कंधमाल: सांप्रदायिक धुव्रीकरण नई चुनौती

-आर.एल.फ्रांसिस

राष्‍ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष एच.टी.सगलानियॉ ने कंधमाल पीड़ितों के पुर्नवास के लिए उठाये गये प्रयासों पर संतोष व्यक्त किया है। अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष का यह दौरा चर्च संगठनों द्वारा दिल्ली में 22 से 24 अगस्त 2010 कंधमाल पीड़ितों की जनसुनवाई के बाद किया गया है। कंधमाल की आग राजधानी दिल्ली में धधक रही है। चर्च से जुड़े तकरीबन पचास गैर-सरकारी संगठनों ने ”नैशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल आन कंधमाल” के नाम पर एक जन-सुनवाई की, इस जन-सुनवाई के संयाजकों में जोन दयालॅ, कटक-भुवनेश्‍वर के बिशप रिफेल चैनथ एवं वामपंथी विचाराधरा सहमत की माला हशामी प्रमुख थी।

इस जनसुनवाई में कंधमाल जिले के पीड़ित ईसाइयों को दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ए.पी.शाह की अध्यक्षता वाली 12 सदस्यों की जूरी ने सुना जिसमें फिल्म निर्माता महेश भट्ट, राष्‍ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हर्श मंदर, सैयदा हमीद, रुथ मनोरमा मिलन कठोरी, एडमिरल विष्‍णु भागवत सहित अन्य लोग शामिल थे। वहीं दूसरी और तामझाम और मीडिया की नजरों से दूर कंधमाल से आये दर्जनों गैर-ईसाई कुई आदिवासी जंतर मंतर पर अपनी पीड़ा भी बयान कर रहे थे। हालांकि उनकी आवाज ”नैशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल आन कंधमाल” की तरह शायद ही जनता तक पहुंचे।

उड़ीसा में चर्च पर गरीब अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के धर्म परिवर्तन कराने के आरोप लगातार लगते रहे है। कुछ उन्मादी लोगों ने एक दशक पूर्व मयूरभंज जिले में विदेशी मिशनरी ग्राहम स्टेन्स व उन्के दो मसूम बच्चों को जिन्दा जला दिया था। कंधमाल में 23 अगस्त 2008 को स्वामी लक्ष्‍मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद भड़के सप्रदायिक दंगों के बाद से स्थानीय ईसाइयों एवं गैर-ईसाइयों के बीच अविश्‍वास की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। इन दगों में 40 लोगो की हत्या कर दी गई, हजारों घर और सैकड़ों पूजा स्थल जला दिये गए। हजारों लोगों को राहत शिविरों में जाना पड़ा और उन्में से कई आज भी राहत षिवरों में ही रह रहे है। कंधमाल में दंगों के षुरु होने के साथ ही राजनीति भी शुरु हो गई जो आज तक जारी है। स्वामी लक्ष्‍मणानंद की हत्या और भड़के साप्रदायिक दंगों के बाद शांति बहाली के प्रयास होने चाहिए थे जो षुरु ही नहीं किये गए। उल्टा मामले को अंतरराष्‍ट्रीय रंग दिया गया।

कंधमाल को लेकर पश्चिम जगत में दिलचस्पी तब जागी जब पोप बेनेडिक्ट सहोलवें ने भारत की इस मामले में खिचाई की और ईसाइयों के उत्पीड़न का आरोप लगाया इसके पहले पोप भारत में कुछ राज्य सरकारों द्वारा धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून लाए जाने पर वेटिकन स्थित भारतीय राजदूत को तलब करके अपनी नराजगी जाहिर कर चुके है। वही दूसरी और इतावली सरकार ने भारत के राजदूत को कंधमाल मामले में तलब किया। अमरीका स्थित अंतरराष्‍ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआइआरएफ) ने खुद जांच करने की मांग भारत सरकार से की। हालांकि भारत सरकार ने उक्त आयोग को अभी तक भारत में आने की इजाजत नहीं दी है।

