किलकि चहकि खिलत जात !

किलकि चहकि खिलत जात !
किलकि चहकि खिलत जात, हर डालन कलिका;
बागन में फागुन में, पुलक देत कहका !

केका कूँ टेरि चलत, कलरव सुनि मन चाहत;
मौन रहन ना चहवत, सैनन सब थिरकावत !
चेतन जब ह्वै जावत, उर पाँखुड़ि खुलि पावत;
अन्दर ना रहि पावत, बाहर झाँकन चाहत !

मोहत मोहिनी होवत, सुरभित सुषमा सोहत;
सुरमय शोभित सहमित, शाश्वत सुन्दर भावत !
लहरा गहरा फुहरा, वायु के संग विचरा;
प्रभु कौ भव झाँकि पाति, ‘मधु’ की हर हिय कणिका !

 

 

किलकावत काल पुरुष !
किलकावत काल पुरुष, धरती पै लावत;
रोवन फिरि क्यों लागत, जीव भाव पावत !

संचर चलि जब धावत, ब्राह्मी मन होवत;
महत अहम चित्त भ्रमत, पंच भूत होवत !
प्रतिसंचर प्राण पात, वनस्पति जन्तु होत;
मनुज ध्यान जबहि जात, होत ब्रह्म प्रणि- पात !

गात पात गति सुहात, महिमा भरि भुवन देत;
भावन में गंग बहत, मज्जन उर नित करवत !
किलकारी वालन वत, हुँकारी केहरि मत;
मारन तब ‘मधु’ पावत, प्रभु चरणन सहलावत !

 

 

 

 

मोहन कूँ देखन कूँ !
मोहन कूँ देखन कूँ, तरसि जातु मनुआँ;
देखन जसुमति न देत, गोद रखति गहिया !

दूर रखन कबहुँ चहति, प्रीति करति खुदिइ रहत;
डरति रहति उरहि रखति, गावत कछु रहिया !
थकति कबहुँ रुसति कबहुँ, नाचत थिरकत कबहुक;
चाहत चिर रूप लखन, व्यस्त कबहुँ रह मैया !

सृष्टि कौ सृष्टा कौ, द्रष्टा कौ देवन कौ;
श्याम रह्यौ मन मन कौ, प्यारौ कन्हैया !
सब तरंग बा के अंग, सकल अंग बा कौ रंग;
‘मधु’ खोवत नेत्र संग, हिय लें गलबहियाँ !

 

 

वारौ सौ न्यारौ सौ !
वारौ सौ न्यारौ सौ, ब्रज कौ कन्हैया;
प्यारौ दुलरायौ सौ, लागत गलबहियाँ !

भेद भाव कछु ना मन, चित्त प्रमित भास्वर घन;
व्यस्त चकित रह थिरकित, किलकत कुहकत फुरकत !
जानत हर मन की गति, हर हरकत वह समझत;
अपनी वह करवाबत, देवत जो हम चाहत !

घर ना ज़्यादा रहवत, बाहर देखन चहवत;
चलिवे की जब ठानत, रुकनौ ना फिरि चाहत !
चाखत हर फल जावत, चीख़ कबहुँ वे मारत;
‘मधु’ कूँ देखत अँखियाँ, करि जावत कछु बतियाँ !

 

 

पीछे ते कूक देत आवत गिरधारी !
पीछे ते कूक देत, आवत गिरधारी;
परिकम्मा गोवर्धन, देवत त्रिपुरारी !

कीर्तन करि चेतन स्वर, तरत जात गातन गति;
मुरली की तान सुनत, केका कानन कूजत !
किसलय उर लय पावत, लता पता फुर होवत;
ताल तमालन खोजत, कान्हा जब कछु बोलत !

छिप २ राधा देखत, गोपिन्ह मन की कहवत;
कृष्ण सखा मनसुख कूँ, जब तब छेड़त रहवत !
छोड़न ना जातु रहत, करबट ना लेन देत;
मन हारी ‘मधु’ वारी, प्रभु चरणन बौछारी !

 

 

 

 

खेवत उर केवट बनि !
खेवत उर केवट बनि, केशव सृष्टि विचरत;
सुर प्रकटत सुधि देवत, किसलय हर लय फुरकत !

कालन परिसीमा तजि, शासन के त्रासन तरि;
कंसन कौ चूरि अहं, वंशन कौ अँश तरत !
हँसन कौ मन समझत, हं- सो की धुनि प्रणवत;
जीवन्ह जीवन सिखवत, जंजालन तिन बचवत !

दूर रहन कब चाहत, हर पल श्वाँसन रहवत;
यदि कोऊ ना चहवत, निकट तिनहिं ना पावत !
तरजत तिनकन गति मति, ग्रह तारन रखि धड़कन;
तारत ‘मधु’ रत त्रिभुवन, चरणन में देत शरण

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