कोई मिल पल में चल देता !

कोई मिल पल में चल देता,
कोई कुछ वर्ष संग देता;
जाना सबको ही है होता,
मिलन संस्कार वश होता !

विदा क्षण क्षण दिये चलना,
अलविदा कभी कह देना;
यही कर्त्तव्य रह जाता,
मुस्करा भाव भव देना !

चले सब जाते अपनी धुन,
झाँकते चलते दे चितवन;
नज़र में रखे निज मंज़िल,
कभी उर्मिल कभी धूमिल !

लौट कोई प्राय आजाता,
मास वर्षों में कोई आता;
जन्म या युग कोई लेता,
कोई हमको बुला चहता !

जाना जब हमको है होता,
द्वार कोई और ही रहता;
तटस्थित ‘मधु’ उर रहता,
लोक परलोक लख चलता !

लोक परलोक के द्वारे !

लोक परलोक के द्वारे,
रहे जो तटस्थित पहरे;
किए दीदार वे कितने,
तके उपयुक्तता गहरे !

आत्म अँकन प्रथम कीन्हे,
विधि खोलन की समझाएँ;
यन्त्र पर अँगुलि रखवा के,
द्वार वे उनसे खुलवाये !

गये मुस्काए कुछ कहके,
अमित आनन्द दे धाए;
चले वे तरंगित स्मित,
वहाँ से प्रेरणा पाए !

रहे तट पर वहीं ठहरे,
वही यह देख-कर पाए;
नियन्ता से रहे तन्त्रित,
तभी सब पार कर पाए !

जीव औ तन्त्र सब उनके,
नियंत्रित द्वार सब उनके;
रहे दरवाज़े ‘मधु’ प्रभु के,
निहारे भूमा भव विहरे !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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