क्या कायम रहेगी हाथी की हनक

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डॉ0 आशीष वशिष्ठ 

यूपी विधानसभा चुनावों का अघोषित शंखनाद हो चुका है। सभी दलों के खेमों में हलचल और गहमागामी का माहौल है। सत्तासीन बसपा चुनावी तैयारियों की दौड़ में बसपा सबसे आगे दिखाई दे रही है, वहीं दूसरे दल भी चुनावी तैयारियों को अंतिम स्पर्श देने में व्यस्त हैं। सपा, कांग्रेस, भाजपा, पीस पार्टी, अपना दल और बाकी दल बसपा को सत्ता से बाहर करने के लिये दिन-रात एक किये हुये हैं। राहुल, अखिलेश आदि युवा नेताओं के साथ सीनियर नेता भी चुनावी समर में पसीना बहा रहे हैं। केन्द्र सरकार और तमाम दलों के आरोपों-प्रत्यारोपों से बेपरवाह बसपा सुप्रीमो मायावती आगामी चुनाव में बसपा की जीत को लेकर आश्‍वस्त दिखाई देती हैं। मायावती का अपनी जीत को किस कारण आश्‍वस्त है ये रहस्य तो खुद मायावती को ही पता होगा लेकिन पिछले साढे चार साल के कार्यकाल में भ्रष्टाचार ने सारे रिकार्ड तोड़े। विकास के नाम पर सरकारी खजाने को दोनों हाथों से लूटने में जिम्मेदार ओहदों पर बैठे महानुभावों ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

माया की चिर परिचित छवि इस कार्यकाल में बदल या धूमिल सी हो गयी है। जिस मायावती का नाम सुनकर किसी जमाने में नौकरशाही राइट टाइम हो जाती थी और अपराधी यूपी छोड़ना बेहतर समझते थे, आज उसी मायावती के राज में सरकारी अधिकारी और कर्मचारी बेलगाम और बेपरवाह हैं और अपराधियों के हौंसले बुलंद हैं। ऐसा लग रहा है कि माफियाओं, ठेकेदारों और व्यवासायियों ने सरकार को हाईजैक कर रखा है। बसपा सरकार के दर्जनों मंत्री और नेता आपराधिक और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। सूबे में विकास कार्य ठप्प हैं, किसान, मजदूर, दलित, महिलाएं, छात्र परेशान और बदहाल हैं। भ्रष्टाचार सिर चढ़कर बोल रहा है। ऐसे में अहम् सवाल यह उभरता है कि आखिरकर सूबे की जनता बसपा को वोट क्यों दें। क्या इसलिए कि मायावती के समक्ष कोई मजबूत विकल्प या दावेदार खड़ा दिखाई नहीं दे रहा है या फिर सिर्फ इसलिए कि उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग को मजबूती का झंडा हाथ में थाम रखा है। या इसलिए कि उन्होंने दलितों के उचित मान-सम्मान के लिये दलित महापुरूषों के नाम से पार्क, संस्थान और स्मारक बनवाये और मूर्तियां लगवायी हैं।

या फिर इसलिए कि उन्होंने जीते जी दलित महानुभावों की कतार में अपनी आदमकद मूर्तियां लगवाकर दलित समाज के सम्मान और गौरव को बढ़ाया है। या इसलिए कि मायावती ने सरकारी चीने मिले अपने चेहतों को औद्योगिक विकास के नाम पर मूंगफली के भाव बेच दी हैं या फिर सोनभद्र से नोएडा तक की जमीने जेपी ग्रुप को देकर उन्होंने समाज का भला करने में कड़ी मेहनत की है। या फिर इसलिए कि उन्होंने प्रदेश के किसानों की अनमोल जमीने कौड़ियों के भाव बिल्डरों, ठेकेदारों को बेचकर नेक कार्य किया है या फिर इसलिए कि किसानों की खेती वाली जमीन पर फार्मूला वन रेस ट्रेक बनाकर प्रदेश की जनता पर महान उपकार किया है। या फिर इसलिए कि मायावती ने काम निकल जाने पर अपराधी छवि के नेताओं और मंत्रियों को देश और समाज हित में अपनी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। कोई न कोई कारण तो ऐसा होगा ही जिससे मायावती अपनी जीत को लेकर आश्‍वस्त दिखाई दे रही जबकि जमीनी हकीकत कुछ अलग ही कहानी बयां कर रही है।

