझे जाने वाले लोगों के मामलों में अक्सर उलटा देखा जाता है। ऐसी नौबत आने पर खुल कर कहना पड़ता है कि भैया ट्रेन में बिठा तो रहे होे, कुछ नगद नारायण भी दोगे , या नहीं । बेटिकट पकड़ा गया तो फजीहत किसकी होगी। लेकिन यहां तो बदमाश कमाल के संवेदनशील जान पड़ते हैं।

Previous articleऋषि वेलेण्टाइन को प्रणाम
Next articleजेएनयू में ये कैसी बयार ??
तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here