खान-पान में शुचिता रखें,

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डॉ.दीपक आचार्य

खान-पान में शुचिता रखें,दृष्टिदोष से बचें

पुराने जमाने से हमारे जीवन में मर्यादाओं की परिधियां चली आ रही हैं। आधुनिक लोग भले ही इन्हें कुछ भी कहें मगर सच तो यह है कि ये सारी मर्यादाएँ हमारे सम्पूर्ण जीवन के लिए अभेद्य सुरक्षा कवच का काम करती हैं और जीवन में सुरक्षित एवं सुखपूर्वक पल्लवन में मददगार ही साबित होती हैं।

ज्यों-ज्यों हम इन वैज्ञानिक रहस्यों से भरी हुई परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं त्यों-त्यों हमारी समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं। ख़ासकर स्वास्थ्य को लेकर, जो कि हमारे जीवन का मूल आधार है।

आधुनिक सरोकारों को अपनाएं लेकिन इसके साथ ही हमारे मूल तत्वों का भी संरक्षण करें तभी वे हमारा रक्षण और संवर्द्धन कर सकते हैं। चकाचौंध और पाश्चात्य अंधियारों से भरे मौजूदा परिवेश में इन विषयों पर गहन चिंतन करने की जरूरत है।

हमारे यहाँ कई काम ऐसे हैं जिन्हें परायी दृष्टि से बचाकर रखते हुए किए जाने की हिदायत दी हुई है। इसमें खान-पान के मामले में एकान्त को अपनाने पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। इसके पीछे कई कारण हैं जिन्हें समझने की जरूरत है। नाश्ता हो या भोजन या फिर किसी भी प्रकार का पेय। इन्हें ग्रहण करते समय वाणी को विराम देना जरूरी है क्यों कि जिस अंग से इनका उपयोग हो रहा है उस मुंह का उपयोग बोलने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इससे वाणी में दूषित भाव नहीं आ पाते और वाणी स्पष्ट रहती है।

जो लोग खाने-पीने के समय किसी न किसी विषय पर बोलते रहते हैं उनकी वाणी का प्रभाव क्षीण हो जाता है और उच्चारण में अंतर आ जाने के साथ ही तुतलाहट बढ़ जाती है। सिर्फ चर्चाओं और विचारों के आदान-प्रदान के लिए होने वाले लंच और डीनर या टी-पार्टियों के आदी लोगों तथा उनकी संतानों में वाणी दोष देखा जा सकता है।

गर्भवती महिलाएं भी यदि खान-पान के वक्त बोलने की आदी होंगी तो उनके गर्भस्थ शिशु पर बुरे संस्कार पड़ेंगे और शिशु की वाणी में तुतलाहट बनी रहने के साथ ही यह भी हो सकता है कि उच्चारण दोष बना रहे। इसलिए मुँह का उपयोग या तो खान-पान के लिए करें या वाणी के लिए।

एक समय में एक ही काम होना चाहिए। ऐसा नहीं करने पर जिह्वा पर विराजमान सरस्वती का कोपभाजन होना पड़ सकता है। फिर यदि बुद्धि की देवी खुश नहीं रहेगी तो जीवन भर पछताना पड़ेगा क्योंकि बुद्धि अपने नियंत्रण में नहीं रहेगी और मौके-बेमौके असामयिक बातें अपने मुँह से निकलने लगेंगी जिनका नुकसान जीवन भर उठाना पड़ सकता है।

दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि खान-पान हमेशा एकान्त में करें तभी ये अपने शरीर के लिए फायदेमंद रह सकते हैं। हम जहाँ रहते हैं वहाँ असख्ंय आत्माओं का विचरण बना रहता है इसलिए खाने या पीने से पूर्व इनके निमित्त थोड़ा सा जमीन पर रख दें, इसके बाद ही ग्रहण करें। इसके अलावा जहाँ हम कुछ भी पेय या भोज्य पदार्थ लेते हैं वहाँ आस-पास ऐसे लोगों का जमावड़ा बना रहता है जिन्हें भी इन पेयों और भोजनादि की इच्छा होती है मगर पैसों के अभाव में वे ऐसा नहीं कर पाते। ऐसे लोग होटलों, ढाबों, दुकानों, रेस्टोरेंट्स, चाट-पकौड़ी, भेल-पूड़ी आदि सभी प्रकार की खाने-पीने की दुकानों के इर्द-गिर्द घूमते रहकर याचना करते रहते हैं। याचना न भी करें तो अपन को खाते-पीते देखते जरूर रहते हैं।

इनका एकटक देखना और घूर-घूर कर अपने खाने या पीने की वस्तुओं की ओर नज़र रखना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इनकी भी इच्छा है कि यह सब खाने-पीने का मजा वे भी लें मगर विवश हैं। ऐसे में उनकी भूखी दृष्टि का दोष अपने भोज्य और पेय पदार्थोंे पर पड़ता है और सूक्ष्म दृष्टि दोष से घिरी ये सामग्री जब हमारे पेट में पहुंचती है तो हमे जीभ का स्वाद जरूर दे दे या गले को तर भी कर दे लेकिन ऐसी दूषित सामग्री का हमारे पेट में जाना हमारे स्वास्थ्य, शरीर और मन-बुद्धि आदि सभी दृष्टियों से नकारात्मक प्रभाव पैदा करने वाला होता है।

