ज्ञान सर्वोच्च लब्धि है – हृदयनारायण दीक्षित

विश्व तनावग्रस्त है, सब तरफ अशांति है। अशांति और तनाव आधुनिक विश्व मानवता की समस्या है। इसके उपचार भारतीय अध्यात्म व दर्शन में हैं। भारतीय अध्यात्म ईश्वर आस्था नहीं है। यह किसी ईश्वर प्रतिनिधि या ईश्वर पुत्र की घोषणा नहीं है। सिर्फ ज्ञान और श्रद्धा की प्रीति है। श्रद्धा और ज्ञान का मिथुन है। यह स्वयं के भीतर के संसार का ही अध्ययन है। भीतर का संसार बड़ा दिलचस्प है। यहां अनंत कामनाएं हैं। राग, द्वेष हैं। दुखों की अनुभूति है। दुख के अल्पकालिक अभाव के रूप में सुख की अनुभूतियां हैं लेकिन स्थाई आनंद नहीं मिलता। भारतीय दार्शनिकों ने जीवन को दुखमय जाना। भारतीय दर्शन का जन्म और विकास दुख का कारण खोजने और दुख समाप्ति का जीवन मार्ग खोजते हुए हुआ। इन अनुभूतियों के अनुसार कामनाएं कर्म कराती हैं। मनुष्य के चित्त में कर्मफल की इच्छाएं जगाती हैं। कर्मो के फल में प्रकृति की अनंत शक्तियां हिस्सा लेती हैं। कभी-कभी सफलता मिलती है, कभी नहीं मिलती। मनुष्य सफल होकर कर्मबंधन में फंसता है, असफल होकर भी कर्मबंधन में फंसता है। भारतीय दर्शन में कर्मबंधन ही बार-बार के जन्म के कारण हैं। कर्मबंधन से मुक्ति ही स्थाई आनंद का उपाय है। गीता के चौथे अध्याय में पूर्ण ज्ञान को मुक्ति का उपाय बताया गया है। यहां ज्ञान को ही परमशांति का मुख्य उपकरण बताया गया है। ऋग्वेद में ‘ज्ञान’ को प्रकृति की एक बड़ी शक्ति यानी देवता देखा गया है।

गीता (4.39) में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान की महत्ता बताई और कहा, जो श्रद्धा युक्त है, ज्ञान के लिए तत्पर है – ज्ञानंतत्परः, जो इन्द्रिय संयमी है, वह ज्ञान प्राप्त करके परम शांति प्राप्त करता है। यहां ज्ञान की तत्परता के लिए श्रद्धा भी एक शर्त है। श्रद्धा अंधविश्वास नहीं है। ईश्वर आस्था भी नहीं है। श्रद्धा पर डॉ. राधाकृष्णन् की टिप्पणी सटीक है, श्रद्धा अंधविश्वास नहीं है। यह आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए महत्वाकांक्षा है। (डॉ. राधाकृष्णन्, श्रीमद्भगवतद्गीता, पृष्ठ 158)। श्रद्धा वस्तुतः चित्त की खास दशा है। ज्ञान के तमाम क्षेत्र हैं। विज्ञान की भी तमाम शाखाएं हैं। कोई अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, भूगर्भशास्त्री या वैज्ञानिक होकर शांति चाहता है तो कोई इतिहास, मनोविज्ञान या दर्शनशास्त्र पढ़कर, लेकिन गीता में ज्ञान का तात्पर्य स्वयं के अंतिम तत्व का बोध है। इसके लिए बड़ी महत्वाकांक्षा चाहिए। श्रद्धा इसी महत्वाकांक्षा की ऊर्जा है। ऋग्वेद (10.151.1) में ‘श्रद्धा प्रकृति शिखर विभूति है’ – श्रद्धां भगस्तय मूर्धनि। ऋषि श्रद्धा देव की स्तुति करते हैं, हम प्रातः श्रद्धा का आवाहन करते हैं, हम मध्यान्ह में श्रद्धा का आवाहन करते हैं और सूर्यास्त काल में भी श्रद्धा का आवाहन करते हैं। हे श्रद्धा! हमको श्रद्धा से परिपूर्ण करें। (वही मंत्र 5) यहां श्रद्धा नामक महाऊर्जा से श्रद्धा नामक महाऊर्जा ही मांगी गयी है। श्रद्धा की ऊर्जा ज्ञान की महत्वाकांक्षा बनती है।

