कार्तिक माह: स्वर्ग-प्राप्ति की आसान राह

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राजेश कश्यप

कार्तिक का महीना व्रतों, त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए बेहद पावन होता है। कार्तिक महीने की प्रतिपदा से लेकर कार्तिक महीने की पूर्णमासी तक पूरे महीने धार्मिक अनुष्ठान चलते रहते हैं। देव उठनी एकादशी, गोवद्र्धन पूजा, दीपावली, भैयादूज, करवाचौथ, अहोई जैसे त्योहार इसी कार्तिक महीने में ही आते हैं। पौराणिक दृष्टि से कार्तिक बदी पूर्णमासी को तो वर्ष का सबसे पवित्र दिन माना जाता है। इसीलिए इस पावन दिवस पर कई तरह के धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न किए जाते हैं।

कार्तिक के पूरे माह चलने वाले स्नान का तो धार्मिक दृष्टि से बड़ा ही महत्व रहा है। पूरे महीने चलने वाले इस पवित्र स्नान को ‘कार्तिक-स्नान’ पूर्णमासी से लेकर उतरते कार्तिक की पूर्णमासी तक अर्थात् दीपावली से पन्द्रह दिन पहले से लेकर, दीपावली के पन्द्रह दिन बाद तक ‘कार्तिक-स्नान’ का विशेष महात्म्य है। जो भी व्यक्ति कार्तिक महीने में सूर्योदय से पूर्व उठकर नदी, तालाब, कुएं अथवा नलकूप के पानी में स्नान करता है और अपने इष्ट का ध्यान व उपासना करता है तो उसे अत्यन्त पुण्य, सुख, समृद्धि, आयु, एवं आरोग्य की प्राप्ति होती है।

हमारे वेद एवं पुराणों में कार्तिक-स्नान को बेहद पावन, समृद्धिदायक एवं कल्याणकारी स्नान के रूप में वर्णित किया गया है। यथा :

कार्तिक मासी ते नित्यं तुलासंस्थे दिवाकरे।

प्रात: स्नास्यंति ते मुक्ता महापातकिनोदपि च।।

अर्थात्, जो मनुष्य तुला की संक्राति रहते हुए कार्तिक मास में प्रात:काल स्नान करते हैं, वे यदि बड़े से बड़े पापी हों तो भी वे उनसे मुक्त हो जाते हैं।

धर्म शास्त्रों के अनुसार जो मनुष्य कार्तिक मास में व्रत, स्नान एवं तप करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। स्कन्द पुराण में उल्लेखित है :

मासानां कार्तिक: श्रेष्ठो देवानां मधुसूदन।

तीर्थं नारायणाख्यं हि त्रितयं दुर्लभं कलौ।।

अर्थात्, कार्तिक मास भगवान विष्णु एवं तीर्थ के समान ही श्रेष्ठ और दुर्लभ है।

पुराणों में कार्तिक मास की महिमा का उल्लेख इस प्रकार मिलता है :

न कार्तिकसमो मासो न कृतेन समं युगम्।

न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थं गंगा समम्।।

अर्थात, कार्तिक के समान दूसरा कोई मास नहीं, सतयुग के समान कोई युग नहीं, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है।

इस प्रकार पौराणिक दृष्टि से भी कार्तिक स्नान बड़ा ही कल्याणकारी माना गया है। यदि कार्तिक-स्नान को धार्मिक व पौराणिक दृष्टि के साथ-साथ प्राकृतिक दृष्टि से भी देखा जाए तो भी यह स्नान अति लाभकारी सिद्ध होता है। क्योंकि कार्तिक मास में प्रकृति एक नए रूप-रंग एवं सुगन्ध से युक्त होता है। यह वह समय होता है, जब ठण्ड धीरे-धीरे बढ़ रही होती है और शीत ऋतु में प्रवेश कर रही होती है। सुबह खेतों में घास व फसलों पर ओस की बूंदों के रूप में प्रकृति के अनुपम मोती आ टिकते हैं। सुबह-सवेरे इन मोतियों को निहारने व इन पर नंगे पाँव चलने से ने केवल नेत्र-ज्योति तेज होती है, बल्कि शारीरिक और मानसिक शक्ति भी सशक्त होती है। रात में चन्द्रमा द्वारा चांदनी के रूप में होने वाली उदात अमृतवर्षा तो अनूठी एवं अनुपम होती ही है।

