कट्टरता का हल और अधिक कट्टरता ?

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 सन 2014 में भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सरकार बनने के बाद यूनिफार्म सिविल कोड, तीन तलाक और मदरसों पर नियंत्रण जैसे मुद्दे विवादित रूप से विमर्श में बने हुए हैं। धार्मिक आक्रामकता में वृद्धि हुई है। भीड़ के धार्मिक और जातीय व्यवहार की उग्रता ने मासूमों को मृत्यु के मुख में धकेला है। उत्सवों और पर्वों को शक्ति प्रदर्शन का भयोत्पादक माध्यम बनाने का चलन बढ़ा है। चाहे हिन्दू हों या मुसलमान इन प्रवृत्तियों को दर्शाते रहे हैं। चाहे वे धार्मिक स्थल हों या गोवंश अथवा बुरका और टोपी जैसे धार्मिक-सामाजिक प्रतीक-सब के सब अब अधिक संवेदनशील और भावोद्दीपक बन गए हैं। सत्ता पक्ष का मानना है कि स्वाधीनता के बाद से ही मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के कारण जिन जरूरी प्रश्नों को हाशिए पर डाल दिया गया था उन्हें मोदी सरकार ने चर्चा के केंद्र में लाया है, इस कारण उथल पुथल तो मचेगी लेकिन इसका दीर्घकालिक परिणाम देशहित में होगा। वे इसे समाज के रोगी हिस्से की सर्जरी की भांति देखते हैं जो पीड़ादायी होते हुए भी लाभकारी है। सत्ता पक्ष यह मानता है कि धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ मुस्लिम परस्त होना नहीं है।बहुसंख्यक हिंदुओं की उग्रता और धार्मिक अस्मिता के प्रति उनका तेजी से बढ़ता प्रेम चौंकाने वाला है। यह परिवर्तन प्रगतिशील धारा के बुद्धिजीवियों द्वारा निंदित भी हुआ है और इसे एक दक्षिणपंथी,पश्चगामी तथा खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है। किन्तु इस प्रवृत्ति के उदय के पीछे निहित कारणों को समझे बिना कोई टिप्पणी ठीक नहीं है। सामाजिक संरचना का क्या धार्मिक ध्रुवीकरण प्रारम्भ हो रहा है? यह प्रश्न विवेचन और विश्लेषण की माँग करता है।
पिछले कुछ समय से Pew Research Centre (जो एक अमेरिकी थिंक टैंक है) की एक रिपोर्ट सभी संचार माध्यमों में चर्चा में रही है जिसके अनुसार यदि वर्तमान जनसंख्यात्मक रुझान जारी रहे तो वर्ष 2050 तक विश्व में इस्लाम धर्म के अनुयायी सर्वाधिक संख्या में होंगे। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक इस्लाम धर्मावलंबियों की संख्या 2.8 बिलियन अर्थात कुल जनसंख्या का 30 प्रतिशत हो जाएगी, जबकि ईसाई धर्म को मानने वालों की संख्या 2.9 बिलियन अर्थात कुल जनसंख्या का 31 प्रतिशत होगी। शायद मुस्लिम, ईसाइयों से आगे निकल जाएँ। सन 2010 में 1.6 बिलियन मुसलमान और 2.17 बिलियन ईसाई थे। इस रिपोर्ट के अनुसार मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि की दर विश्व जनसंख्या वृद्धि दर से काफी अधिक है। जबकि हिन्दू और ईसाइयों की जनसंख्या वृद्धि दर विश्व जनसंख्या वृद्धि दर के आस पास ही है। रिपोर्ट के अनुसार 2050 में मुस्लिमों की जनसंख्या में वर्तमान की तुलना में 73 प्रतिशत वृद्धि होगी जबकि हिंदुओं की जनसंख्या वर्तमान की तुलना में 34 प्रतिशत ही बढ़ेगी। उक्त रिपोर्ट यह इंगित करती है कि हिंदुओं में विवाह की आयु 26 वर्ष है जबकि मुसलमानों में यह 22 वर्ष है। हिन्दू महिलाएं प्रति महिला 2.6 शिशु की दर से जन्म देती है तो मुस्लिम महिलाएं 3.2 शिशु प्रति महिला की दर से प्रजनन करती हैं।