श्रद्धा की चित्तदशा यों ही नहीं मिलती। भारत में अनुभव अध्ययन जिज्ञासा और निष्कर्षों की एक सुदीर्घ परंपरा है। भौतिक जगत् के अध्ययन विश्लेषण और विवेचन हस्तांतरणीय हैं। वैज्ञानिक विज्ञान के सूत्र खोजते हैं, आम आदमी भी उसी तकनीकी का इस्तेमाल करते हैं लेकिन आत्मज्ञान अहस्तांतरणीय है। कपिल, कणाद, गौतम, बादरायण, पतंजलि या शंकराचार्य की अनुभूतियां वैयक्तिक हैं। वे प्रेरित कर सकती हैं लेकिन हस्तांतरणीय नहीं हैं। वे श्रद्धा का विषय हैं। उन्हें मिला आत्मज्ञान श्रद्धा की शक्ति पाकर हमारी सबकी महत्वाकांक्षा बन सकता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मूर्ख, अश्रद्धालु और संशयी नष्ट हो जाते हैं। ऐसे लोगों के लिए न यह संसार है और न परलोक। उन्हें सुख नहीं मिल सकता (वही, श्लोक 40)। यहां तीन विशेषण हैं – मूर्ख, अश्रद्धालु और संशयी। मूर्खता सुपरिभाषित है। श्रद्धा दिव्यता के प्रति महत्वाकांक्षी भाव है और संशयी का अर्थ प्रत्यक्ष/अनुभूत के प्रति भी निश्चयात्मक न होना है। कुछेक विद्वान संशय को विद्यार्थी का मुख्य गुण मानते हैं। विद्यार्थी का मुख्य गुण संशय नहीं जिज्ञासा है। जिज्ञासा और संशय में आधारभूत अंतर है। भारत के तमाम ज्ञान अनुशासन ‘जिज्ञासा’ से ही शुरू होते हैं। ब्रह्मसूत्र ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ से प्रारंभ होता है। पूर्व मीमांसा ‘अथातो धर्म जिज्ञासा’ से शुरू होती है। भक्ति सूत्र अथातो भक्ति जिज्ञासा से प्रारंभ होता है। यहां ब्रह्म, धर्म या भक्ति के अस्तित्व के बारे में कोई संशय नहीं है। इनके अस्तित्व के प्रति श्रद्धा है, साथ में इन्हें पूरा जान लेने की जिज्ञासा है। कृष्ण का उपदेश यहां पूरा है – श्रद्धा के साथ ज्ञान तत्परता चाहिए।

सारे संदेह दरअसल देह के साथ हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् (4.4.13) में कहते हैं शरीर में प्रविष्ट यह आत्म तत्व जिसे प्राप्त हो गया है – यस्यानुवित्तः प्रतिबुद्ध आत्मास्मिन संदेहेय गहने प्रविष्टः। वह सबकार् कत्ता है – स हि सर्वस्यर् कत्ता तस्य लोकः स उ लोक एव। यहां बड़ा दिलचस्प विवेचन है। उसे सबकार् कत्ता व लोक का स्वामी बताते हैं लेकिन तब वह और लोक दो होते हैं इसलिए आखिर में जोड़ते हैं – वही लोक भी है। प्रकृति और परमतत्व दो नहीं है। आत्मज्ञान ऋग्वेद का ‘एकं सद्’ है, अंततः वह एक ही सत्य है। तब न कोईर् कत्ता है, न कोईर् भत्ता, न कोई दाता या विधाता। श्रीकृष्ण कहते हैं योग द्वारा कर्म (फल) त्यागने वाले और ज्ञान द्वारा सभी संशयों को नष्ट करने वाले व्यक्ति कर्म बंधन में नहीं फंसते (वही, श्लोक 41)। अनासक्त कर्म और ज्ञान की प्राप्ति ही आनंद का उपाय है। यही सर्वोच्च आनंद है और यही परम मुक्ति है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि अज्ञान के कारण उत्पन्न सारे संशय ज्ञान के अस्त्र से नष्ट करो, परिपूर्णता में स्थिर हो और उठो (वही श्लोक 42)।