जिस सोशल इंजीनियरिंग के जिस फार्मूले की दुहाई माया और उनके पार्टीजन घूम-घूमकर देते हैं उस दलित-ब्राहम्ण गठजोड़ के लिये मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनावों में कोई खास मेहनत नहीं की थी। गद्दी पर बैठने के बाद भी मायावती ने इस गठजोड़ को मजबूत करने का कोई खास यत्न नहीं किया। बल्कि लगभर हर दूसरे दल की भांति बसपा की राजनीतिक षेल्फ पर हर जाति, कौम और बिरादरी के नेताओं के सजावटी चेहरे सजे हुये हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनना महज एक संयोग या चमत्कार ही था। राजनीति की पुरानी और मंझी हुयी खिलाड़ी मायावती को इस बात का बखूबी इल्म भी है कि बसपा को पूर्ण बहुमत मिलना बिल्ली के हाथों छींका टूटना ही था। लंबे समय से प्रदेश में चल रही राजनीतिक उठापटक और गठबंधन सरकारों की खींचतान से उपजे वातावरण का लाभ सीधे तौर पर बसपा को मिला। ब्राहम्ण नेतृत्व प्रदेश में पिछले काफी समय से राजनीतिक हाशिये पर ही था। राजनीतिक उपेक्षा के शिकार ब्राहम्णों को चंद महत्वपूर्ण पद देकर मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का ढोल जोर जोर से बजाया। सतीश चंद्र मिश्र, उनके परिवारीजनों और चंद चम्मचों को महत्वपूर्ण ओहदों पर बिठाने के अतिरिक्त माया ने ब्राहम्णों की भलाई और कल्याण के लिये कुछ खास नहीं किया। बसपा में ब्राहम्ण नेतृत्व के प्रमुख चेहरे सतीश चंद्र मिश्र पिछले काफी समय से राजनीतिक बनवास भोग रहे हैं। सोशल इंजीनियरिंग का ढोल पीटना माया की राजनीतिक मजबूरी है ना कि पसंदगी। सच्चाई यह है कि मायावती वोट बैंक की राजनीति के चलते ब्राहम्णों को अपने साथ खड़ा करती है।

माया सरकार ने अब तक जो कुछ भी किया है उसे प्रदेश की जनता बखूबी जानती, समझती है। राजनीतिक खींचतान और एक-दूसरे पर प्रत्यारोप के अलावा प्रदेश में कुछ खास नहीं हुआ। बसपा सरकार के कई मंत्री, विधायक और नेता आपराधिक, धोखाधड़ी और जालसाजी के मामलों में फंसे हुये हैं। भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के चलते कई मंत्रियों को अपने पद से हटना पड़ा। कई विधायकों और दागी नेताओं को स्वयं बसपा सुप्रीमों ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने में ही भलाई समझी। लेकिन चार साल तक खुद मायावती दागी मंत्रियों और नेताओं के गुनाहों पर पर्दा डाले रही लेकिन चुनाव की दस्तक सुनाई देते ही मायावती बसपा के दामन पर लगे दागों को धोने और डैमेज कंट्रोल में दिन-रात एक कर रही है।

हर नेता की भांति मायावती अपनी पार्टी पर लगे आरोपों और दाग-धब्बों को राजनीति से प्रेरित बताती है, और सारे किये धरे और निकम्मेपन का ठीकरा केंद्र सरकार के मत्थे फोड़ती है। दरअसल मायावती ने विकास की मंथर गति के लिये सीधे तौर पर केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराने का बढिया और सरल बहाना ढूंढ रखा है। लेकिन यह बात दीगर है कि आर्थिक साधनों का रोना रोने वाली मायावती ने दलित महापुरूषों के नाम से बने स्मारकों, पार्कों, चौराहों और मूर्तियों के लिए कभी पैसे की कमी नहीं होने दी और दोनों हाथों से सरकारी खजाने को अपने सपने पूरे करने में लुटाया। किसानों की बदहाली, पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था, लड़खड़ाती औधोगिक नीति, दलितों, वंचितों और महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, भू- अधिग्रहण का दिनों-दिन बढ़ता विरोध, चौपट शिक्षा व्यवस्था, बदहाल स्वास्थ्य नीति, मजबूत और हमलावर होते नक्सली, राज्य में फैलता आंतकी नेटवर्क प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र के ही मामले और मसले हैं। लेकिन माया ने हर मसले और मुद्दे के लिये सिर्फ केंद्र सरकार को ही दोषी ठहराया। माया ने अपने वोट बैंक और पार्टी की नीतियों के मद्देनजर जरूरत और हिसाब के अनुसार विकास कार्य करवाये न कि सूबे की जरूरत और जनता की सहूलियत के हिसाब से।

यूपी विधानसभा के चुनाव दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं, अपनी सरकार पर लगे भ्रष्टाचार और अनैतिकता से घबराई मायावती प्रदेश की जनता का मुख्य मुद्दे से गुमराह और ध्यान भटकाने के लिये चुनावी तरकश से चुन-चुनकर तीर लगाने शुरू कर दिये हैं। मुस्लिम समुदाय, गरीब स्वर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण और जाट समुदाय को केन्द्र सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित करने की और अनुसूचित जाति-जनजाति का आरक्षण कोटा बढ़ाने की वकालत केंद्र सरकार से मायवती ने की है। वहीं प्रदेश को तीन हिस्‍सों में बांटने की चिंगारी भी उन्होंने दुबारा सुलगाई दी है। गौरतलब है कि पिछले साढे चार साल में मायावती को जन और प्रदेश हित से जुड़े इन मुद्दों की याद नहीं आयी।

