,काटजू साहब मीडिया लक्षण है रोग तो व्यवस्था है!

 इक़बाल हिंदुस्तानी

सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मार्कंडे काटजू बेशक एक ईमानदार और काबिल जज रहे हैं। उनकी फैसला लिखते समय की जानी वाली टिप्पणियां काफी चर्चित हुआ करती थीं। अब वे अपने पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं लिहाज़ा उनको फैसला लिखने और तरह तरह की टिप्पणियां लिखकर पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचने की सुविधा उपलब्ध नहीं रह गयी है। हो सकता है कि वे इसीलिये प्रैस काउंसिल ऑफ इंडिया का प्रेसीडेंट बनने के बाद कुछ ऐसी बातें कह रहें हों जिनसे मीडिया में उनकी बातों पर जोरदार चर्चा हो। इसमें किसी हद तक वे कामयाब होते भी नज़र आ रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि काटजू साहब मीडिया के बारे में जो कुछ फर्मा रहे हैं वो काफी हद तक सही भी है। वे यह मांग भी कर चुके हैं कि प्रैस काउंसिल को मीडिया काउंसिल का दर्जा देकर इसके अधीन प्रिंट मीडिया के साथ साथ इलैक्ट्रानिक चैनलों को भी लाया जाये। इसमें भी उनकी वही जज वाली पॉवर दिखाने की एक कसक और ललक झलक रही है। वे यह भी शिकायत कर रहे हैं कि काउंसिल को ऑटोनामस ही नहीं पहले से अधिक पॉवरपफुल बनाया जाये जिससे वह कोर्ट की तरह दोषी पत्रकारों और उनके संस्थान मालिकों को तलब कर दंडित कर सके। यहां फिर वही उनकी पुरानी इंसाफ करने और अपराधियों को जेल भेजकर सज़ा देने की हनक सामने आ रही है। यह अपने आप में शायद पहला रोचक मामला होगा जिसमें जो शख़्स जिन लोगों की काउंसिल का सदर बना है उन लोगों के खिलाफ पूर्वाग्रह रखकर मोर्चा खोल रहा है। अगर उनको यह सब ही करना था तो सरकार से पहले अपने अनुकूल प्रैस काउंसिल बनाने की मांग करते और तब काउंसिल का चार्ज लेते और अगर सरकार इसके लिये तैयार नहीं होती तो कोर्ट जाते या उसके खिलाफ अन्ना की तरह संघर्ष का रास्ता अपनाते । यह क्या बात हुयी कि आप सरकार और मीडिया दोनों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं और उसी पद पर विराजमान हैं जिसके खिलाफ हैं। दरअसल काटजू साहब जानते हैं कि वे जो कुछ कह रहे हैं वह नई बात नहीं है। नई बात तो यह है कि उनको पता था कि वे जिस न्यायपालिका का हिस्सा रहेे हैं वहां भी भ्रष्टाचार मौजूद है लेकिन उच्च पद पर आसीन रहते हुए भी वे केवल टिप्पणी ही करते रहे उसे सुधारने के लिये न तो कोई ठोस काम कर सके और न ही सरकार से ऐसा करा सके। हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि मीडिया में भ्रष्टाचार या गड़बड़ी नहीं है बल्कि वे उससे भी ज्यादा हैं जितना काटजू साहब कह रहे हैं लेकिन यह आधा सच है क्योंकि भ्रष्टाचार एक कॉमन प्रॉब्लम है। यह हमारे सिस्टम से लेकर हमारी नस नस में खून के साथ दौड़ रहा है। केवल मीडिया को उसके लिये फटकारना रोग का इलाज न करके केवल एक लक्षण का उपचार करना होगा, जो संभव नहीं है। हकीकत तो यह है कि जब से पंूजीवाद को हमारी सरकार ने अपनाया है तब से मीडिया में यह सर चढ़कर और अधिक बोल रहा है। काटजू साहब का यह कहना भी ठीक नहीं है कि मीडिया वाले राजनीति, साहित्य, अर्थजगत और विदेश नीति पर जो कुछ लिखते हैं उसका उनको कुछ ज्ञान नहीं होता। इन विषयों की केवल डिग्री ले लेने से ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता और फिर एक सच्चाई और है जिसको काटजू साहब नज़रअंदाज़ कर रहे हैं कि एकमात्र मीडिया ही तो है जो हर विषय के विशेषज्ञ को अपने विचार प्रकट करने का बराबर मौका देता है। क्या यह दावे से कहा जा सकता है कि किसी पत्रकार को अपनी पत्रकारिता के अलावा किसी और विषय का ज्ञान हो ही नहीं सकता। इसी को पूर्वाग्रह कहा जाता है। हम यह नहीं चाहते कि मीडिया का भ्रष्टाचार और गैर ज़िम्मेदारी क्षमायोग्य है लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि केवल मीडिया को जवाबदेह बनाना कहां का इंसाफ और औचित्य है? पूरी व्यवस्था को उत्तरदायी बनाने की ज़रूरत है जिसमें मीडिया अपने आप शामिल होगा। क्या आज भी मीडिया की गलत और जानबूझकर छवि ख़राब करने की हरकत पर उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही नहीं की जाती है। रहा सवाल इस बात का कि लोग अकसर मीडिया के हाथों ब्लैकमेल हो जाते हैं और हालत इतनी ख़राब हो चुकी है कि मीडिया के स्वामी अपने निचले स्तर के पत्रकारों को भी बजाये भुगतान करने के उल्टे पैसा लेकर नियुक्त कर रहे हैं तो कसूर उस व्यवस्था का है जिसमें यह सब संभव हो रहा है। ज़रूरत पूरी व्यवस्था को बदलने और जवाबदेह बनाने की है। काटजू साहब को शायद याद हो कि उनकी न्यायपालिका ने जजों की नियुक्ति का अधिकार ज़बरदस्ती सरकार से ले लिया था जिसपर सरकार में बैठे हुए नाकारा और भ्रष्ट नेता न्यायपालिका से टकराव के डर से चुप्पी साधने पर मजबूर हो गये। जजों की सम्पत्ति घोषित कराने के लिये नागरिकों को लंबा संघर्ष करना पड़ा। सूचना के अधिकार को रोकने के लिये पूर्व चीफ जस्टिस बालकृष्णन जी ने पूरा जोर लगाया। आज उनके खिलाफ तरह तरह के आरोप लग रहे हैं लेकिन वे मानव अधिकार आयोग के प्रेसीडेंट के पद पर जमे हुए हैं। आज भी आरटीआई में कोई सवाल पूछने के लिये पूरे देश में किसी भी विभाग और मंत्रालय में मात्र दस रूपये लगते हैं लेकिन न्यायपालिका में यह शुल्क 500 रुपये रखने का गरीब देश में क्या औचित्य है? जजों के भ्रष्टाचार को रोकने के लिये न्यायपालिका की तरफ से काटजू साहब ने कोई सार्थक पहल, मांग या अभियान चलाया हो याद नहीं आता। अन्ना की इस मांग पर भी न्यायपालिका का कोई खास रेस्पांेस नहीं आया कि जनलोकपाल में न्यायपालिका को भी शामिल किया जाये। खुद काटजू साहब का भी ऐसा कोई बयान हमारी नज़रों से नहीं गुज़रा। सही बात तो यह है कि आज मीडिया इतनी कमियांे और बुराइयों के बावजूद जितने घोटाले और भ्रष्टाचार के मामले खोल रहा है उससे जनता का विश्वास उसपर संविधान के तीन कथित स्तंभों विधयिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका से कहीं अधिक जमा हुआ है। इसके अधिकांश सदस्य निचले स्तर पर अपने शोषण और अन्याय के बावजूद दिनरात चौबीस घंटे अपनी ज़िम्मेदारी निभाकर आम गरीब और बेसहार आदमी का सहारा बने हुए हैं। मीडिया का सदुपयोग अधिक हो रहा है। यह बहुत पुरानी बात नहीं है कि कई चर्चित केसों में जब मीडिया ने आवाज़ बुलंद की तब ही वे केस दोबारा खुले और कोर्ट ने सरकार के ठीक से पैरवी करने पर उन मामलों में न्याय किया। इसका श्रेय तो कम से कम मीडिया को ही दिया जाना चाहिये। आज अन्ना का आंदोलन अगर सरकार को जनलोकपाल बिल पास करने को मजबूर करता नज़र आ रहा है तो इसके पीछे भी मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है। कई मंत्री और सत्ताधारी दल के नेता तो इस बात को स्वीकार भी कर चुके हैं कि वे अन्ना के आंदोलन से नहीं बल्कि मीडिया के इसकी कवरेज से तंग आ चुके हैं। सरकार पहले से चाहती है कि किसी न किसी बहाने से मीडिया पर सेंसर लगाया जाये लेकिन वह खुद भ्रष्ट और नाकाम होने से जनता का भरोसा खो चुकी है। आज यह भरोसा सबसे अधिक मीडिया को हासिल है। काटजू साहब जाने अंजाने सरकार और उस वर्ग की इच्छा पूरी करते नज़र आ रहे हैं जिसकी कोशिश हमेशा यह रही है कि किसी न किसी तरह सेंसर के बहाने मीडिया को काबू किया जाये जिससे वह उनकी करतूतों को जनता के सामने उजागर न कर सके। इसके लिये सरकार तो विज्ञापन से लेकर सत्ता का खासा दुरूपयोग भी समय समय पर करती रही है लेकिन उसकी यह हिम्मत नहीं हुयी कि वह कानून बनाकर उसके पर कतर सके लेकिन काटजू साहब जिस तरह से माहौल बना रहे हैं उससे ज़रूर सरकार को मीडिया को सबक सिखाने या मंुह बदं रखने को मजबूर करने का हथियार मिल सकता है। काटजू साहब बेशक मीडिया को पाक साफ बनाने के लिये चाहे प्रैस काउंसिल को शक्तिशाली बनाने की बात करें और चाहे सरकार से कानून बनाकर उसपर नियंत्रण रखने की व्यवस्था करा दें लेकिन उससे पहले पूरी व्यवस्था और सरकार को जिम्मेदार बनाने के लिये अन्ना हज़ारे की तरह कोई ठोस मुहिम चलायें तो उनकी नीयत पर शक भी नहीं होगा और मीडिया भी खुशी खुशी न सही अनचाहे इसके लिये जनता की तरफ से मजबूर किया जा सकेगा क्योंकि पत्रकार भी इसी समाज का हिस्सा हैं और जब सब बदलेंगे तो वे भी अवश्य बदलेंगे यह विश्वास रखना होगा।