हालाँकि 2011 की जनगणना के आंकड़े कुछ अलग तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। हिंदुओं की दशकवार वृद्धि दर 2001 में 20.3 प्रतिशत थी जो 3.5 प्रतिशत घटकर 2011 में 16.8 प्रतिशत रह गई। मुसलमानों की दशकवार वृद्धि दर 2001 में 29.5 प्रतिशत थी जो 4.5 प्रतिशत घटकर 2011 में 24.6 प्रतिशत रह गयी। 1981 से मुसलमानों की दशकवार वृद्धि दर लगातार तेजी से गिर रही है और यह गिरावट हिंदुओं की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक है। इन आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगले दो दशकों में हिंदुओं और मुसलमानों की वृद्धि दर बराबर हो जाएगी।
जनसंख्या संबंधी Pew Research Centre की रिपोर्ट का जिक्र इसलिए कि इस्लामिक कट्टरता के खतरे को रेखांकित करता एक पूरा विमर्श इस और इस जैसी धारणाओं पर आधारित है। यह विमर्श मानता है कि मुसलमान तभी तक धर्म निरपेक्ष रहते हैं जब तक वे अल्पसंख्यक होते हैं जैसे ही वे बहुसंख्यक होते हैं वे कट्टर इस्लाम समर्थक बन जाते हैं। ओपन सोर्स इंस्टिट्यूट नई दिल्ली के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर तुफैल अहमद ने सन 2050 में भारत के सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या वाला देश बनने के खतरों को संक्षेप में दर्शाया है। उनके अनुसार – इस्लाम की प्रकृति ही ऐसी है कि दूसरे धार्मिक समुदायों के लिए असुविधा और खतरा उत्पन्न हो जाता है। लंदन की गलियों में मुसलमानों के ऐसे झुंडों को देखा जा सकता है जो हाथ में हाथ डालकर घूमने वाले गैर मुस्लिम जोड़ों से टोकाटाकी करते हैं। यूरोप में ऐसे मुस्लिम एंक्लेवस बन रहे हैं जहाँ शरीअत कानून ही चलता है। इनके निवासी लोकल पुलिस पर विश्वास नहीं करते और इनकी अपनी अदालतें होती हैं। भारत में भी पश्चिम बंगाल, बिहार,केरल और उत्तरप्रदेश जैसे मुस्लिम बहुल राज्यों में अनेक ऐसे इलाके हैं जो मुसलमानों के द्वारा (न कि हिंदुओं के द्वारा) गौरव से मिनी पाकिस्तान के नाम से पुकारे जाते हैं। ऐसे मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस भी प्रवेश नहीं कर पाती। मदरसे धार्मिक कट्टरवाद की शिक्षा के केंद्र बन चुके हैं। अरब देशों में कार्य करने वाले मुसलमानों पर इन देशों का गहरा प्रभाव पड़ा है और ये भारत में उस अरब दृष्टिकोण को आयात कर रहे हैं जो अन्य धर्मावलंबियों को ग़ुलामों का दर्जा देता है। तुफैल अहमद बताते हैं कि भारत में अनेक ऐसे मुस्लिम आंदोलन चल रहे हैं जो नारी स्वतंत्रता के खिलाफ हैं। आज से बीस वर्ष पूर्व गाँवों और शहरों में बुरका अत्यंत अल्प प्रचलित था किंतु अब यह एक पहचान चिह्न के रूप में मुस्लिम महिलाओं को धारण करना पड़ता है। ट्रिपल तलाक का समर्थन और यूनिफार्म सिविल कोड का विरोध नारियों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखने वाले कदम हैं। Pew Research Centre की जनसंख्या संबंधी भविष्यवाणियां 33 वर्ष बाद की हैं। यदि आज से 33 वर्ष पहले की दुनिया को देखा जाए तो 1979 से पहले के सालों में ईरान की इस्लामिक क्रांति के पूर्व