इससे हमारा मस्तिष्क और शरीर भारी-भारी अनुभव होता है और विकार पैदा हो जाते हैं। ये विकार भोजन के पाचन से लेकर रस बनने तक हमारा पीछा नहीं छोड़ते और अन्ततोगत्वा हम कभी शंकाओं, कभी सेहत की आशंकाओं आदि से घिर जाते हैं। इस स्थिति में काम में मन नहीं लगता और आलस्य आता रहता है। जो लोग बाहर का खान-पान करने में मजा लेने के आदी हैं उनके जीवन में बाहरी कुदृष्टि का दोष हमेशा बना रहता है। ऐसे लोगों के जीवन में कोई न कोई समस्या हमेशा पीछे लगी रहती है।

इसलिये जितना संभव हो खाना-पीना एकान्त में करें और ऐसी जगह करें जहाँ किसी भिखारी या भूखे की निगाह नहीं पड़ती हो। बेहतर होगा ऐसी जगह खान-पान कतई न करें जहाँ आस-पास भिखारियों और भूखों का जमावड़ा बना रहता हो। इनकी कुदृष्टि का दोष मोल लेने से अच्छा है कि हम सुरक्षित स्थानों पर खान-पान करें। घर से कार्यस्थल अथवा और कहीं भी खाने-पीने की चीजें या टिफिन लाएं, ले जाएं तो थैली में रखकर ले जाएं जिससे कि भीतर की सामग्री दूषित न हो। किसी को पता नहीं लगना चाहिए कि भीतर खाने-पीने की चीजें हैं।

बड़े-बड़े आयोजनों में भी सामग्री का घट जाना या बिगड़ जाना भी होता है। ऐसा इसलिए होता है कि भीतर से पकवानों की भीनी-भीनी खुशबू बाहर हवा में तैरती रहती है लेकिन बाहर ऐसे भूखे और भिखारियों का जमावड़ा होता है जिन्हें नज़रअंदाज कर हम अन्दर माल उड़ा रहे होते हैं। यह अपरोक्ष दृष्टि दोष है जिसकी वजह से हमें भोजन का पुण्य नहीं मिल पाता और भोजन में घट-बढ़ की समस्या पैदा होती रहती है।

ऐसे मौकों पर यथासंभव उन सभी भूखों और भिखारियों को भोजन कराएं या भोजन सामग्री दे दें, जो भोजन के इंतजार में घण्टों बाहर जमा रहते हैं। उनकी आत्मा को तृप्त किए या पेट की आग बुझाये बगैर कोई सामूहिक भोजन सफल नहीं हो सकता।

ख़ासकर धार्मिक अनुष्ठानों और आयेाजनों में होने वाले महाप्रसाद या सामूहिक भोजन के समय अंदर तो भक्तों की भीड़ माल उड़ाती रहती है और बाहर भूखों और भिखारियों का जमावड़ा निराश बैठा रहता है। इस प्रकार के धार्मिक आयोजनों में पुण्य की बजाय पाप का भार लगता है और ये आयोजन कभी सफल नहीं होते बल्कि कुछ समय बाद अनिष्ट सामने आता है। जरूरी यह है कि ऐसे अवसरों पर यह प्रयास करें कि एक भी व्यक्ति या जानवर वहाँ से भूखा या निराश नहीं लौटे।

यों घर में भी रोजाना के भोजन के समय गाय-कुत्ते, कौए आदि के रोटी निकालें और आने वाले अतिथि को बिना भोजन कराए घर से लौटने नहीं दें। भारतीय संस्कृति में अतिथियज्ञ को भी बड़ा महत्त्व दिया गया है।

कई बार भोजन करते समय या कुछ पेय पीते समय थोड़ी सी सामग्री बिना किसी कारण के नीचे गिर जाती है, कभी मुँह में जाने से पहले ही कौर छूट जाता है या कभी थाली से कोई सामग्री बाहर निकल आती है। कभी खान-पान शुरू करते ही पहला टुकड़ा गिर जाता है। इन सब स्थितियों में यही मानना चाहिए कि कई अदृश्य शक्तियों की निगाह इन पर है इसलिए खाने या पीते समय कुछ भी चीज अलग गिर जाए जो उसे उठाकर वापस न लें, वहीं रहने दें। अच्छा होगा कि खाने या पीने से पूर्व थोड़ा द्रव्य बाहर निकाल लें और अपने ईष्ट मंत्र का स्मरण करते हुए खाएं-पीएं। इससे सारे बाहरी अनिष्टों का समाधान अपने आप हो जाता है। दृष्टिदोष से बचाव जीवन की कई समस्याओं से हमें बचाये रखता है।

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