वैसे भी जो व्यक्ति नित्य सूर्योदय से पूर्व उठकर बाहर घूमने व स्नान करने जाता है, वह अन्य व्यक्तियों की तुलना में कहीं अधिक स्वस्थ, प्रसन्नचित, विवेकशील, कर्मठ एवं बुद्धिमान होता है। लेकिन, कार्तिक-स्नान अन्य महीनों की तुलना में सर्वाधिक लाभदायक एवं कल्याणकारी माना गया है। अगर इस माह में तीर्थों में स्नान कर लिया जाए तो उसका पुण्य तो अपार कहा जाएगा। पौराणिक दृष्टि से कार्तिक मास में प्रात:काल उठकर तीर्थ-स्थान करने वाला महान् पुण्यात्मा होता है।

पौराणिक दृष्टि से मुख्यत: चार प्रकार के पवित्र स्नान माने गए हैं। पहला, ‘वायव्य स्नान’, जोकि ‘गो-रज’ में किया जाता है। दूसरा, ‘वारूण-स्नान’, जोकि समुद्र, नदी, सरोवर आदि मे किया जाता है। तीसरा, ‘दिव्य-स्नान’, जोकि वर्षा के जल से किया जाता है। चौथा, ‘ब्रह्म-स्नान’, जोकि कूप (कूंए) आदि मे मंत्रोच्चारण करते हुए किया जाता है। पुराणों में इन चारों स्नानों में ‘वारूण-स्नान’ को सर्वोत्तम माना गया है।

पुराणों मे कार्तिक-स्नान के साथ-साथ ‘कार्तिक-व्रत’ को भी सर्वोत्तम व्रतों में गिना गया है। पद्म पुराण में भगवान श्रीकृष्ण अपनी रानी सत्यभामा को कार्तिक-व्रत की महिमा का बखान करते हुए बतलाते हैं कि अवन्तीपुर में रहने वाला धनेश्वर नाम का भ्रष्ट आचरण वाला एक ब्राह्मण था। एक बार वह स्थान-स्थान पर भटकता हुआ महिष्मती नगर मे आ गया। वहां उसने नर्मदा नदी के तट पर अनेक नगरों से आए कार्तिक-व्रतियों को देखा। वह वहां प्रतिदिन स्नान करते, पुराण पढ़ते तथा हरि का गुणगान करते ब्राह्मणों को देखता। एक दिन कृष्ण सर्प द्वारा उसे डसे जाने से उस धने’वर ब्राह्मण की मृत्यु हो गई। कार्तिक-व्रतियों ने मृत ब्राह्मण को देखकर दयाद्र्रता से उसके मुख पर तुलसी दलों वाला जल छिड़का।

यमलोक में जाने पर उसका कोई पुण्य कर्म न देखकर चित्रगुप्त के निवेदन पर यमराज ने उसे अनंत काल तक नरकवास का दण्ड दिया। यमदूत ज्यों ही उसे अग्नि संतप्त कुम्भीपाक मे लाए, त्यों ही उन्होंने आश्चर्य से देखा कि वहां का वातावरण सौम्य और शीतल हो गया है। दूतों के इस कौतूक को सुनकर यमराज विस्मित हो ही रहा था कि नारद जी वहां पहुंचे और यमराज से बोले कि धनेश्वर ब्राह्मण द्वारा पुण्य कर्म कार्तिक-व्रती महात्माओं के किए गए दर्शनों का ही यह पुण्य-प्रसाद है कि उसकी उपस्थिति मात्र से ही नरक एकदम स्वर्ग में परिवर्तित हो गया है। वस्तुत: कार्तिक-व्रतियों के दर्शन और उनके साथ भाषण से धनेश्वर ब्राह्मण के सारे पाप नष्ट हो गए हैं। इधर यमराज ने अपने दूतों से कहकर धनेश्वर ब्राह्मण को नरक से निकलवाकर स्वर्गलोक में भेज दिया।

यह सारा आख्यान अपनी पत्नी सत्यभामा को सुनाने के बाद भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि देवी ! कार्तिक का प्रभाव ही ऐसा है। कार्तिक मास में किया गया स्वल्प शुभ कर्म भी वृहत फल देने वाला होता है। वस्तुत: कार्तिक मास में हरिपूजन से स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है, बशर्ते कि कार्तिक-स्नान और कार्तिक-व्रत पूरे विधि-विधान एवं पूरी श्रद्धा व विश्वास के साथ किया जाए।

 

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