भारतीय ईसाइयों का यह दुर्भाग्य रहा है कि मिशनरी ईसाइयों पर होने वाले हमलों को भी अपने लाभ में भुनाने से परहेज नहीं करते। वह वार्ता से भागते हुए अपनी गतिविधियों को यूरोपीय देशों का डर दिखाकर जारी रखते है। महत्मा गांधी तक ने धर्मातंरण की निंदा करते हुए इसे अनैतिक कहा उस समय के कई राष्‍ट्रवादी ईसाइयों ने गांधी जी के इस तर्क का समर्थन किया था क्योंकि उस समयमिशनरी गतिविधियों का मुख्य लक्ष्य लोगों को अंग्रेज समर्थक बनाना था आज भी मिशनरी अपना काम काज विदेशी धन से ही चलाते है। वे अमेरिकी और यूरोपीय ईसाई संगठनों के प्रति जवाबदेह है। इन देशों में इनकी गहरी पैठ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कंधमाल दगों की स्थिति जानने के लिए दिल्ली स्थित यूरोपीय यूनीयन का एक दल पिछले वर्ष कंधमाल का दौरा करके आया है। हालांकि इसके पूर्व केन्द्र सरकार ने भी शरद पवार के नेतृत्व में तीन मंत्रियों के एक दल को कंधमाल भेजा था हां यह दूसरी बात है कि ढोल-नगाड़ों के साथ जिस तरह यूरोपीय यूनीयन के दल का स्वागत किया गया वह अवसर केन्द्रीय दल को नसीब नहीं हो पाया।

देश की स्वतंत्रा के बाद भी ईसाई मिशनरी आत्मनिर्भर नहीं हो पाये है। चर्च अधिकारी विशेष कर कैथोलिक पोप के प्रति उत्रादायी है यहां बिशप एक प्रमुख कड़ी है और यही वेटिकन द्वारा नियुक्त किया जाता है। प्रटोस्टेंट चर्च भी पूरी तरह यूरोपीय देशों पर निर्भर बने हुए है अपनी छोटी-छोटी समस्याओं पर भी वह यूरोप का मुंह ताकते है। देश के कानून, न्याय व्यवस्था के प्रति उनके मन में एक संदेह बना रहता है। जो उनमें एवं आम ईसाइयों में अलगाव पैदा करता है। हालाकि आजादी के बाद से यहां के ईसाइयों (चर्च) को जो खास सहूलियतें हासिल है, वे बहूत से ईसाइयों को यूरोप व अमेरिका में भी हासिल नहीं है। जैसे विशेष अधिकार से शिक्षण संस्थान चलाना, सरकार से अनुदान पाना आदि।

वर्तमान परिस्थितियों में स्वाल यह भी है कि ईसाइयों/चर्च को क्या करना चाहिए? ईसाई भारतीय समाज और उसकी समास्याओं से अपने को जुड़ा नहीं महसूस करते है। वे अभी भी वेटिकन एवं अन्य पश्चिमी देशों पर निर्भर है। संकट के समय वह भारतीय न्याय व्यवस्था से ज्यादा पश्चिमी देशों द्वारा सरकार पर डाले जाने वाले उचित/अनुचित प्रभाव पर ज्यादा विश्‍वास करते है। अमेरिका में भारत के राजदूत रहे मेरे एक मित्र ने बताया कि उसके कार्यकाल के दौरान उसे अमेरिका में बसे भारतीय ईसाइयों की एक सभा में बुलाया गया और वहां भारतीय नेताओं, भारतीय कानून व्यवस्था पर प्रहार करते हुए अधिक्तर ने भारत की ऐसी तस्वीर पेश की कि मानों भारत ईसाइयों के रहने लायक ही न हो। तब उसने भारत से हजारों मील दूर अमेरिका में बसे इन भारतीय ईसाइयों से कहा कृप्या आप ऐसा प्रपोगंडा मत करें देश की गलत तस्वीर विष्व समुदाय में बनाने से बचे, भारत में आपके ईसाई भाई पूरी तरह सुराक्षित है और उनकी देशभक्ति पर कोई सदेंह नहीं करता। सरकारे ईसाई अधिकारियों को अतिसंवेदनषील जुम्मेवारिया निसंकोंच देती है। कृप्या उन्हें शक के दायरे में मत लाये। मेरे दिमाग में कई दिन तक पूर्व राजदूत की यह बात कौंदती रही और मैं सोचता रहा ।