महिलाएँ वहाँ स्कर्ट पहन सकती थीं और पुरुषों के साथ सामाजिक जीवन में हिस्सा लेती थीं किन्तु अब सर्वत्र बुरका दीखता है। अफगानिस्तान में भी सोवियत फौजों के आगमन से पूर्व महिलाएँ स्कर्ट पहनती थीं लेकिन अब उनके सामने बुरका धारण करने की अनिवार्यता है। भारतीय मुसलमानों का व्यवहार मौलवियों द्वारा निर्धारित होता है और तथाकथित मुख्यधारा के धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी इनकी व्यवस्थाओं का परोक्ष समर्थन करते हैं।
तुफैल अहमद आगे बताते हैं कि भारत में मुस्लिम आबादी के बढ़ने से स्थितियाँ और जटिल होंगी क्योंकि यहाँ इस्लाम के पुनः प्रवर्तन के प्रमुख वैश्विक आंदोलनों के मुख्यालय हैं। बरेलवी सूफी इस्लाम का मुख्यालय बरेली में है, जबकि देवबंदी वहाबी इस्लाम का मुख्यालय देवबंद में है, इसी प्रकार अहमदिया मुसलमानों का अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय कादियान पंजाब में है और तबलीगी जमात का वैश्विक मुख्यालय देश की राजधानी में है। मुस्लिम आबादी बढ़ने के साथ ये संगठन भारत की राजनीति में दबाव समूह का रोल निभा रहे हैं और प्रो मुस्लिम सेक्टेरियनिज्म को बढ़ावा दे रहे हैं। सीरिया,इराक और अफगानिस्तान के इस्लामी आतंकी पूरे विश्व में बिखर कर नए आतंकी समूह बना सकते हैं और मुस्लिम बहुल भारत इनकी नई शरण स्थली बन सकता है। इस विमर्श के अनुसार कश्मीर में सामूहिक हिंसात्मक पत्थरबाजी भी इस्लामिक उग्रता और हिंसात्मकता से कहीं न कहीं सम्बद्ध है।
कुल मिलाकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद चर्च और स्टेट में जो दूरी कायम हुई थी और जिस प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की ओर विश्व उन्मुख हुआ था, उससे उत्पन्न शांति, मुस्लिम देशों की तानाशाही पर आधारित और राज्य संरक्षित धार्मिक शासन व्यवस्था के कारण खतरे में है। इसी दृष्टिकोण का एक अन्य पहलू बलराज मधोक की पुस्तक ‘पाकिस्तान का आदि और अंत’ में दिखाई देता है, एक स्थान पर वे लिखते हैं- जफ़रउल्ला खान को रास्ते से निकालने और अहमदी मुसलमानों के बढ़ते प्रभाव को खत्म करने के लिए सुन्नी मुसलमानों ने लाहौर में 1951 में अहमदी विरोधी दंगे शुरू किए। बर्बरता क्रूरता और अत्याचार की दृष्टि से ये दंगे हिन्दू विरोधी दंगों से किसी प्रकार कम न थे।अहमदियों के घरों को लूटा और जलाया गया,उनकी स्त्रियों से बलात्कार किया गया तथा सैकड़ों अहमदियों को मौत के घाट उतारा गया। इस्लाम के नाम पर मुसलमानों का मुसलमानों पर यह अत्याचार इतिहास की दृष्टि से नया नहीं था।परंतु इसने इस्लाम के नाम पर एकता को बेनकाब कर दिया। इस्लामी एकता एक नकारात्मक एकता है। गैर मुसलमानों के विरुद्ध इस एकता को उभारा जा सकता है किंतु यदि चाबुक मारने के लिए गैर मुसलमान निकट न हो तो यह एकता कायम नहीं रह सकती। सुन्नी मुसलमान शिया मुसलमानों को भी असली मुसलमान नहीं मानते।
