नाम “कन्हैया” पाकर समझा, मैं हूँ कृष्णकन्हैया ।
नहीं समझ पाया ले डूबेगा , निज जीवन-नैया ।।
” कान्हा ने जब उठा लिया था, गोवर्धन पर्वत को ।
मैं भी अब उखाड़ फेकूँगा ,इस मोदी शासन को ।।”
जैसे क्षमा किये कान्हा ने , दुष्ट वचन शिशुपाल के ।
मोदी भी हैं क्षमा कर रहे, इस देशद्रोही “कुमार” के ।।
पा सहयोग कौरवों का ये, बड़बोला बन गया है आज ।
मुँह के बल कल गिर जाएगा, कर न सकेगा कोई काज।।
अरे मूढ़ ! तू सँभल जा अब भी ,मर्यादा को अपनी जान ।
कौरव और पांडव की कर ले , अपनी बुद्धि से पहचान ।।
मातृभूमि जिसमें जन्मा तू , बना क्यों उसका भंजक आज ।
मातु-पिता और विद्यामंदिर , की भी तो कुछ रख ले लाज ।।
शकुन्तला बहादुर
बहुत सुन्दर, है आप की कविता; बहन शकुन्तला जी।
तत्काल अभिव्यक्ति की कविता,स्फुरणा अधिक,रचना कम होती है।
यह स्फुरणा की कविता है।
यह प्रमाणित करती है,आप की कविता।
धन्यवाद
कितनी शीघ्रता से आपने कन्हैया पर दूसरी कविता रच दी यह अपने आप में सराहनीय है।
बी. एन. गोयल जी की उक्ति का सत्त्यापन कर के आपने उसका प्रमाण इस कविता से, दे दिया।
मणी जी की सराहनीय टिप्पणी भी आप के व्यक्तित्व को द्योतित करती है।
सुन्दर कविता-शीघ्र अभिव्यक्ति।
धन्यवाद
असम्भवं हेम मृगस्य जन्म, तथापि रामो लुलुभाये मृगायेः …..विनाश काले विपरीत बुद्धि