अमन बेच देंगे, चमन बेच देंगे,

वतन के मसीहा गगन बेच देंगे ।

क़लम के सिपाही अगर सो गये तो,

वतन के मसीहा वतन बेचदेंगे।।

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

4 COMMENTS

  1. इन्कलाब जी सही लिखा है आपने…….. लेकिन मीडिया का दायत्व ये भी नहीं है कि आप सामने वाली की बात कों तोड़ मरोड़ कर पेश करे. सामने वाला जो बोल रहा है उसी कों लिखे न की उसमे मिर्चा मसाला लगाकर पेश करे मैंने दो दिन पहले काटजू का एक लेख पड़ा शीर्षक तथा “इलेक्ट्रोनिक मीडिया दूध कि धुली नहीं है ” उसमे उन्होंने साफ लिखा है कि न जाने मीडिया मेरे पीछे क्यों पड़ी है पता नहीं मेरी बातो कों क्यों उल्टा सीधा पेश किया जा रहा है

  2. काटजू साहब की नीयत पर हम कोई दोष नहीं लगा सकते है क्यों की उनकी छवि एक इमानदार व्यक्ति की रही है और इसी के तहत उनके बयां भी देखे जाने चाहिए इसे सेंसरशिप भी नहीं समझना चाहिए इसे अत्मसयम के रूप में देखा जाना चाहिए क्यों कि इसके न रहने पर भ्रस्त व्यवस्था इसका उपयोग कर लेगी और मीडिया बदनाम हो जाएगी
    प्रिंट मीडिया में आज जिस प्रकार का स्वेच्छा चार चला हुआ है कि आया बताया जाये .पत्र पत्रिकाए किसी न किसी उद्योग समूह से जुडी रहती है और स्वाभाविक है कि वे पक्षपात के शिकार हो जाये फिर क्या इन्हें इसी तरह से छोड़ दिया जाय नहीं एसा नहीं कर सकते इसी के लिए प्रेस कौनसुल है आज जब प्रिंट मीडिया के अलावा सुचना के इसके अतिरिक्त भी तंत्र है तो उन्हें भी प्रेस काउन्सिल के अत्न्तर गत लाने में क्या हर्ज है
    बिपिन कुमार सिन्हा

  3. इक़बाल जी हो सकता है आपका अनुमान सच हो किन्तु आज मीडिया में ९९% लोग बिकाऊ है .

    मीडिया से जुड़े हर अदने कर्मचारी की प्रथम सोच होती है निष्पक्षता वह निष्पक्षता का अनुसरण भी करना चाहता है
    किन्तु प्रिंट मीडिया वा इलेक्ट्रानिक मीडिया के अलमबरदार सबसे पहले ब्रेनवाश करते है हर पत्रकार संपादक का निष्पक्षता नाम के कीड़े से प्रेस या मीडिया हॉउस नहीं चलते .

    इक़बाल जी जब मेरे जैसे नासमझ को ये बात समझ आती है तो आप तो उसी पेशे से जुड़े है

    आपको पता होगा एक संपादक पर कितना दबाव होता है अपने आकाओं का .

    इस दबाव को कम करने के लिए मीडिया का नियमन होना जरूरी है .अन्यथा आपके मेरे बच्चे न्यूज़ के नाम पर बिग बोस के भोडे कारनामे देखने को बाध्य है .

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