यूरोपीय दर्शन का आधार यूनानी दर्शन है। प्लोटिनस (204-70 ई0) अंतिम यूनानी दार्शनिक थे उनका चिंतन भारतीय दर्शन से प्रभावित दिखाई पड़ता है। उनके विवेचन में तीन मुख्य तत्व हैं। उन्होंने इसे ट्राइनिटी-त्रितत्व की संज्ञा दी। इन तीन में पहला ‘वह एक’ है, दूसरी तर्कबुद्धि है, तीसरे विश्वात्मा है। ईसाइयत ने प्लोटिनस दर्शन के तर्क तत्व को नहीं अपनाया। प्लोटिनस की ट्राइनिटी या त्रित्व की कल्पना नई नहीं है। महामृत्युंजय मंत्र के नाम से विख्यात ऋग्वेद के सातवें मंडल के एक मंत्र में ‘यम्बकं यजामहे’ हजारो वर्ष पहले से ही मौजूद है। प्लोटिनस ने सांसारिक क्रियाकलापों के प्रभाव से मुक्त रहकर मुक्ति मार्ग को अपनाने को गीता जैसा दर्शन रखा था। इसके पहले प्लेटो (428-427 ई. पू.) ने गीता की ही तरह फीडो में कहा है कि देहधारी अज्ञानी होकर बंधन में होते हैं लेकिन ज्ञानी मुक्त हो जाते हैं। प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में लिखा है कि शुभ प्रत्यय पर ध्यान करने से आत्मा की गति ऊर्ध्वगामी हो जाती है और आनंदद्वीप पहुंच जाती है। प्लेटो ने ‘फीडो’ में एक और तरीका भी बताया है कि आत्मशुद्ध व्यक्ति का उद्धार स्वयं ईश्वर ही कर देता है। मार्ग कई हैं – ध्यान-ज्ञान मार्ग बिना ईश्वर का और भक्ति मार्ग ईश्वर का। गीता भी तमाम विकल्प सुझाती है।

ज्ञान सर्वोच्च है। ऋग्वेद का प्रख्यात गायत्री मंत्र ‘धियो’ – बुध्दि प्रकाश की सविता स्तुति है। यजुर्वेद (11.2-3) व श्वेताश्वतर उपनिषद् (2.3) में एक साथ आए एक मंत्र में ‘देवों, मन और बुध्दि को संयुक्त’ करने की प्रार्थना है – युक्त्वाय मनसा देवान सुवर्यतो धिया दिवम्। ज्ञान प्राप्ति अंध आस्था नहीं है। यह किसी का विशेषाधिकार नहीं है। यह पंथिक मजहबी घोषणा नहीं है। ऋग्वेद (10.13.1), यजुर्वेद (11.5) व श्वेताश्वतर उपनिषद् (2.5) में एक साथ आए एक मंत्र में सर्वोच्च ज्ञान के बारे में शानदार घोषणा है, ‘शृणवन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थु’ – विश्व के पवित्र लोकों में रहने वाले अमृत पुत्र भलीभांति (यह ज्ञानतत्व) सुनें। यहां विश्व के प्रत्येक मनुष्य को अमृत पुत्र कहा गया है और दुनिया के सभी क्षेत्रों को दिव्य। यहां माने जाने का कोई आग्रह नहीं है। न मानने वालों के लिए – इंकार करने वाले लोगों के लिए कोई दंड नहीं है। सिर्फ सुने जाने का ही निवेदन है। सत्य श्रवण अपने आप ही प्रभावकारी होता है। अंधआस्था के लिए दंड प्रावधान की जरूरत होती है। सत्य सुनते ही असर डालने लगता है जैसे एक नन्हा सा दिया जला, अंधकार गायब हो जाता है। अंधकार क्रमशः नहीं हटता। दीपक उगा, अचानक, औचक, फौरन, तुरंत अंधकार हटा। ज्ञान प्रकाश भी ऐसा ही है। ज्ञान आया, अज्ञान हटा। अज्ञान अंधकार था, ज्ञान की उपस्थिति मात्र ही उसका सर्वनाश है। गीता, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और सारे दर्शन ग्रंथ इसी ज्ञान प्रकाश के गीता काव्य हैं।

-लेखक, उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री एवं भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता हैं।

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