कसाब की फांसी और सरकार की नीतियां

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राकेश कुमार आर्य

भारत की एकता और अखण्डता को मिटाने के लिए तथा यहां की आंतरिक शांति में विघ्न डालने की नीयत से 26 नवंबर 2008 को पड़ोसी देश पाकिस्तान ने भारत की आर्थिक राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित मुंबई पर आतंकी हमला कराया था। इस हमले में पाकिस्तानी आतंकी मोहम्मद अजमल कसाब और कुछ अन्य सहयोगियों का हाथ था। कसाब को तब जिंदा पकड़ लिया गया था। भारत की अस्मिता से खेलने वाले उसके खूनी हाथों में उस समय हथियार थे। दिल में घृणा का अम्बार था, और उसकी एक ही इच्छा थी कि भारत को किस प्रकार खत्म किया जा सकता है। स्पष्ट है कि ऐसी नीयत से किया गया वह हमला भारत के विरूद्घ युद्घ छेडऩे की स्थिति को ही बयां कर रहा था। आतंकी कसाब को हमारे सुरक्षाबलों ने पकड़ा और पकड़कर कानून के हवाले कर दिया। अब उसी कसाई को सुप्रीम कोर्ट ने 29 अगस्त को उसके लिए फांसी को ही अंतिम विकल्प और वास्तविक न्याय बताया है। पूरे देश ने माननीय न्यायालय के इस निर्णय का स्वागत किया है-

मुझे मिला है सुकूने दिल, तेरे फैसले से ऐ मालिक,

मेरी इंतजार की घडिय़ों को, तूने कितनी समझदारी से समेटा है।

सारे विश्व में भारत की न्यायपालिका की निष्पक्षता की धाक है। इस निर्णय को देने में चाहे भले ही कुछ देर हुई है लेकिन कानून के शासन में इतनी देर होना कोई बड़ी बात नही है। अपने आपको निर्दोष सिद्घ करने के लिए कसाब को अवसर मिलना ही चाहिए था।

न्यायालय के इस निर्णय पर अब देखना ये है कि भारत की सरकार किस प्रकार अमल करती है। भारत के लोगों को शिकायत भारत की न्यायपालिका से नही है अपितु भारत की कार्यपालिका से है। भारत सरकार की ढिलाई का ही परिणाम होता है कि यहां आतंकी घटनाएं बार-बार होती हैं। घटनाओं में संलिप्त अपराधियों को सजा देना तो न्यायालय का काम है, लेकिन घटनाओं को रोकना सरकार का काम है। पर यहां सरकार की कार्यप्रणाली को देखकर ऐसा लगता है कि वह घटनाओं का इंतजार करती है कि घटनाएं हों और घटनाओं में संलिप्त लोगों को न्यायालयों के हवाले कर दिया जाए। बुराई लेना न्यायालयों का काम है, बुराई को होने देना सरकार का काम है और बुराई को झेलना जनता का काम है। सम्राट अशोक से लेकर गांधीजी की अहिंसा तक से हमने संभवत: यही सीखा है। निश्चय ही यह प्रवृत्ति हमारा राष्ट्र धर्म नही हो सकती। सरकार यदि पोटा जैसे कानून का निर्माण करे, तथा सुरक्षाबलों को कुछ विशेषाधिकार प्रदान करे तो स्थिति में परिवर्तन आ सकता है। सुरक्षाबलों को विशेषाधिकार देने का अर्थ मानवाधिकारों का उल्लंघन कराने की छूट देना कदापि नही है, जैसा कि माना जाता है, अपितु यह छूट तो मानवाधिकारों की सुरक्षार्थ आवश्यक है। आतंकी लोग नित्यप्रति कितने लोगों के मानवाधिकारों का सौदा करते हैं, और उससे कितने लोग जिंदा लाश बनकर चलते फिरते हैं? सुरक्षा बलों को दिये जाने वाले विशेषाधिकार उन असहाय और निरीह प्राणियों की रक्षार्थ आवश्यक है। सम्राट अशोक और महात्मा गांधी की करूणा भी असहाय और निरीह लोगों की सुरक्षार्थ हमारा साथ देने को तैयार है। इन दोनों महामानवों का चरित्र राष्ट्र धर्म के समिष्टवादी स्वरूप से निर्मित है और यह समष्टिवाद ही भारत के राष्ट्रधर्म का प्राणतत्व है। परंतु इस समष्टिïवादी रश्ज्त्रधर्म की व्याख्या को इतना लचीला बना देना कि उससे आतंकी लाभ उठायें और शांतिप्रिय लोग उससे भयभीत होने लगें तो यह स्थिति आत्मप्रवंचना ही कही जाएगी। शासन की नीतियों में कठोरता और लचीलेपन का सम्मिश्रण होना चाहिए। केवल कठोरता का प्रदर्शन शासन को तानाशाह बना देता है और जनता उससे दूर हो जाती है जबकि केवल लचीलापन शासन को दुर्बल बना देता है।