इस विमर्श के अनुसार इस्लाम और मुस्लिम समुदाय विश्व के लिए बड़ा खतरा है। इस दृष्टिकोण के विरोधी इसे इस्लामोफोबिया कहते हैं। किंतु यूरोप और अमेरिका सहित विश्व के अनेक भागों में इस सिद्धान्त की स्वीकार्यता बढ़ी है और इस कारण नए समीकरण भी बने हैं। भारत की विदेश नीति में भी परिवर्तन आया है और अमेरिका तथा इजराइल से बढ़ती निकटता का आधार भी यही दृष्टिकोण है। पिछले कुछ समय से हिंदुत्व वादी शक्तियाँ इस्लाम के विरोध पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं और ईसाई मिशनरियों तथा धर्मान्तरण के खिलाफ अपनी मुहिम पर एक कूटनीतिक विराम लगाए हुए हैं। संभवतः यह इस्लाम के विरुद्ध संघर्ष के लिए हिंदुत्व और ईसाइयत के अंतर्राष्ट्रीय गठजोड़ का नतीजा है।
भारत का मुसलमान गरीब और पिछड़ा है। जैसा सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि आबादी के अनुपात में सरकारी नौकरियों और प्रशासनिक पदों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नगण्य है। साक्षरता के मामले में मुसलमान काफी पीछे हैं। विकास के हर पैरामीटर पर मुसलमान निचले पायदान पर हैं। हिंदूवादी बुद्धिजीवियों का कहना है कि मुसलमान इसलिए पिछड़ा है कि उसने धार्मिक कट्टरता के महल में स्वयं को बंधक बना लिया है और अपने खिड़की दरवाजे विकास की ताज़ा हवा के लिए बंद कर लिए हैं। वे इस दमघोंटू वातावरण से मुसलमान को आजाद कराने के लिए इस महल को ध्वस्त करना चाहते हैं। जबकि प्रगतिशील ताकतें और मुस्लिम बुद्धिजीवी इसके लिए मुसलमानों के साथ किए गए भेद भाव को जिम्मेदार मानते हैं।
हालाँकि यह भी सच है कि सेक्युलरवाद को आयातित कहने वाले हिंदू वादी बुद्धिजीवियों का राष्ट्रवाद स्वयं एक आयातित विचार है। नस्ल शुद्धता पर आधारित नाजीवाद और घोषित रूप से नस्ल वादी न होने के बावजूद वैसा ही व्यवहार करने को प्रेरित करने वाले फासीवाद का भयानक अंजाम हम देख चुके हैं। सावरकर का हिंदुओं को एक नस्ल और एक राष्ट्र के रूप में प्रतिपादित करने का प्रयास न तो इतिहास की कसौटी पर खरा उतरता है न एंथ्रोपोलॉजी की। Ashley Montagu(Man’s Most Dangerous Myth: The Fallacy of Race) और Franz Boas(Race, Language and Culture) के ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण अध्ययन यह दर्शाते हैं कि रेस की अवधारणा किस तरह वैज्ञानिक दृष्टि से असंगत है और राजनीतिज्ञों ने किस प्रकार इसके आधार पर भ्रम फैलाया है। इन्होंने बताया कि ‘रेस’, जो कि जीव वैज्ञानिक श्रेणी है और जिसके निश्चित भौतिक संकेत होते हैं तथा राष्ट्रीयता,जाति, धर्म,भाषा,जीवन शैली आदि की समानता पर आधारित ‘सामाजिक समूह’ -दो बिलकुल भिन्न संकल्पनाएँ हैं। अमर्त्य सेन ने मई 1998 में दिए एन असेसमेंट ऑफ़ द् मिलेनियम शीर्षक भाषण में इस्लामिक प्रभाव के आने से पूर्व भारत में भारत में होमोजीनस प्योर प्री इस्लामिक कल्चर के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न उठाये हैं। वे बताते हैं कि प्री मुस्लिम पीरियड के महानतम राजा अशोक बौद्ध थे। वे हर्ष का भी उदाहरण देते हैं। भारत में इस्लाम के आगमन के पूर्व विश्व के सारे धर्म सशक्त प्रतिनिधित्व प्राप्त कर रहे थे। ईसाइयों की विकसित बस्तियां यहां चौथी सदी से मौजूद थीं। यहूदी भी येरुशलम के पतन के बाद से ही भारत में थे। बौद्ध और जैन तो थे ही। वे कहते हैं कि मुसलमान शासकों ने अंग्रेजों से संघर्ष किया। मुसलमान शासक अंग्रेजों के विपरीत इस देश को अपना मानते थे,उन्होंने यहाँ वैवाहिक संबंध बनाए और बहुत सारे स्थानीय लोग इस्लाम धर्म अपनाने लगे। भारतीय मुसलमान बाहर के नहीं हैं बल्कि इसी देश के हैं। हालाँकि अकबरुद्दीन ओवैसी जैसे कट्टरवादी भी यह कहते हैं कि यह मुल्क हमारा है जिसके हम शासक थे और हिंदुओं ने अंग्रेजों के साथ मिलकर हमें सत्ताच्युत किया है। और हिन्दू कट्टरवादी भी इसी आधार पर धर्मान्तरण को जायज ठहराते हैं कि हमारे मुसलमान हमारा ही खून हैं जिन्हें दबाव और छल पूर्वक मुसलमान बना लिया गया अतः इनका वापस हिन्दू बनना घर वापसी जैसा है।
यदि इस्लामिक कट्टरवाद के खतरे को स्वीकार कर लिया जाए तब भी इस प्रश्न का उत्तर तो देना ही पड़ेगा कि क्या इसका मुकाबला हिन्दू धर्म के तालिबानीकरण द्वारा किया जा सकता है? “संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम” तथा “वसुधैव कुटुम्बकम” की उदारता को समाहित करने वाले हिन्दू धर्म को क्या राष्ट्रवाद की संकीर्णताओं में बांधने का प्रयत्न उचित है? यदि देश का विभाजन एक भूल थी या देश का विभाजन एक आधा अधूरा असफल हल भी था तो क्या इस भूल को दुहरा कर असफलता को सफलता में बदला जा सकता है? क्या देश की 14.2 प्रतिशत मुस्लिम आबादी अविश्वसनीय और आतंक परस्त है? क्या मुस्लिम जन भी अपने बारे में प्रचलित हो रही धारणा को मिथ्या साबित करने के स्थान पर उसे सच सिद्ध करने की ओर अग्रसर नहीं हो रहे हैं? यदि आज मुसलमानों का कोई सबसे बड़ा शत्रु है तो वह कट्टरवाद है किंतु मुसलमान इसे आत्म रक्षा का जरिया मान रहे हैं। कट्टरवाद एक चेन रिएक्शन है- कट्टरवाद, कट्टरवाद को जन्म देता है। प्रश्न और भी हैं – क्या फ़िल्में और इनका गीत संगीत, शास्त्रीय और सुगम संगीत की राग रागिनियाँ और घराने, ग़ज़ल, नज्म की विरासत और मुशायरे-कव्वालियों की परंपरा, चित्रकला और स्थापत्य में देश को पहचान देने वाले कुछ सबसे बेहतरीन सृजन, हमारी भाषा और साहित्य के प्रेमचंद जैसे पुरोधा, रहीम-रसखान-बुल्लेशाह की संत परंपरा, हमारे खान पान के कुछ सबसे लजीज पकवान और हमारी परंपरा की कुछ सबसे रंगीन रस्में अप्रासांगिक हो गई हैं? क्या इनमें से हिन्दू और मुस्लिम तत्वों को पृथक करना संभव है? समाचार माध्यमों में किसी एक शहर के साम्प्रदायिक वैमनस्य और चंद कट्टरपंथियों का विषवमन देख-पढ़कर क्या पूरे देश के बारे में छवि बनाई जा सकती है? हम जैसे करोड़ों लोग वर्षों से अपने दैनंदिन जीवन में बिना इस बात का भान किए कि कौन क्या है, सहजता और सुगमता से जीवन जी रहे हैं क्या इस समरसता को कुछ समाचार और जहरीले भाषण खंडित कर सकते हैं? हमें सचेत रहने की आवश्यकता है। किसी को बताने की आवश्यकता नहीं होती कि उसकी संस्कृति क्या है? संस्कृति तो सहज व्यवहार है। समय की कसौटी पर खरे उतरने वाले परम्पराओं के जीवित तत्व आधुनिक विचार-व्यवहार के साथ मिल कर संस्कृति का निर्माण करते हैं। यह श्वास लेने जैसी सहज किन्तु आवश्यक प्रक्रिया है।इतिहास गवाह है कि हिंसा,कट्टरवाद, तानाशाही और नस्लवाद का अवलम्बन लेने वाले देश किस प्रकार विनष्ट होने की कगार पर पहुँच गए, निश्चित ही हम ऐसे देशों में शुमार होना नहीं चाहेंगे।

डॉ राजू पाण्डेय

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