-डॉ कुलदीप चंद अग्निहोत्री
चीन का मीडिया पिछले कुछ दिनों से भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की शान में कसीदे पढ रहा है। इसी प्रकार कभी यही मीडिया भारत के पूर्व रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन की तारीफ के पुल बांधा करता था। और 1950 के आस -पास चीनी मीडिया की दृष्टि में भारत में कोई अक्लमंद व्यक्ति था तो वह केवल के. एम पणिक्कर था। बात आगे बढाने से पहले पृष्टभूमि को समझ लेना जरुरी है। जयराम रमेश पिछले दिनों चीन गए थे। वहां जाकर इस बार दिल खोलकर बोले। उन्होंने बाकायदा वहां के सरकारी मीडिया से रुबरु होते हुए कहा कि भारत की सुरक्षा एजेंसियां चीनी कम्पनी को लेकर भारत में बिना वजह ही सुरक्षा का हौवा खडा करती रहती हैं। उनका संदेश बहुत ही साफ था कि भारत में काम कर रही चीनी कम्पनियों से देश की सुरक्षा को किसी प्रकार का खतरा नहीं है। लेकिन भारत सरकार ने कुछ एजेंसियां, कुछ मंत्रालय बिना किसी कारण के चीन के भय का हौवा बनाते हैं। जाहिर है कि देश में इसकी प्रतिक्रिया होती। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जानबूझकर इस सारी घटना को एक हल्का सा मोड दे दिया। भारत का मीडिया भी जानबूझकर या अनजाने में उस मोड में फंस गया और वही सब दोहराने लगा जो प्रधानमंत्री कार्यालय चाहता था। मनमोहन सिंह ने जयराम रमेश को लताड लगाते हुए कहा कि उन्हें दूसरे मंत्रालयों के कामकाज में टिप्पडी नहीं करनी चाहिए और ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि जयराम रमेश को जल्दी ही बात समझ में आ गयी और उन्होंने अपनी गलती को स्वीकार कर लिया। मीडिया में कुछ अति उत्साही पत्रकारों ने जयराम रमेश के व्यवहार की तुलना शशि थरुर से कर डाली। उनका कहना था कि शशी थरुर को भी दूसरे मंत्रालयों के कामकाज पर टीकाटिप्पडी की आदत थी। और इसलिए उन्हें मंत्री पद से हाथ धोना पडा। जाहिर है कि प्रधानमंत्री कार्यालय तो तालियां बजा रहा होगा कि उसने पूरे मुद्दे को भटकाने के लिए जो जाल बिछाया था उसमें मीडिया भी फंस गया है और तथाकथित राजनीतिक विश्लेषक भी।
जयराम रमेश ने बीजिंग में जो कुछ कहा यदि वे यही सब कुछ दिल्ली या धर्मशाला या फिर मुम्बई में कहते तो इसे एक मंत्री द्वारा दूसरे मंत्री के मंत्रालय के कामकाज में दखलंदाजी समझा जा सकता था। देश के भीतर यदि टीका टिप्पडी की जाती तो तब जयराम रमेश को शशी थरुर के समकक्ष रखा जा सकता था। परन्तु जयराम रमेश ने यह खुलासे एक दूसरे देश की राजधानी बीजिंग में किए हैं। इसलिए, उनका यह वक्तव्य किसी दूसरे मंत्रालय के कामकाज में अनाधिकार हस्तक्षेप नहीं है। बल्कि यह भारत सरकार के एक मंत्री द्वारा चीन में जाकर दिया गया भारत विरोधी बयान है। यदि यही बात चीन मे जाकर कोई सामान्य नागरिक, पत्रकार या राजनीतिक विश्लेषक करता तो उसकी गम्भीरता को कम करके आंका जा सकता था। क्योंकि तब उसका वह वक्तव्य विचार स्वतंत्रता की छत्रछाया मे आ सकता था। लेकिन जब एक मंत्री अपने ही देश के खिलाफ दूसरे देश में जाकर वक्तव्य देता है तो उसकी गम्भीरता बढ जाती है और परिणाम खतरनाक होते हैं। जयराम रमेश का यह कृत्य इसी कोटि में आता है और इसी पैमाने से उसका विश्लेषण किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह शायद इससे बचना चाहते हैं, इसका कारण वे खुद ही जानते होंगे। इसलिए, उन्होंने जयराम रमेश के इस कृत्य को गृह मंत्रालय के काम में दखलंदाजी बताकर रास्ता साफ करना चाहा है।
