कश्मीरी पत्थरबाजों को सेनाध्यक्ष का संदेश

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प्रमोद भार्गव

कश्मीर में एक बार फिर पत्थरबाज युवाओं ने सेना एवं अन्य सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाना शुरू कर दिए हैं। इस तरह की राष्ट्रविरोधी हरकतों से खफा होकर थल सेना अध्यक्ष विपिन रावत ने कड़ा संदेश देते हुए कहा है, जो लोग पाकिस्तान और आईएस के झंडे लहराने के साथ सेना की कार्यवाही में बाधा पैदा करते है,उन युवकों से कड़ाई से निपटा जाएगा। इस बयान को सुनकर कथित अलगाव एवं मानवाधिकारवादी कह सकते हैं कि सेना को सब्र खोने की जरूरत नहीं है। किंतु इस बयान के परिप्रेक्ष्य में एयान देने की जरूरत है कि सेनाध्यक्ष को इन कठोर शब्दों को कहने के लिए कश्मीर में आतंकियों ने बाकायदा पृष्ठभूमि रच दी है। घाटी में पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकियों के हाथों शाहीद होने वाले सैनिकों की संख्या पिछले 5 साल में सबसे ज्यादा 2016 में रही है। इस साल भी शुरूआती शांति रहने के बाद दहशतगर्दों ने अपनी गतिविधियां तेज कर दी है। नतीजतन लगातार सैनिक हताहत हो रहे है। यही नहीं, एक मुठभेड़ के दौरान तो यह भी देखने में आया कि आतंकवादियों से लड़ रहे सैनिकों की लड़ाई में स्थानीय नागरिकों ने बाधाएं उत्पन्न की थी। कमोबेश ऐसे ही हालातों के वशीभूत होकर जनरल रावत ने दो टूक बयान दिया है।

सेना प्रमुख ने आगे कहा है कि जिन लोगों ने कश्मीर में हथियार उठाए हैं, वे भले ही स्थानीय नौजवान हो, लेकिन यदि वे पाकिस्तान अथवा आईएस के झंडे उठाकर आतंकियों के मददगार बनते है तो हम उन्हें राष्ट्रविरोधी तत्व ही मानेंगे। उनके खिलाफ कड़ी कानूनी कार्यवाही होगी। सेनाध्यक्ष की यह आक्रमता इसलिए उचित है, दरअसल वादी में सुरक्षाकर्मी इसलिए ज्यादा हताहत हो रहे हैं, क्योंकि स्थानीय लोग सुरक्षा अभियानों में बाधा डालने लगे है। इस नई स्थिति से कड़ाई से ही निपटा जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि देश में सेनाध्यक्ष की राय पर राष्ट्रिय सहमति बने। पूरा देश सेना की हरेक कार्यवाही का समर्थन करे। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने तो सेनाध्यक्ष के बयान पर सहमति जता दी है, लेकिन क्या देश का विपक्ष और कथित मानवाधिकार संगठन इस राय में अपनी राय मिलाएंगे ? अलबत्ता सेना पर सवाल खड़े करेंगे ? यह विरोधाभास देश में ही नहीं जम्मु-कश्मीर राज्य में भी देखने में आता रहा है। दरअसल घाटी में गठबंधन सरकार का नेतृत्व उस पीडीपी के हाथ में है, जिस पर अलगाववादियों से मिले होने के आरोप लगते रहे हैं। यहां गोरतलब यह भी है कि जब सैनिक हताहत होते है तब तो कहीं से कोई आवाज नहीं उठती, लेकिन जब कोई संदिग्ध कश्मीरी नागरिक सेना के हाथों मारा जाता है तो घाटी के नागरिक दहशतगर्द के साथ खड़े दिखाई देते हैं। आतंकी बुरहान वानी की मौत के समय यही तस्वीर पेश आई थी।

दरअसल कश्मीरी युवाओं के हाथ में जो पत्थर हैं, वे पाक के नापाक मंसूबे का विस्तार हैं। पाक की अवाम में यह मंसूबा पल रहा है कि ‘हंस के लिया पाकिस्तान, लड़के लेंगे हिंदुस्तान।‘ इस मकसदपूर्ती के लिए मुस्लिम कोम के उन गरीब और लाचार युवाओं को इस्लाम के बहाने आतंकवादी बनाने का काम किया, जो अपने परिवार की आर्थिक बदहाली दूर करने के लिए आर्थिक सुरक्षा चाहते थे।  पाक सेना के भेश में यही आतंकी अंतरराष्ट्रिय नियंत्रण रेखा को पार कर भारत-पाक सीमा पर छद्म युद्ध लड़ रहे हैं। कारगिल युद्ध में भी इन छद्म बहरूपियों की मुख्य भूमिका थी। इस सच्चाई से पर्दा खुद पाक के पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एवं पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के सेवानिवृत्त अधिकारी शाहिद अजीज ने ‘द नेशनल डेली अखबार‘ में उठाते हुए कहा था कि कारगिल की तरह हमने कोई सबक नहीं लिया है। हकीकत यह है कि हमारे गलत और जिद्दी कामों की कीमत हमारे बच्चे अपने खून से चुका रहे हैं। कमोबेश आतंकवादी और अलगाववादियों की शह के चलते यही हश्र कश्मीर के युवा भोग रहे हैं। 10 लाख के खंुखार इनामी बुरहान वानी की मौत को शहीद बताने के सिलसिले में जो प्रदर्शन हुए थे, उनमें करीब 100 युवा मारे गए थे।

