भारतीय संस्कृति का केंद्र था कराची

मुजफ्फर हुसैन

कराची का पुराना नाम देवल नगर था। वहां कभी कितने मंदिर होंगे, इसका हिसाब लगाना कठिन है, पर पाकिस्तान में शामिल हो जाने के बाद भी आज वहां हिंदुओं के अनेक मंदिर हैं। कुछ बंद कर दिए गए हैं, तो कुछ ऐसे हैं, जहां शापिंग मॉल बना दिए गए हैं। पाकिस्तान में कराची की स्थिति वही है, जो भारत में मुबई की है। इन दोनों नगरों में आज भी गुजराती सभ्यता के दर्शन होते हैं। मुंबई में कोई व्यक्ति यदि कच्छी बोलता हुआ मिल जाए, तो आश्चर्य नहीं होता, तो उधर कराची में आज भी कच्छी बोली जाती है। वहां दीपावली के अवसर पर चौपड़ा पूजन होता है। लोग पारंपरिक रूप में धोती पहने हुए नजर आते हैं। अब वहां धोती बांधना कितने लोगों को आता है, यह तो एक शोध का विषय है, लेकिन वे लोग भारत से सिली-सिलाई धोती आयात करते हैं।

कच्छ वालों को कराची की लाइट नजर आती है, तो कराची वाले कहते हैं कि वो रहा हमारा कच्छ, पर अब जमीन की दूरी से भी अधिक दिल की दूरियां हो गई हैं। आज भी इस सवाल का जवाब नहीं मिलता है कि जब पंजाब और बंगाल का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हो गया, तो फिर सिंध का क्यों नहीं हुआ? विभाजन के दिनों में सिंध के तत्कालीन मुस्लिम मुख्यमंत्री ने इसके लिए आंदोलन चलाया था कि सिंध का विभाजन भी धर्म के आधार पर होना चाहिए। तत्कालीन जोधपुर नरेश ने कहा था कि सिंध के दो जिले कराची और थरपाकर हिंदू बहुल हैं। जोधपुर रियासत अपने तीन जिले भी हिंदू सिंध को देने को तैयार है, इसलिए हिंदू सिंध यानी सिंधु देश बनना ही चाहिए। सिंध के मुख्यमंत्री की मांग पर नेहरूजी बहुत लाल-पीले हुए और कहा कि यह बकवास है।

गांधीजी के आग्रह पर नेहरूजी ने इस मामले में मौलाना अबुल कलाम आजाद के नेतृत्व में एक व्यक्ति वाला एक आयोग स्थापित कर दिया। मौलाना ने केवल एक पन्ने में अपनी रपट पेश कर दी। रपट में स्पष्ट तौर पर कहा गया कि सिंध में सिंध को विभाजित करने और हिंदू जनसंख्या के आधार पर सिंधु देश बनाने की कोई मांग नहीं उठ रही है। इस रपट के बाद तत्कालीन सिंध के उस नेक मुख्यमंत्री का मोहम्मद अली जिन्ना ने काम तमाम करा दिया। अंतत: कराची पाकिस्तान का भाग बन गया और पाकिस्तान की प्रथम राजधानी के रूप में इस नगर का चयन कर लिया गया। विभाजन के बाद पश्चिमी भारत के मुसलमान हिजरत करके कराची पहुंचे। वहां उन्हें मुहाजिर की संज्ञा मिली। कराची के आसपास के क्षेत्रों में जो मूल आबादी थी, उसके लोगों को इनके आगमन से अपनी अर्थव्यवस्था को खतरा होने का भय लगा। अतरू मुहाजिर और सिंधियों के बीच संघर्ष शुरू हुआ। मुहाजिरों की संख्या बढ़ी, तो राजनीतिक समीकरण भी बिगड़े। अपना वर्चस्व जमाने के लिए भारत से गए लोगों ने अपनी अलग पार्टी भी बना ली। अलताफ हुसैन के नेतृत्व में कौमी मुहाजिर मूवमेंट मुहाजिरों में लोकप्रिय हो गया।

बाद में जब अफगानिस्तान के शरणार्थी कराची पहुंचे, तो पठान और सिंधियों में संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस प्रकार कराची पर कब्जा करने के लिए सिंधियों, पठानों और मुहाजिरों में रक्तरंजित झड़पों का सिलसिला काफी पुराना है। आज कराची में कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब वहां कोई दंगा नहीं होता। अपहरण एक धंधा बन गया है। अफीम और चरस की तस्करी से लेकर वहां मानव तस्करी तक अब कोई ढंकी-छिपी बात नहीं है। आए दिन होने वाले दंगों में मां-बाप मर जाते हैं, तो बच्चे अनाथ हो जाते हैं। इस विषय पर दैनिक नवाए वक्त ने हाल ही में एक रपट प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था, ‘कराची दुनिया का सबसे बड़ा अनाथालय।’ उसी दिन दैनिक डान का शीर्षक था, ‘कराची जल रहा है, 24 घंटों में 34 मरे।’ कराची में अब तक 800 लोग मौत के घाट उतारे जा चुके हैं। डेली टाइम्स में ‘कराची में उत्पात’ शीर्षक से लेख लिखकर वरिष्ठ पत्रकार अनवर सईद ने कराची की वर्तमान स्थिति की समीक्षा की है, जो दिल को दहला देती है।

वह लिखते हैं कि भारत-पाक विभाजन के समय पाक प्रधानमंत्री लियाकत अली और नेहरूजी इस बात पर सहमत थे कि जो भारतीय मुसलमान पाकिस्तान जाना चाहते हैं, वे बाघा-अटारी बॉर्डर के रास्ते वहां जा सकते हैं। चूंकि भारत से आने वाले मुसलमानों की तादाद बहुत अधिक थी, इसलिए कराची स्थित दो सरकारी अफसर एटी नकवी और हाशिम रजा ने प्रधानमंत्री से मुस्लिम अप्रवासियों के लिए सिंध में एक और एंट्री पाइंट खोलने की ताकीद की। तब उर्दू भाषी हजारों मुसलमान पाकिस्तान आए। उनमें अधिकांश लोगों ने कराची में डेरा डाला। उस समय कराची की आबादी में भारतीय मुसलमानों का प्रतिशत सबसे अधिक हो गया था। इस समय कराची की आबादी दो करोड़ के आसपास है। वहां प्रतिदिन करीब 10 खरब रुपयों का कारोबार होता है, पर तब, जब वहां अमन हो। पिछले 20 वर्षो में वहां शायद ही किसी दिन पूरी तरह शांति रही हो। हर दिन भड़कने वाली हिंसा में हजारों लोगों की जान जाती है।

लगता है कि इन हत्याओं में जातीय और भाषाई पूर्वाग्रहों का योगदान है। इस शहर के बाहरी क्षेत्रों में सिंधी, पंजाबी, पश्तो और बलूची बोलने वाले लोग भी रहते हैं। इनके बीच भारी मनमुटाव और अविश्वास है। अलग-अलग जातीय और भाषाई गुटों में अब माफिया गुट बन गए हैं। वे रोजगार और कारोबार पर अपने लोगों का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए हिंसा फैलाते हैं। दैनिक नवाए वक्त ने अपने संपादकीय पेज पर एक बड़ा आलेख प्रकाशित किया है, जिसके लेखक हैं, मोहम्मद अहमद तराजी। लेख का शीर्षक है, ‘एक भीड़-सी लगी है, कफन की दुकान पर।’ लेखक का कहना है कि कराची में कोई भी आदमी राह चलते गोली का निशाना बन सकता है।

लिखा है, वलीका अस्पताल साइट का वह दृश्य दिल दहला देने वाला था। गुल अपनी इकलौती बेटी लाइबा की लाश गोद में उठाए निरंतर आंसू बहा रहा था। जब रक्त में सनी उस लाश को कोई अन्य व्यक्ति हाथों में उठाना चाहता, तो वह हाथ झटक देता था। आतंकियों की अंधी गोली ने विवाह के सात साल बाद मिन्नतों और मुरादों से पैदा होने वाली नन्हीं-मुन्नी लाइबा को हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया था। मियां गुल कस्बा कालोनी कराची में पहाड़ी पर बने एक मकान में रहा करता था। सारा मोहल्ला रो रहा था, पर यह कोई नई बात नहीं थी। कराची की किस्मत में तो सिर्फ अपनों की मौत देखना लिखा है। आतंकियों की गोली से कोई युवा, तो कोई नव विवाहिता, तो परिवार को पालने वाला कोई बाप रोज ही मरता है। पुलिस कभी आती है, तो कभी नहीं। मजदूरों की बस्ती में जब कोई काम पर निकलता है, तो इस बात की गारंटी नहीं होती कि वह वापस लौटेगा ही। अहमद तराजी के इस लेख का सार यह है कि कराची लगातार सुलग रहा है और हम भारतीयों को ब्रिटेन में हो रहे दंगों के कारण यह नहीं भूलना चाहिए कि आजकल कराची में भी दंगे हो रहे हैं।

(लेखक प्रसिद्ध स्तंभकार है)

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