अमरीकीकरण और फंडामेंटलिज्म की क्रीडाएं

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

अमरीकीकरण का एक अन्य प्रमुख तत्व है उपभोक्तावाद। यह पश्चिमीकरण की धुरी है। उपभोक्तावाद के बारे में अमूमन काफी कुछ कहा गया है। यह मूलत: अन्य पर वर्चस्व स्थापित करने की व्यवस्था है। अन्य को उपभोग के बहाने वर्चस्व के स्वामित्व में लेना, वर्चस्व स्थापित करना, वंचित करना इसका प्रधान लक्ष्य है।

भौतिक वस्तुओं को अपने स्वामित्व में रखना मनुष्य का पुराना गुण है। यह सामाजिक हैसियत,सम्मान और अवस्था का मूल स्रोत है। इसे विज्ञापन और मार्केटिंग के प्रचार अभियान ने बढ़ावा दिया है। कभी-कभी यह प्रचार काफी गंभीर होता है। हम देखते हैं कि लोग अपने कारोबार से विमुख होकर आध्यात्मिक शांति की तलाश में पश्चिमी देशों से हमारे देश में आ रहे हैं। मजेदार बात यह है कि पश्चिमी देशों के धर्मप्राण लोगों का सबसे बड़ा संगठन इस्कॉन है जिसकी मूल फंडिंग अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां करती हैं। इनमें फोर्ड का नाम सबसे ऊपर है। वस्तुओं के अत्यधिक अधिकार में रखने की प्रतिक्रिया के रुप में पश्चिम में इसके खिलाफ जो प्रतिक्रिया हो रही है उसका सबसे आदर्श रुप है भारतीय आध्यात्मिकता। पश्चिम में यह वस्तुओं से अलग होने के रुप में व्यक्त हो रही है। वस्तुओं पर अबाध अधिकार की उपभोक्तावादी भावना ने विकल्प के तौर पर आध्यात्मिक चेतना के उपायों की ओर मोड़ा है। इसे पश्चिमी देशों के बालों की कटिंग,संगीत की प्रवृत्तियों, रेस्टोरैंटों की पूर्वी देशों की सजावट, वस्त्र आदि में फैशन के रुप में देखा जा सकता है। अब पश्चिमी देशों में पुरबिया संस्कृति की बयार वह रही है जो मूलत: उपभोक्तावाद के अंग के रुप में ही आ रही है।

पैट्रिक हुनोट के अनुसार ग्लोबल स्तर पर तीन किस्म के फिनोमिना दिखाई दे रहे हैं।ये हैं, पहला, आर्थिक नव्य उदारतावाद। दूसरा, जिसके कारण आर्थिक अराजकता ,विस्थापन, व्यक्तिवादिता और बेगानापन बढ़ा है। तीसरा, इसी के गर्भ से सेलुलर और स्वचालित समाज पैदा हुआ है। इन तीनों ही प्रवृत्तियों ने सामाजिक बंधनों को नष्ट करने की प्रक्रिया को तेज किया है।

अब नए किस्म की नैतिकता की मांग की जा रही है। ऐसे व्यक्तिवाद की मांग की जा रही है जो पूरी तरह स्वायत्त है। यह ”प्रोएक्टिव इंडीविजुअल” है। जो व्यवहार में आर्थिक और तकनीकीपरक परिवर्तनों को तुरंत और सहज ही स्वीकार कर लेता है। आत्मसात कर लेता है। जिसकी शालीन अभिरुचि (टेस्ट) को ‘व्यक्तिगत पहचान’ के मानक के रुप में पेश किया जा रहा है। कुछ दुकानों को इस संदर्भ में रचनात्मक रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है। किंतु ज्यादातर ये दुकानें बेकार के मालों की ही होती हैं। इस तरह का व्यक्तिवाद हमारे समाज के करीबी सामुदायिक तानेबाने को ही नष्ट करता है। यह आर्थिक असमानता में इजाफा करता है, स्वचालित व्यक्तिवाद समाज में तब ही फलता-फूलता है जब वह सामुदायिक प्रकल्पों को नष्ट कर देता है। स्वचालित व्यक्तिवाद ऐसे आत्म पर जोर देता है जो सामाजिक और पारिवारिक बाधाओं से पूरी तरह मुक्त है। यह नए किस्म की गुलामी का प्रच्छन्न प्रयास भी है।

