भोपाल में हिंदी का महाकुंभ

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संदर्भः- दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन,भोपाल

प्रमोद भार्गव

32 साल पहले दिल्ली में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद मध्य-प्रदेश की संस्कारधानी भोपाल में हिंदी का महाकुंभ संपन्न हो रहा है। इस कुंभ के अमृत मंथन में हिंदी को राष्ट्रीय और विश्व भाषा बनाने की दृष्टि से जो अनुसंशाएं,संकल्प के रूप में पारित होंगी,उनके मील का पत्थर सिद्ध होने की उम्मीदें हैं। क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने चिकित्सा,अभियांत्रिकी और तकनीकि विषयों के पाठ्यक्रमों की पढ़ाई को हिंदी माध्यम की सुविधा अटलबिहारी वाजपेयी विश्व विद्यालय खोलकर पहले ही कर दी है। इस संकल्प को असंभव माना जाता रहा है,लेकिन चौहान ने अपनी ढृढं इच्छाशक्ति के चलते संभव कर दिखाया है। ऐसी ही सुषमा स्वराज देश की विदेश मंत्री हैं,जो संसद में प्रांजल व प्रभावशाली हिंदी में तथ्यपरक बात करके अपना लोहा मनवा चुकी हैं। और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं,जो हैं तो गुजराती मूल के लेकिन देश-दुनिया में उसी भाषा हिंदी में वार्तालाप कर रहे हैं,जिस भाषा में जनमत प्राप्त करने के उन्होंने वोट मांगे थे। उनके संयुक्त राष्ट्रसंघ समेत,कई देशों में राजभाषा हिंदी में दिए उद्बोधनों में जो समर्थन मिला,उससे सुनिश्चित हुआ कि विदेशों में हिंदी बोलने व समझने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। षायद इसीलिए हिंदी को साहित्य की परिधि से मुक्त रखते हुए अंतरराष्ट्रीय विषयों से जोड़कर वैश्विक-फलक पर स्थापित करने की अनिवार्य पहल भोपाल में हो रही है।

राज्य सरकार हिंदी के आधिकारिक विद्वानों के आत्मीय-आतिथ्य के लिए जिस तरह से पलक-पांवड़े बिछाकर स्वागत को तत्पर है,उससे लगता है,इस बार हिंदी की विज्ञान सम्मत मान्यता और वैश्विक स्थापना के संकल्पों को गंभीरता से लिया जा रहा है। सम्मेलन के मुख्य विषय ‘हिंदी जगतः विस्तार एवं संभावनाएं‘ के अंतर्गत जो 12 सहायक विषय हैं,उनमें भी यही भाव अंतनिर्हित है। इन विषयों में विदेश नीति,प्रशास्न,न्याय,विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के उपाय शामिल हैं। इन विषयों में पठन-पाठन से जुड़ी समस्याओं के समाधान की दृष्टि से अटलबिहारी वाजपेयी हिंदी विवि,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विवि वर्धा,माखन लाल चतुर्वेद्वी राष्ट्रीय पात्रकरिता संचार विवि माइक्रोसाॅफ्ट,एप्पल,गूगल और सीडेक जैसी वैश्विक संस्थाओं से सहायता ली जा रही हैं। इन शैक्षिक और तकनीकी संस्थाओं में परस्पर सम्नवय बन जाता है तो कोई संदेह नहीं कि हमारे पास जल्दी ही न केवल विज्ञान और तकनीकी की हिंदी में उत्कृष्ट शब्दावली होगी,बल्कि चिकित्सा और अभियांत्रिकी विषयों की पुस्तकें भी सुलभ हो जाएंगी। जब पुस्तकें सुलभ हो जाएंगी तो हिंदी विश्व विद्यालयों से हिंदी माध्यम से पढ़े दक्ष चिकित्सक और अभियंता भी निकलने लग जाएंगे। लेकिन इस हेतु शास्कों को दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा।