बसपा सरकार ने भ्रष्टाचार की सारी हदें पार कर दी हैं। प्रदेश में अपराध का ग्राफ बढ़ा है। वहीं अन्ना, रामदेव के आंदोलन से ऊपजी जागृति भी मायावती के लिये सिरदर्द बनी हुयी है। इसलिये मायावती भ्रष्टाचार जैसे तमाम मुद्दों से जनता का ध्यान बंटाकर चुनावी वैतरणी पार करने की तैयारी में है। असल में मायावती के पास गिनाने को ऐसे दस बिंदु और कारण नहीं है कि जिससे प्रदेश की जनता उन्हें दुबारा मुख्यमंत्री की गद्दी पर बिठाये। लोकतंत्र में असली निर्णय तो जनता को ही करना है और यह देखना दिलचस्प होगा कि अन्ना और रामदेव के आंदोलनों से हिली, जगी और समझदार हुयी जनता भ्रष्टाचारियों और अपराधियों के कर्मों का हिसाब कैसे करेगी।

3 COMMENTS

  1. यु.पि.के युवा मुंबई में भीख मांगता है तो कांग्रेस की सरकार केंद्र में बैठकर क्या कर रही है….और भ्रष्ट कांग्रेस को …और भ्रष्ट नेताओ को जनता के सारे दुःख दर्द चुनाव के वक्त ही क्यों दिखाई देने लगते है……और केंद्र सरकार ने मायावती की भ्रष्ट सरकार को बर्खास्त क्यों नहीं किया,,,,,,यह इस बात का सबूत है की चोर,,,चोर… मौसरे भाई …….नेता मतलब चोर बेईमान भ्रष्ट…..पांच साल से राहुल गाजी दूध पीकर सो रहा था ,,,या स्विस बैंक का माल रफा …दफा करने में लगा था…..

  2. वास्तव में पिछले विधान सभा चुनाव में बसपा की सर्कार बनना एक आश्चर्य था. जिसके लिए जिस व्यक्ति को श्री दिया जा सकता था उसे मायावती ने चुनावों के फ़ौरन बाद धन्यवाद दिया. वो थे मुख्या चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी, जिन्होंने अपने सख्त क़दमों से ऐसा माहौल बनाया जिसके कारन अधिकतर मतदाता चुनाव में वोट नहीं डाल पाए जबकि मायावती का कमिटेड वोटर अपने वोट डालने में सफल रहे. इसके अलावा उन चुनावों में केंद्रीय सुरक्षा बलों ने भी बहुत सख्ती की जिसके कारन अनेकों मतदाता चुनाव बूथ से वापस लौट गए बिना वोट डाले ही. सी आर पी ऍफ़ का एक उदहारण मेरा स्वयं का अनुभव है.मैं उस चुनाव में एक विधान सभा छेत्र में जोनल मजिस्ट्रेट था. तथा मेरे साथ काफी बड़ा पुलिस बल चल रहा था. चुनाव योग के निर्देशानुसार राज्य पुलिस मतदान केंद्र के १०० गज के दायरे में नहीं जा सकती थी. मेरी गाड़ी व उसके साथ चल रही अन्य गाड़ियाँ व पुलिस बल मतदान केंद्र से बहार कुछ दूरी पर रुक गया. मैं निरिक्षण के लिए मतदान केंद्र पर एक अर्दली के साथ गया तो वहां मौजूद सी आर पी ऍफ़ ने मुझे भी अन्दर जाने से रोक दिया जबकि उन्होंने मुझे सरकारी वाहन से उतारते हुए देख लिया था.सामान्य मतदाता के साथ उनका व्यव्हार अपमानजनक था. लेकिन मायावती जी का कोर वोट बेंक इस बात की परवाह किये बिना अपना वोट शुरू में ही डाल गए. २००९ में लोकसभा चुनाव में बसपा को अपेक्षित सफलता न मिलने के पीछे भी यही कारन था की तब तक सामान्य मतदाता अपने को बदले माहौल में ढाल चूका था. हाल में जिन राज्यों में चुनाव हुए वाहन मतदान का प्रतिशत अस्सी से ज्यादा रहा है. यदि उत्तर प्रदेश का अभिजात्य मतदाता अपनी उदासीनता छोड़कर मतदान को पहुँच गया तो परिणाम विस्मयकारी हो सकते हैं. इसके अलावा मुस्लिम मतदाताओं का रुझान पीस पार्टी की और हो रहा है और यदि ऐसा हुआ तो सभी सेकुलर दलों के ख्वाबों पर पानी फिर जायेगा.

  3. अपने बहुत अच्छा लिखा है, हार्दिक बढ़ाई, मगर सवाल लाख टेक का ये है के जनता धर्म जाती और लालच के दायरे से बहार तो आयेगी या नहीं? फ़िलहाल बस्प के इतने वोट ज़रूर कम हो जायेंगे के वो अपने बल पर सर्कार नहीं बना पायेगी. प्रश्न फिर वाही आ जाता है के बसपा नहीं तो सपा बीजेपी और कांग्रेस कौन सी पार्टी खरी है? एक सांपनाथ तो दूसरा नागनाथ. हाँ इतना ज़रूर है के शायगडी इसी बदलाव से कोइ रास्ता निकले. इकबाल हिन्दुस्तानी, संपादक, पब्लिक ऑब्ज़र्वर नजीबाबाद.

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