कठोर शासन में भले लोग आतंकित रहते हैं, तो लचीले शासन में भले लोग चोर बनने लगते हैं। क्योंकि तब वह भ्रष्टïाचारियों को भ्रष्टïाचार के बल पर मौज करते देखते हैं और सोचते हैं कि जब इनका कुछ नही बिगड़ रहा तो हमारा क्या बिगड़ेगा? इसलिए क्यों न भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाकर मोतियों की खोज की जाए। भारत में वर्तमान में जो स्थिति बनी हुई है उसके लिए भारत के दुर्बल शासन की लचीली नीतियां ही उत्तरदायी हैं।

कसाब जैसे लोग भारत में प्रवेश करें और यहां निरपराध लोगों की हत्याएं करें-उन हत्याओं को आतंकी को फांसी की सजा पूरा नही कर सकती। पड़ोसी देशों को आतंकित करना भी हमारा उद्देश्य नही हो सकता। परंतु पड़ोसी देशों को हमारी एकता और अखण्डता से खेलने का अधिकार भी नही हो सकता और यदि वह ऐसा कर रहे हैं और बार-बार कर रहे हैं तो हमें अपनी विदेश नीति की समीक्षा करनी ही होगी। कसाब का हिसाब तो न्यायालय ने कर दिया है लेकिन फिर कोई कसाब ना हो ये देखना तो सरकार का ही काम है। सरकार कसाब को जल्दी फांसी दे। देश अब ये ही चाहता है।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

2 COMMENTS

  1. भाई महेंद्र जी अगली सर्कार १९९४ में नहीं बल्कि २०१४ या उससे पहले ही आ सकती है.जब इस सर्कार ने अभी तक अफज़ल को ही उसके आखिरी अंजाम तक नहीं पंहुचाया तो कसब का नंबर तो काफी बाद में है. कौन जाने तब तक कितने और लाईन में आ जायेंगे.और अगली सर्कार भी यदि मिली जुली ही रही तो वो भी समझौतावाद के चलते क्या अधिक कुछ कर पायेगी? इसके लिए आवश्यक है की अगली सर्कार मजबूत राष्ट्रवादी सर्कार हो और ज्यादा बैसाखियों पर न टिकी हो. और लोग केवल आलोचना ही न करें बल्कि वोट डालने मतदान स्थल तक भी जाएँ. या चुनाव आयोग चल मतदान केंद्र या ओनलाईन मतदान की व्यवस्था करदें. वैसे ओनलाईन मतदान में कोई खास दिक्कत नहीं है केवल वोटर कार्ड को ऐ टी एम् कार्ड की तरह और मतदान मशीन को ऐ टी एम् मशीन की तरह बनाना होगा जो तकनीकी तौर पर संभव है. इसमें फेसियल रिकोगनिशन का फीचर डाला जो सकता है.अभी भी कई कम्यूटरों में इस प्रकार का फीचर होता है.केवल इच्छा शक्ति की आवश्यकता है.और यदि चुनावों में अधिकाधिक लोग मतदान करें इसके लिए कुछ सौ या हज़ार करोड़ रुपये व्यय भी हों तो भी वर्तमान चुनावी डिस्टोर्शन को समाप्त करने के लिए ये उचित ही होगा.मई संभवतः विषयांतर कर बैठा लेकिन जिस बीमारी के कारन अफजल और कसब जैसों को उचित और सामयिक सजा नहीं मिल पति है वो हमारे चुनावी गणित से भी जुदा होने के कारण इस बारे में लिखा.

  2. यह सब अब अगली सरकार के विचारार्थ छोड़ देने चाहिए.१९१४ तक इस सरकार के कार्यकाल में यह संभव नहीं हो सकता,क्योंकि समय कम है.अभी तो कई अपील बाकी हैं, और उन पर फैसला सरकार के भविष्य का फैसला कर सकता है, इस लिए अभी संभव नहीं होगा.आप आज कसाब की फांसी के लिए जोर डाल रहें हैं,कल अफजल के लिए कहेंगे,इससे बहुत गड़बड़ी होगी,जिस तरह सरकार ने अलपसंख्यक कार्ड खेला है और खेल रही है उसके परिणाम की एक झलक अभी गत दिनों असं हिंसा के खिलाफ मुंबई में हुए प्रदर्शन से मिल ही गयी है,.
    सरकार अपने वोट बैंक से सत्ता में काबिज होती है,और कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकती,अब इसके लिए भी मौका आते ही सरकारी मंत्री कई उलटे सीधे तर्क देकर अपना भोपूं बजाना शुरू कर देंगे,वैसे भी ऐसी नौबत आने ही नहीं दी जाएगी ,माफ़ी की अपील पर सरकार फाइल पर ऐसी कुंडली मर के बैठेगी की कसाब कई दिन और सरकारी मेहमान बन बिरयानी चिकन और मनपसंद मॉल खायेगा,जेड प्लस की सुरक्षा में दिन रत गुजारेगा,
    वैसे भी अब तक सरकार के लिए देश की इच्छा कोई खास महत्व रखती हो, और वह इसकी परवाह करती हो , कहीं नहीं झलकता,अतएव ऐसी ज्यादा उम्मीद मत पालिए,फालतू में दिल टूटता है.

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