इस संकल्प की प्रेरणा हम तुर्की और इजराइल जैसे छोटे देशों से ले सकते हैं। इजराइल का क्षेत्रफल छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले के लगभग है और जनसंख्या एक करोड़ से भी कम है। इजराइल की मातृभाषा ‘हिब्रू‘ है। जिसे  अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषा वैज्ञानिकों ने भाषाओं की मृत सूची में डाल दिया था। 1948 में जब इजराइल स्वतंत्र हुआ तो उसने तुर्की की तरह ही अपनी भाषा हिब्रू में शिक्षा और शास्न-प्रशास्न से जुड़ी गतिविधियों को अंजाम तक पहुंचाने का निर्णय लिया। आज यहां सभी शैक्षिक,प्रशास्निक,वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों के लक्ष्य हिब्रू में गरिमा के साथ प्राप्त कर लिए हैं। यहां विज्ञान और तकनीक से जुड़े श्रेष्ठम आविष्कारों की शब्दावली हिब्रू में है। विश्व-शक्ति के रूप में स्थापित हो जाने वाले देश रूस,जापान,और चीन भी मातृभाषा के बूते आगे बढ़े हैं। इन देशों के अधिकांश शिक्षाशास्त्री और वैज्ञानिक कतई अंग्रेजी नहीं जानते,तत्पश्चात भी इनकी उपलब्धियां पाश्चात्य देशों के लिए चुनौतियां बनी हुई हैं। इनके कार्य और आविष्कार नोबेल पुरस्कार के स्तर के हैं।

इस लेखक के मित्र और अस्थि रोग विशेषज्ञ डाॅ अर्जुनलाल शर्मा बताते हैं कि उन्हें 2012 में दिल्ली में एक चिकित्सक सम्मेलन में भागीदारी का अवसर मिला था। इसका आयोजन ‘भारतीय अस्थि रोग संगठन‘ ने किया था। इसमें ‘इलिजारोव‘ चिकित्सा पद्धति व उपकरण के रूसी आविष्कारक डाॅ इलिजारोव आए थे। वे तनिक भी अंग्रेजी नहीं जानते थे। इसलिए उन्होंने अपना पूरा उद्बोधन अपनी मातृभाषा रसियन में दिया। जिसका अनुवाद दुभाषिया अंग्रेजी में करता रहा। इलिजारोव उपकरण से टूटी,कुचली और ओछी होती जा रही हड्डियों का उपचार किया जाता है। यह उदाहरण यहां इसलिए देना जरूरी था,क्योंकि भाषाई औपनिवेशिक परतंत्रता हमें स्वतंत्रता के 68 साल बाद भी बौना बनाए रखने का काम कर रही है। इस भाषाई बौनेपन से मुक्ति के उपाय के संकल्प भोपाल के विहिंस में लिए जा सकते हैं।

भाषा मनुष्य की अस्मिता में आत्मसात रहती है। भाषाई अस्मिता ही व्यक्ति के सामाजिक सांस्कृतिक और नैतिक पक्ष को मजबूत बनाए रखने का काम करती है। मैकाले द्वारा लादी गई शिक्षा ने हमारी तीनों पक्षों में मट्ठा घोलकर कमजोर बनाने का काम किया है। परिणामस्वरूप हमारी प्रतिभा कुंद हुई है। यही कारण है कि परतंत्र भारत में उपलब्ध सीमित साधनों के बावजूद हमारे यहां जगदीष चंद्र बसु,चंद्रषेखर वेंकटरमन जैसे वैज्ञानिक,रामानुस जैसे गणितज्ञ,रविन्द्रनाथ टैगोर व प्रेमचंद्र जैसे साहित्यकार,डाॅ राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक और महात्मा गांधी जैसे चिंतक दिए,लेकिन स्वतंत्र भारत में हम इस कोटि के बौद्धिक नहीं दे पाए ? क्योंकि हम अपनी मातृ भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने से दूरी बनाते चले गए। एक श्रेष्ठ व अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक के रूप में हमें डाॅ अब्दुल कलाम आजाद मिले भी तो इसलिए,क्योंकि उनकी प्राथमिक,माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा मातृभाषा में हुई थी। यदि अंग्रेजी शिक्षा और शिक्षा के निजीकरण से देश की उन्नति संभव हुई होती तो क्या कारण है कि अंग्रेजी शिक्षा का जंजाल पूरे देश में फैल चुकने के पश्चात् भी हमारे यहां एक भी विवि ऐसा नहीं हैं,जिसे दुनिया के श्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों में गिना जा सके ? दरअसल अंग्रेजी शिक्षा का पक्ष एकांगी है। इसका लक्ष्य केवल आर्थिक उपलब्धियों की संकीर्ण सोच से जुड़ा है। इस कारण हमारी बहु-विषयक तथा बहु-आयामी उपलब्धियां प्रभावित हो रही हैं। गोयाकि,जिस तरह से मोदी,सुषमा और शिवराज की त्रयी ने हिंदी के माध्यम से विश्व में भारत का प्रभाव बढ़ाने के उपक्रम किए हैं,उससे लगता है,इस सम्मेलन में देश की सभी मातृभाषाओं में शिक्षा दिलाने का कोई ऐसा संकल्प पारित हो सकता है,जो भाषाई शिक्षा का मार्ग प्रशस्त करेगा।