दरअसल, 1950 से ही इस देश में एक चीन समर्थक सशक्त लॉबी है जो कभी छिपकर कार्य करती है और कभी समय और परिस्थिति के अनुसार प्रत्यक्ष ही चीन के पक्ष में जा खडी होती है। 1950 के दशक में के.एम पणिक्कर चीन में भारत के राजदूत थे। उनके कृत्यों को देखकर उस वक्त के गृहमंत्री सरदार पटेल ने कहा था कि लगता है वे भारत के नहीं चीन के राजदूत हैं। भारत सरकार ने उस समय तिब्बत पर चीन की सूचरेंटी (अधिराज्यत्व) स्वीकार किया था लेकिन के.एम. पणिक्कर ने सरकारी दस्तावेज में जेड को काटकर वी कर दिया और सूचरेंटी को सावरेंटी (सम्प्रभुता) बनाकर चुपचान चीन के हवाले कर दिया। आज चीन वही दस्तावेज भारत को दिखाकर उसका मुंह बंद कर रहा है। 1962 की भारत चीन लडाई में उस वक्त के रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन का चीन के प्रति पक्षपात इतना जगजाहिर हो गया कि सत्तारुढ कांग्रेस के भीतर विद्रोह की स्थिति पैदा हो गयी और नेहरु को कृष्णामेनन को रक्षामंत्री के पद से हटाना पडा।
विदेश मंत्रालय की बाबू लॉबी में तो चीन समर्थक अधिकारियों का एक गुट ही बना रहता है। बाबू नटवर सिंह जो किसी वक्त चीन में भारत के राजदूत भी रहे थे और बाद में मंत्री बने राजीव गांधी को फुसलाकर चीन के साथ बातचीत के मेज पर खींच ले गए थे। दुनिया जानती थी कि इस बातचीत से भारत को कुछ मिलने वाला नहीं है अलबत्ता द्विपक्षीय बातचीत में चीन की दादागिरी बढेगी। इतिहास साक्षी है कि इस बातचीत के शुरु होने के बाद ही चीनी सेना की अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ तेज हुई और उसने अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा बार -बार दोहराना शुरु कर दिया। बाद में नटवर सिंह ने अपने इस कृत्य की डींग मारते हुए स्वयं ही कहा कि राजीव गांधी को अंतर्राष्ट्रीय विषयों की ज्यादा सूझबूझ नहीं थी, इसलिए उनको चीन पहुंचा देना मैं अपने जीवन की सबसे बडी उपलब्धि मानता हूं। यह तो बाद में पता चला कि नटवर सिंह इराक के हुक्मरानों से भी किसी तेल के घपले में फंसे हुए थे। अब जयराम रमेश चीन के पक्ष में ताल ठांेककर खडे हुए हैं और भारत की सुरक्षा एजेंसियों को लताड रहे हैं। जाहिर है जयराम रमेश के मन में चीन के पक्ष में यह सहानुभूति एक दिन में तो पैदा नहीं हुई होगी। अभी तक वे इस राज को सीने में छिपाए हुए थे। लेकिन आखिर ऐसा क्या कारण हुआ कि उन्हें तमाम खतरे उठाते हुए खुलकर चीन के पक्ष में प्रत्यक्ष रुप से ही खडे होना पडा ? सीमांत क्षेत्रों में जो चीनी कम्पनियां काम करती हैं वे सामान्य काम के अतिरिक्त भारत की सुरक्षा को भेद रही है – यह अब कोई छिपा हुआ रहस्य नहीं है। चीन सरकार भारत के सुरक्षा संस्थानों की वेबसाईट हैकिंग में लगा हुआ है और अनेक स्थानों पर उसे सफलता भी मिली है, यह भी अब रहस्य नहीं रहा। इस सब के बावजूद जयराम रमेश ने अपने को खतरे में डालकर चीन की वकालत क्यों प्रारम्भ कर दी। शत्रु देशों के फायदे पहंुचाने के अनेक तरीके हैं। एक तरीका वह है जो माधुरी गुप्ता ने चुना है, दूसरा तरीका वह है जो के.एम. पणिक्कर ने चुना था, तीसरा तरीका वह है जो कृष्णा मेनन ने अपनाया था, चौथा तरीका वह है जो सीपीएम को रास आया है, पांचवा तरीका वह है जिसकी लीला नटवर सिंह ने दिखायी थी, छठा तरीका वह है जो माओवादी अपना रहे हैं और सातवां तरीका वह है जिसका प्रदर्शन जयराम रमेश ने बीजिंग में किया है। जयराम रमेश के इस आचरण की जांच की जानी चाहिए।
हमारे देश को इतिहास से सबक लेना आता नहीं. सरकार अगर भारत चीन युद्ध में हमारी शर्मनाक हार के सस्तावेज सार्वजानिक करती तो कोई भी चीन का समर्थन करने का दुस्शाशस नहीं करता. ४८ साल बाद भी सरकार हर के कारणों को सार्वजानिक नहीं करना चाहती.
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