उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए सभी राजनैतिक दलो ने चुनावी बिगुल फूंक कर अपना चुनावी अभियान पहले से ही शूरू कर दिया है। जबकी सत्ता धारी पार्टी बसपा ने अपने सुप्रीमो के जन्म दिन 15 जनवरी 2012 से चुनावी बिगुल बजायाहै। इसके दो मतलब हो सकते है पहला के मायावती अपने जन्म दिन को खास बनाना व अपने समर्थक के साथ जोड़ने के मायावीय अन्दाज को कभी नही छोड़ सकती और दुसरा कि अपने को धैर्यवान बनाये रख कर यह साबित करना की न तो उन्हे सत्ता खोने का डर सता रहा है और न ही सत्ता पाने का गुमान उनको विचलित कर रहा है। वह एक एसे परिक्षार्थी के भांति खुद को पेश कर रही है जो पाँच साल बाद आने वाले परिक्षा देने के लिये अपनी तैयारी से पूरी तरह सन्तुष्ट है। हाँ हवाओ का नब्ज जानने वाली मायावती हवाओ का रुख भी पहचान रही है।वैसे भी इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव में राजनैतिक दलों का आंकड़ा 150 को पार कर गया है राष्ट्रीय दलों को छोड़कर कुछ ऐसे भी दल हैं जिनका नाम भी आम जनता को पता नहीं।
इस चुनाव में बेहद खास बात यह है की राष्ट्रीय स्तर पर बने दो महत्वपुर्ण गठबंधन एनडीए और यूपीए अपना गठबंधन धर्म निभाती नजर नहीं आएगी बल्कि पार्टियाँ अपने अपने गठबंधन दल के विरोध में ही हल्ला बोल और पोल खोल की राजनीति करते नजर आएँगे।
नए पार्टी में अमर सिंह का राष्ट्रीय लोक मंच डाँ मोहम्मद अयूब का पीस पार्टी पुर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का राष्ट्रीय जन क्रांति पार्टी और अलग से बुंदेलखण्ड की मांग के साथ मैदान में आई बुंदेलखण्ड कांग्रेस की चर्चा गरम है। जीत हार के कारण या किसी खास मुद्दा को लेकर नहीं बल्कि वोटकटवा पार्टी के रुप में क्योंकि ये सब पार्टियां किसी न किसी पार्टी के विरोध में विरोध की राजनीति के साथ मैदान में हैं।
एक नजर बढते राजनैतिक दलों की संख्या पर
2002 – 91 पार्टी
2007 – 112 पार्टी 2012 – 150 से अधिक पार्टी |
उत्तर प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस अपनी अपनी जमीन तलाशने की राजनीति कर रही है और इस जुगत में इस कदर लगे हैं की भाजपा को भ्रष्टाचारी से परहेज नहीं तो कांग्रेस को अपने कार्यकर्ता को नज़रअंदाज़ करने से। ऐसे में अगर देखा जाए तो टक्कर सपा और बसपा के बीच ही होनेवाली है। बसपा यह जताने की कोशिश भी कर रही है कि जादुई आंकड़ा वह पुन: पाने में कामयाब हो सकती है लेकिन अहम सवाल यह है कि आखिर किस आधार पर जनता बसपा को वोट देगी क्योंकि पांच साल पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने का मौका देने वाली जनता को आखिर मिला क्या सिवाय मूर्तियों के और विवादों के और तो और दलितों के मसीहा के सरकार में दलितों का उत्पीड़न भी कम नहीं हुआ। रही बात सपा की तो पिछले पांच साल तक कांग्रेस का साथ निभाने में गंवा दिया और चुनाव आते पैतरा बदल लिया। इन पांच सालों में सपा में कई किरदार आए भी और गए भी जिसकी वजह से सपा की ऐसी स्थिति बन गई है कि उनके समर्थक भी उन पर पूरा भरोसा नहीं कर पा रहें है उस पर से कल्याण मरहम सोने पे सुहागा रहा। अब प्रयास यह हो रहा है पर्दा डालो और जो बचा है उसी के दम पर समर्थकों को या यूँ कहे मतदाताओं को लुभाया जाए। कुल मिला कर कोई भी पार्टी इस हालत में नहीं दिख रही जिसे पूर्ण बहुमत मिल सके क्योंकी जनता का मिजाज़ कुछ बदला बदला सा है और जनता वोट पार्टी को न देकर प्रत्याशी को देने वाली है ऐसे में जो परिणाम आएगा वह यकीनन चौकाने वाला ही होगा।
एक नजर दाग़ी प्रत्याशीयों पर (नेशनल इलेक्शन वाच द्वारा जारी आंकड़े के आधार पर)
पार्टी | उम्मीदवार | आपराधिक रिकार्ड | गंभीर मामले |
बसपा | 403 | 24 | – |
भाजपा | 220 | 26 | 13 |
कांग्रेस | 217 | 26 | 13 |
सपा | 165 | 24 | 12 |
रालोद | 17 | 1 | – |
अब्दुल रशीद जी,आपने विभिन्न पार्टियों के पक्ष या विपक्ष में जो भी कहा,पर आपके द्वारा प्रेषित आंकड़ों को देखने से तो यही जाहिर होता है की सबसे साफ़ सुथरी छवि बसपा के उम्मीदवारों की है.
वैरी गुड.