Hindi-meet-in-Bhopalवैश्विक-पटल पर हिंदी की माहिमा को स्थापित करने का जो अभियान प्रधानमंत्री ने चलाया हुआ है,उसमें यह भाव अंतर्निहित है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने की राह आसान हो रही है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी इस संकल्प को राष्ट्रसंघ की महासभा से पारित कराने के प्रति दृढं संकल्पित हैं। संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में अब तक छह भाषाएं शामिल हैं,अंग्रेजी,रूसी,फ्रांसीसी,स्पेनिश,मंदारिन ;चीनीद्ध और अरबी। इनमें से चार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के स्थायी देशों की भाषाएं हैं। अरबी और स्पेनिश नहीं हैं। किसी भी भाषा को राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने की दृष्टि से तीन पहलू अहम् हैं। उसके बोलने वालों की संख्या,उसकी प्रशास्निक क्षमताएं और जिस देश की भाषा है,उसकी वित्तीय क्षमता। एनकार्टा विश्व ज्ञान-कोष के अनुसार हिंदी मंदारिन के बाद सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। मंदारिन 83.60 करोड़ लोग बोलते हैं,जबकि 33.30 करोड़। हिंदी के साथ एक और विलक्षण्ता है कि हिंदी जितने राष्ट्रों में बोली जाती है,उतनी संयुक्त राष्ट्र की पहली चार भाषाएं अंग्रेजी,रूसी,फ्रांसीसी और चीनी नहीं बोली जातीं। हिंदी भारत के अलावा नेपाल,माॅरीशस,फिजी,सूरीनाम,गुयाना,त्रिनिनाद,टुबेगो,सिंगापुर,भूटान,इंडोनेशिया,बाली,सुमात्रा,बांग्लादेश और पाकिस्तान में बोली जाती है। इस समय बिट्रेन,अमेरिका,कनाडा,आस्ट्रेलिया और कैलिफोर्निया में भी भारतीयों की बढ़ती संख्या ने हिंदी का परचम फहराया हुआ है। तय है,हिदी में ग्राहय क्षमता के चलते वैसे तो वैश्विक दर्जा प्राप्त कर लिया है,लेकिन इसे राष्ट्रसंघ की भाषा का दर्जा प्राप्त हो जाता है तो हिंदी अंग्रेजी के बाद विश्व की दूसरी बड़ी आधिकारिक भाषा बन जाएगी।

देश के सभी हिंदी प्रदेशों में हिंदी ही प्रशासन की भाषा है और हिंदी के पास साढ़े सात लाख शब्दों का विपुल भंडार है। इसलिए हिंदी में प्रशासनिक सामर्थ्य भरपूर है। वित्तीय समस्या हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाए जाने के परिप्रेक्ष्य आड़े नहीं आ रही ,क्योंकि जब कोई भाषा राष्ट्रसंघ की भाषा बन जाती है तो इस व्यय को संघ के सभी सदस्य देश वहन करते हैं। दरअसल किसी भी भाषा को संघ की भाषा बनाने के लिए संघ के सदस्य देशों में से दो तिहाई देश,यानी 129 देशों के समर्थन की जरूरत होती है। इस समर्थन को प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि हाल ही में हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘योग दिवस‘मनाने के लिए 177 देशों का समर्थन मोदी के आवाहन पर मिल गया था। तय है,नरेंद्र मोदी यदि भोपाल विहिंस के मंच से हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बना देने का संकल्प लेते हैं तो हिंदी को यह गौरव हासिल करने में ज्यादा समय लगने वाला नहीं है ?

 

प्रमोद भार्गव

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