दुखद: यह है कि चर्च नेताओं ने कंधमाल के दंगों की जड़ में जाने की जरा भी जहमत नहीं उठाई उड़ीसा सरकार द्वारा दंगों की जांच के लिए गठित आयोग की अंतरिम रिर्पोट पिछले वर्ष जून में आई थी जिसमें दंगों के लिए धर्म परिवर्तन, फर्जी जाति प्रमाणपत्र एवं भूमि विवाद मूल कारण बताये गए थे। आयोग का मानना था कि आदिवासियों एवं दलितों के ईसाई बनने के बाद से परंपरागत समाज में विभाजन की खाई इतनी तीखी है कि दूर से बैठकर इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। आयोग ने सरकार को सुझाव दिया कि वह आदिवासियों की जमीन को मुक्त कराने के काम में तेजी लाए, फर्जीप्रमाणपत्र पर ध्यान दें तथा धर्म परिवर्तन के प्रति सचेत रहे। धर्म परिवर्तन केवल कंधमाल या उड़ीसा तक सीमित नहीं है यह देश के लिए एक राष्‍ट्रीय मुद्दा है। एक तरह से देखा जाए तो आयोग की रिर्पोट का राष्‍ट्रीय आयाम भी था परन्तु चर्च नेताओं ने आयोग की रिर्पोट को सिरे से ही खारिज कर दिया।

धर्मांतरण का लगातार विरोध कर रहा है।विरोध के चलते कई स्थानों पर छोटे-मोटे टकराव भी हुए है। उड़ीसा, कर्नाटका, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, झारखंड, आदि राज्यों में यह टकराव लगातार तीखा होता जा रहा है। चर्च गैर सरकारी यूरोपीय देशों में पहुच रखने वाले संगठनों के माध्यम से इसे अतंरराष्‍ट्रीय स्तर पर पहुंचाने में कामयाब हो रहा है। ताजा मामला कर्नाटक है जहां चर्च ने पूर्व न्यायाधीश संलदना की इस रिपोर्ट ”कि कर्नाटक में 500 दिनों में ईसाइयों पर 1000 हमले हुए” के अधार पर कर्नाटका की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने की मांग की है। हालाकि पूर्व न्यायाधीश सलदना की रिपोर्ट इसाई हमलों को अतंरराष्‍ट्रीय रंग देने वाले एक ईसाई संगठन की रिर्पोट से ही मेल नहीं खाती उनके मुताबिक 2009 में केवल 72 हमले हुए। हमले किसी पर भी हो उसकी निंदा करनी चाहिए और उन्हें तुरंत रोका जाना चाहिए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इतवार को चर्चो में दिया जाने वाला प्रेम का संदेश धीरे-धीरे प्रेम की जगह नफरत का रुप लेता जा रहा है। चर्च पादरियों का एक वर्ग अपने अनुयायियों में विखराव की भावना उत्पन करने में लगा हुआ है।