नव्य-उदारतावाद हमारे लिए लाभप्रद नहीं है। इसकी पुष्टि के लिए ग्लोबल अनुभवों को देखा जाना चाहिए। विकसित मुल्कों का अनुभव बताता है कि नव्य-उदारतावादी नीतियों को लागू करने के बाद आत्महत्या, अवसाद, नशीले पदार्थों का सेवन, एकाकीपन, पीढ़ियों का संकट, लिंग की जटिल समस्याएं, नागरिकता का ह्रास, सांस्कृतिक पहचान का क्षय, पराए किस्म के धर्मों का उदय इत्यादि क्षेत्रों में तेजी से इजाफा हुआ है।

नव्य-उदातावादी नीतियों का अनुकरण करने के कारण अमरीका में सामाजिक विध्वंस के जो रुप सामने आए हैं, उनसे सबक लेने की जरूरत है। मसलन् विश्वस्तर पर आत्महत्या दर में विगत पैंतालीस सालों में साठ फीसदी वृध्दि हुई है। खासकर 15-24 साल के युवाओं में आत्महत्या दर में इजाफा हुआ है। आत्महत्या के साथ ही साथ अवसाद में भोगने वालों की संख्या में वृध्दि हुई है। मानसिक असंतुलन की दर बढ़ी है। इसके प्रमुख कारणों में स्कूल की समस्याएं, नौकरी का खोना, वैवाहिक जीवन से असंतोष, अकेलापन, आशाहीनता आदि प्रमुख हैं।

यह भी तथ्य आए हैं कि विश्वस्तर पर अवसाद की समस्या सबसे बड़ी समस्या के रुप में सन् 2020 तक उभरकर सामने आएगी। आज सारी दुनिया जिस तरह की आर्थिक नीतियों का अनुसरण कर रही है उसमें व्यक्तिवाद बढ़ेगा और सामाजिक एकीकरण कमजोर होगा। इन दोनों कारणों से ही आत्महत्या का खतरा बढ़ रहा है। उल्लेखनीय है कि व्यक्तिवादी के पास छोटा सा समर्थक नेटवर्क होता है। फलत: वह आशाविहीन महसूस करता है। जिसके कारण आत्महत्या के बारे में ज्यादा सोचता है।

जनमाध्यमों से अमेरिकी समाज की आम तौर पर जो तस्वीर पेश की जाती है उसमें ग्लैमर, चमक-दमक, शानो-शौकत, खुशी, आनंद, मजा, सेक्स, सिनेमा, उपभोक्ता वस्तुओं की भरमार, सत्ता के खेल, अमीरी के सपने प्रमुख होते हैं। इस तरह की प्रस्तुतियों में कभी भी यह नहीं बताया जाता कि अमेरिकी समाज फंडामेंटलिज्म की ओर जा रहा है। अथवा अमेरिका में फंडामेंटलिस्टों का बोलबाला है।

फंडामेंटलिज्म को अमेरिकी मीडिया ने हमेशा गैर अमेरिकी फिनोमिना या तीसरी दुनिया के फिनोमिना के रूप में पेश किया है। यह सच नहीं है। फंडामेंटलिज्म के मामले में भी अमेरिका विश्व का सिरमौर है। किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को क्रिश्चियन फंडामेंटलिज्म की उपेक्षा करना संभव नहीं है।

11सितम्बर की घटना के बाद अमेरिकी प्रशासन का जो चेहरा सामने आया है उसका जनतंत्र से कम फंडामेंटलिज्म से ज्यादा करीबी संबंध है। अमेरिकी मीडिया का बड़ा हिस्सा किस तरह युद्धपंथी है और मुसलमान विरोधी है इसके बारे में 11 सितम्बर के बाद के घटनाक्रम ने ऑँखें खोल दी हैं। शुरू में राष्ट्रपति बुश ने यह जरूर कहा कि 11 सितम्बर की घटनाओं का मुसलमानों से कोई संबंध नहीं है। किंतु व्यवहार में अमेरिकी पुलिस ने अमेरिका में रहने वाले मुसलमानों को जिस तरह परेशान किया और उनके नागरिक अधिकारों का हनन किया वह अमेरिकी समाज के अभिजनों और मीडिया के एक बड़े हिस्से में व्याप्त मुस्लिम विरोधी मानसिकता को समझने का अच्छा पैमाना हो सकता है।

