खटिया लूटेरी जनता

khatiya

जब लोकतंत्र जनता के लिए है, चुनाव जनता के लिए हैं, रैलियों का इंतजाम जनता के लिए है तो खटिया क्यूँ नहीं? उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले से खटिया लूटने के शुरुआत बताती है की अब चुनाव के वक्त जनता को ठगने का जो टैलेंट नेताओं में पहले था वो अब जनता में आने लगी है| मतदाता इन टाइप के रैलियों में जाने की अपनी कीमत समझने लगी है| वे जानती है की ये सारे इंतजाम उनकी उम्मीदों को सफ़ेद करके उन्हें ही बेचने के लिए है| इसलिए उसने इस बार अपना तरीका बदल लिया| नेता अपने बयानों में फायदे ढूँढते थे तो मतदाता इस बार रैलियों में अपने फायदे ढूढ़ कर ले गई|

जनता का ये नजरिया लूटने और ठगने के उसी स्टाइल से प्रेरित है जिसमे वो बार-बार इन्हें नेताओं से लूटती रही| क्या लोगों ने अपना मूड बदला या जरूरत के हिसाब से और शांति से नेताओं के मूड बदलने को ठान ली? रैलियों में जाना, नेताओं के न समझ में आने वाले भाषण को सुनना और वापस घर लौट आने का जमाना पुराना था| किसान के नाम पर, व्यापारी के नाम पर या गरीब के नाम पर होने वाली सभाओं में जुटने वाले लोगों का हुजूम बेहद खतरनाक तरीके से जिंदाबाद के नारे लगाते पोलों पर लगे, मंचों पर लगे पोस्टरों को अब उखाड़ ले जाने का जूनून रखने लगे हैं| इस बार खटिया ले गए शायद अब से कुर्सी भी ले जाएँ| पोस्टर-बैनरों को ले जाने वाले वर्ग को ये शौक नहीं रहता की क्रांतिकारी नेताओं की तस्वीर घर में रहेगी बल्कि बारिश या धुप के मौसम में इन्हीं नेताओं के पोस्टरों के बदौलत इनकी दिनचर्या आराम से कटती है|

खटिये को लूट लिए जाने को लेकर तमाम बुद्धिजीवियों ने अपनी राय घुसेड़ी| लेकिन शायद यही खटिया जमीन पर सोने वाले लोगों को हवा में सोने का एहसास भी दिलाएगी| किसी ने नहीं सोचा की जनता की यह लूटेरी तस्वीर उस परिवेश, उस माहौल का परिणाम है, जिसमें अक्सर हमें विकास के आंकड़ों और योजनाओं के बदौलत भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है| पहले भी रैलियों होती थी, वोटरों के लिए खाने-खिलाने का इंतजाम होता था पर शायद तब कुर्सियां होती थी जो गरीबों के स्टैण्डर्ड की नहीं है| नेताओं ने जनता से खटिये से सहारे वोट के तार जोड़ने की रणनीति लोगों के जुगाड़ टेक्नोलॉजी के दम पर सफल रही| गरीब के लिए खटिया फाइव स्टार होटलों के गद्दों से भी बढ़कर आरामदायक है| इन गरीबों के चेहरे पर जो सुकून मुफ्त की खटिये पर सोने का होगा वह खुद को एक मतदाता मान कर कभी महसूस नहीं कर पाता की उसने ईमानदारी से वोट देकर लोकतंत्र को मजबूत किया है| एक खटिये को ठोककर-बनाकर सालों चलाते रहना इन गरीबों के लिए शानदार इंजीनिरिंग का नमूना भी हो सकता है और मजबूरी की दास्तान भी| शौक के लिए नेताओं को छोड़कर भला यह मासूम जनता क्यों चोरी करेगी जो वर्षों तक खुद को जाति और पार्टी के भक्त होने के नाम पर गरीब रहने का बार-बार इंतजाम किया है|

नेता सोंचते बहुत हैं लेकिन सिर्फ चुनाव जीतने के लिए| वास्तविकता और काल्पनिकता के बीच की जगह में वे विकास की इतनी गाथा और बखान ठूंस देते हैं की जनता के लिए साँस लेने तक की जगह नहीं बचती| वो अकबका जाती है, वर्तमान को सोचकर अपना भविष्य बिगाड़ लेती है| कथनी और करनी में नेताओं के अंतर को जनता हर बार भांप लेती है पर उसके पास वो राजनेताओं वाली सुपरपॉवर नहीं होती की विरोध कर सके| अलग-अलग राजनीतिक दुकानों में मतदाताओं के लिए भरपूर इंतजाम हैं, पेट पालने से लेकर, नेता बना दिए जाने के सपनों तक| लेकिन इन सारी दुकानों के नियम-शर्तों में कोई अंतर नहीं मतलब लूटना मतदाता को ही है|

इस तरह खटिया लूट लेने से लेकर नेताओं के पीछे जिंदाबाद के नारे लगाती भीड़ में एक चीज कॉमन है की सबकी मजबूरी की वजह गरीबी और बेबसी है| नहीं तो बदलते भारत में किसी कामगार को इतनी फुर्सत कहाँ की वो लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपनी आर्थिक श्रद्धांजली दे| लोकतंत्र के नाम पर समाजवाद की विचारधारा की भावनाएं लोगों की उम्मीदों में बहकर चू जाती है| खटिया लूटेरी जनता के लिए नेताओं और पार्टियों को लूटने का चलन संविधान वाली समानता का अधिकार जैसा फील देता है|

इसे चलना चाहिए और खूब चलना चाहिए ताकि इन नेताओं को भी कभी लूटे जाने का एहसास महसूस हो…

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