कंधमाल की घटनाओं से सबक लेते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है धर्म परिवर्तन पर चर्च कितनी भी सफाई दे वह लोगों के गले कम ही उतरती है। आज उतर प्रदेश के कई हिस्से धर्मांतरण के कारण अंदर ही अंदर सुलग रहे है। तराई क्षेत्र से आने वाली रिपोटों के मुताबिक विदेशी मिशनरी स्थानीय पादरियों की सहयाता से क्षेत्र में अपनी गतिविधियों को तेजी से चलाए हुए है। उतर प्रदेश में लगातार चर्चो का विस्तार किया जा रहा है और हैरानी वाली बात यह है कि जिन क्षेत्रों में ईसाई नहीं है वहां भी बड़े पैमाने पर जमीन खरीदी जा रही है और चर्च बनाए जा रहे है। मेरे एक मित्र ने बताया कि ए.बी.सी. चर्च पश्चिमी उतर प्रदेश में गरीब हिन्दुओं को विश्‍वासी/ ईसाई बना रहा है परन्तु सरकारी खाते में वह आज भी हिन्दू ही है। दिल्ली के पास गुड़गांव के धनकोट में प्रटोटेस्टेंट मिशनरियों का एक गुप्र ‘दयाधाम’ नाम से एक स्कूल एवं सैमनरी सैकड़ों एकड़ भूमि पर चला रहा है जिसमें उतर भारतीय गरीब ईसाइयों के लड़के-लड़कियों को यहां लाकर तीन साल का पादरी का कोर्स करवाया जा रहा है। डिग्री वितरण समारोह में मुझे इस वर्ष शामिल होने का अवसर मिला। जिन छात्रों को डिग्रियां दी गई उनसे कहा गया कि अब आप अपने क्षेत्रों में जाए और धर्म प्रचार- ईश्‍वर के संदेश को फैलाये। गरीब लड़के-लड़कियां अपनी जीविका के लिए धर्म परिवर्तन कराने का मार्ग अपनाते है। उतर प्रदेश में सालवेंशन आर्मी इस तरह के लड़को को सौ डालर प्रतिमाह के अनुदान पर रखती है और उन्हें बकायादा टारगेट दिया जाता है और ऐसे लोग जाने अनजाने विदेशी मिशनरियों के मोहरे बन गए है। उसकी गतिविधियों से भी तनाव बढ़ रहा है। पिछले साल पंजाब में ईसा मसीह के एक पोस्टर को लेकर दंगा भड़क उठा था। उसके पीछे अधिक्तर ऐसे ही लोग थे।

कंधमाल के दंगों में विस्थापित परिवारों का पुर्नवास बिना भेदभाव किया जाना चाहिए उन्हें उचित मुआवजा दिया जाए, दोषियों को दंडित किया जाये और इस सबके इलावा शांति बहाली के रास्ते तलाश किये जाए। कंधमाल से आने वाली खबरों के मुताबिक उतरी गुंसर वन क्षेत्र में बसे गावों में ईसाइयों और गैर ईसाइयों के बीच की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। राहत शिविरों में रहने वाले गांव वापिस जाने की बजाय वही अपने घर बना रहे है और इस कार्य में उड़ीसा सरकार और चर्च उनकी सहायता कर रहा है। एक तरह से साप्रदायिक विभाजन को पुख्ता किया जा रहा है। यह नये प्रकार का ध्रुवीकरण कंधमाल में हो रहा है जिसे षांति के लिए अपनाए गए रास्ते से ही रोका जा सकता है।

ईसाइयों को चर्च राजनीति की दड़बाई (घंटो) रेत से अपना सिर निकालना होगा और अपने ही नहीं देश और समाज के सामने जो खतरे है, उनसे दो चार होना पड़ेगा। जब तक ईसाई देश में चलने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों से अपने को नहीं जोड़ेगे और अपनी समास्याओं का हल भारतीय परिवेश में नहीं ढूढेंगे तथा उसमें उनकी सक्रिय भागीदारी नहीं होगी, तब तक उनका अस्तित्व खतरे में रहेगा। ईसाइयों को धर्म और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति एक स्पष्‍ट समझ बनाने की आवष्यकता है। आज स्थिति यह है कि चर्च ने धर्म और सामाजिक कार्य को एक दूसरे में गडमड कर दिया है और चर्च को यह सोचने की जरुरत है कि क्या कारण है कि सुदूर क्षेत्रों में सेवा कार्य करने के बाद भी लोग उन्हें संदेह की नजर से देखते है?

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