सभ्यताओं के संघर्ष की सैद्धान्तिकी के तहत इस्लाम को कलंकित किया गया। इस्लाम को फंडामेंटलिज्म और आतंकवाद से जोड़ा गया। क्रिश्चियन फंडामेंटलिस्टों के नेताओं जेरी फेलवैल और पेट रॉबर्टसन ने इस्लाम विरोधी प्रचार अभियान को चरमोत्कर्ष तक ले जाते हुए मोहम्मद साहब को आतंकवादी तक घोषित कर दिया। यह भी कहा इस्लाम धर्म हिंसा और घृणा का धर्म है। गॉड पर भरोसा है खुदा पर नहीं। इस बयान की अमेरिकी प्रशासन के किसी मंत्री या अधिकारी ने निंदा तक नहीं की। बल्कि इसके विपरीत क्रिश्चियन फंडामेंटलिस्टों की सभाओं में राष्ट्रपति बुश ने जाकर भाषण दिया। यह प्रच्छन्नत: क्रिश्चियन फंडामेंटलिज्म का समर्थन था।

क्रिश्चियन फंडामेंटलिस्टों ने प्रचार अभियान चलाया हुआ है कि अब प्रलय होने वाली है। अमेरिका का इराक पर हमला बेबीलोन के पथभ्रष्टों पर हमला है। ये लोग परमाणु युद्ध के खतरे से भी नहीं डरते। इनका विश्वास है कि जब धर्म और अधर्म के बीच युध्द होगा तो धार्मिक लोग सीधे स्वर्ग जाएंगे। सभी यहूदी ईसाई हो जाएंगे या जला दिए जाएंगे। यही हाल मुसलमानों का होगा। सभी मुसलमान आग के हवाले कर दिए जाएंगे।

11 सितम्बर की घटना के बाद मुसलमानों के खिलाफ मीडिया के माध्यम से भय,पूर्वाग्रह और उन्माद पैदा करने की कोशिशें जारी हैं। यह कार्य मुस्लिम और ईसाई फंडामेंटलिस्ट अपने-अपने तरीके से कर रहे हैं।इन दोनों किस्म के फंडामेंटलिस्टों के नेताओं को राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहज ही मीडिया की अग्रणी कतारों में देखा जा सकता है। इन दोनों के लिए जनतंत्र, संवाद, सहिष्णुता और मानवाधिकारों की कोई कीमत नहीं रह गई है।

इंटरनेट पर गुगल डाटकॉम पर इस्लाम पर सामग्री खोजने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। गुगल पर चालीस लाख से ज्यादा वेबसाइट हैं। इनमें 20 वेबसाइट मुसलमानों के द्वारा बनायी हुई हैं। इनमें आप संवाद नहीं कर सकते। अमेरिकी पुलिस और खुफिया विभाग इन वेबसाइट पर आने वाली प्रत्येक सामग्री का अध्ययन करती रहती हैं।

जमीनी सच्चाई यह है कि सारी दुनिया में और खासतौर पर अमेरिका में विभिन्न संगठनों की तरफ से विभिन्न धर्मों के बीच संवाद,सद्भाव स्थापित करने के लिए सभा, गोष्ठी, वर्कशाप, प्रदर्शनी, फिल्म शो आदि के आयोजन किए जा रहे हैं। इससे इस्लाम विरोधी माहौल को तोड़ने में मदद मिली है। इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संवाद के लिए शांति का होना पहली शर्त है। घृणा, असहिष्णुता और भय के माहौल में संवाद और सद्भाव स्थापित नहीं हो सकता।

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  1. वर्तमान वैश्विक चुनोतियों का सामना कर रहे वे राष्ट्र जिनके नागरिकों में बहुजातीय .बहुभाषीय बहुधार्मीय धड़े कट्टरता की ओर बढ़ रहे हों उनकी दुश्वारियों को दूर करने में तभी सफलता मिल सकती है जब उनके स्थानिक जातीय धार्मिक भाषाई क्षत्रीय और मिथकीय मतान्तरों का बंध्याकरण निर्ममता से कर दिया जाये .
    पाश्चात्य जगत में और खास तौर से अमेरिकी समाजों को उन जटिलताओं का सामना नहीं करना पड़ा ;जिनका सामना भारत कर रहा है .समाज की अधिकांश श्रम शक्ति अनुत्पादक झंझावातों में तिरोहित हो जाया करती है साम्प्रदायिक शक्ति प्रदर्शन के चलते उत्पादन के संसाधन इस उत्तर आधुनिक स्वातंत्रोत्तर युग में भी पूंजीपति भूस्वामी वर्गों के हाथों में हैं .

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