इन भटके युवाओं को राह पर लाने के नजरिए से केंद्र सरकार और भाजपा चिंतित है। भाजपा के महासचिव और जम्मू-कश्मीर के प्रभारी राम माधव ने कश्मीर में उल्लेखनीय काम किया है। उन्होंने भटके युवाओं में मानसिक बदलाव की दृष्टि से पटनीटाॅप में युवा विचारकों का एक सम्मेलन आयोजित भी किया था। इसे सरकारी कार्यक्रमों से इतर एक अनौपचारिक वैचारिक कोशिश माना गया था। बावजूद सबसे बड़ा संकट सीमा पार से अलगाववादियों को मिल रहा बेखौफ प्रोत्साहन है। जो काम पहले दबे-छुपे होता था, वह खुले तौर पर डंके की चोट होने लगा है। कश्मीर में बीते सप्ताह अलगाववादियों के हुए एक सम्मेलन में आतंकवादियों ने न केवल मंच साझा किया, बल्कि भाषण भी दिया। यही वे लोग हैं, जो युवाओं को सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी के लिए उकसाते हैं। जब तक सीमा पार से संचालित गतिविधियों का हस्तक्षेप कश्मीर की धरती पर जारी रहेगा, तब तक मुश्किल है कि कोई कारगर बात बन पाए ? इस दृष्टि से सेनाध्यक्ष का कश्मीर के भटके युवाओं और नागरिकों को संदेश जायज है।

दरअसल राजनीतिक प्रक्रिया और वैचारिक गोष्ठियों में यह हकीकत भी सामने लाने की जरूरत है कि जो अलगाववादी अलगाव का नेतृत्व कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर के बीबी-बच्चे कश्मीर की सरजमीं पर रहते ही नहीं हैं। इनके दिल्ली में घर हैं और इनके बच्चे देश के नामी स्कूलों में या तो पढ़ रहे हैं, या फिर विदेशी बहुराष्ट्रिय कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं। इस लिहाज से सवाल उठता है कि जब उनका कथित संघर्ष कश्मीर की भलाई के लिए हैं तो फिर वे इस लड़ाई से अपने बीबी-बच्चों को क्यों दूर रखे हुए हैं ? यह सवाल हाथ में पत्थर लेने पाले युवा अलगाववादियों से पुछ सकते हैं ? घाटी में संचार सुविधाओं पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। अलगाववाद से जुड़ी जो सोशल साइटें हैं, युवाओं में भटकाव पैदा कर रही हैं।

दरअसल अटलबिहारी वाजपेयी कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत जैसे मानवतावादी हितों के संदर्भ में कश्मीर का सामाधान चाहते थे। लेकिन पाकिस्तान के दखल के चलते परिणाम शून्य रहा। इसके उलट आगरा से जब परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान पहुंचे तो कारगिल में युद्ध की भूमिका रच दी। अटलजी की नीति दो टूक और स्पष्ट नहीं थी। डाॅ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी इसी ढुलमुल नीति को अमल में लाने की कोशिश होती रही है। वास्तव में जरूरत तो यह है कि कश्मीर के आतंकी फन को कुचलने और कश्मीर में शांति बहाली के लिए नरेंद्र मोदी पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव से प्रेरणा लें। वे राव ही थे, जिन्होंने कश्मीर और पंजाब में बढ़ते आतंक की नब्ज को टटोला और अंतरराष्ट्रिय ताकतो की परवाह किए बिना पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह और सेना को उग्रवाद से मुकाबले के लिए लगा दिया। इस नाते जनरल विपिन रावत जो कह रहे हैं, उस पर गौर करने की जरूरत है। पाकिस्तान को बीच में लाने की इसलिए भी जरूरत नहीं हैं, क्योंकि वहां के आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदिन के सरगना सैयद सलाहउद्दीन ने कश्मीर के मुद्दे के परिप्रेक्ष्य में भारत को परमाणु यूद्ध की धमकी दी है। बुरहान वानी भी इसी संगठन से जुड़ा था। घाटी में जो हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठन है, उनकी भी अब कश्मीरी युवाओं पर मजबूत पकड़ नहीं रही है। गोया, यदि सख्ती बरती जाती है तो घाटी में पंजाब की तरह आतंकवाद हमेशा के लिए खत्म हो सकता है।

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