क्या केवल संघ परिवार ही आर्य आक्रमण को नकारता है ?- सुरेन्द्र सिंह बिष्ट

      समाचार पत्रों में कुछ दिन पूर्व एक अच्छा समाचार छपा था – भारत के इतिहास में से ” आर्य आक्रमण ” को हटाया जायेगा .पर समाचार को इस तरह पेश किया गया था मानो  केवल संघ परिवार ही ऐसा चाहता है . पर क्या यह बात सत्य है ? क्या संघ के अलावा  और कोई नहीं है जो अंग्रेजों द्वारा ” फूट डालो और राज करो ” की कूटनीति के तहत भारत के इतिहास में घुसाये गए ‘आर्य आक्रमण ‘ को नकारता  है ?

    अंग्रेजों की कुटिलता का अंग – आर्य आक्रमण

   भारत में वर्षों तक ईस्ट इंडिया कंपनी में कार्यरत रहे मुंबई प्रान्त के गवर्नर रहे एल्फिन्स्टन ने १८ ४ १ में प्रकाशित पुस्तक ‘ हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ मे लिखा था -” न तो मनुस्मृति में और न वेदों में , न ऐसी पुस्तक में जो मनुस्मृति से पुरानी  है,  कोई ऐसा प्रसंग आया है कि आर्य भारत के बाहर  किसी अन्य देश के निवासी थे .”

       पर भारत में १८५७ की क्रांति असफल हुयी. उसके पश्चात् देश में अंग्रेजों की कूटिल चालें  बढ़ गयी . भारत को बौद्धिक और मानसिक गुलामी में जकड़ने के दुष्चक्र प्रारम्भ हो गये . १८५५ में मैकाले के निमंत्रण पर , मैक्स मूलर  के स्वयं के पत्र के अनुसार ,आर्थिक खुशहाली के लिए वह ऑक्सफ़ोर्ड पहुँच चूका था . अब वह भी भारतीयों की आस्था को डिगाने  के काम  मे जुट गया . तब तक निष्पक्ष यूरोपीय विद्वान् संस्कृत को लैटिन , ग्रीक आदि सभी भाषाओं  की जननी कहने लगे थे . मैक्स मूलर  ने नयी बात सामने रखी – संस्कृत और लैटिन ,ग्रीक आदि भाषायें बहने हैं और इन भाषाओं  की जननी प्राचीन भाषा थी जिसे उसने आर्य भाषा कहा. आगे रायल एशियाटिक सोसाइटी की अप्रैल १८६६ को हुयी एक बैठक में पहली बार भारत पर आर्य आक्रमण का प्रस्ताव पारित हुआ .उसमें  रखा गया कि  मध्य एशिया से होते हुए आर्य हिन्दुकुश और ईरान होते हुए भारत पहुंचे . यहाँ के मूलनिवासियो को दक्षिण में खदेड़ते हुए उत्तर में बस गये. आगे एक बात और रखी  गयी कि  आर्यों की एक धारा  जैसे भारत की तरफ गयी वैसे ही एक धारा  युरोप की तरफ भी गयी .१९३० से आगे जब हड़प्पा और मोहनजोद्दड़ो  की खुदाई में प्राचीन विकसित  सभ्यता के दर्शन हुए तो उसे उन्होने आर्य आक्रमण में समाप्त हुयी द्रविड़ सभ्यता का नाम दे दिया .

वाद के साथ ही भारत का प्रतिवाद:-

अंग्रेजों ने जैसे ही इस आविष्कार  को भारतीयों के गले उतारने  का प्रयत्न प्रारंभ किया वैसे ही उसका प्रतिवाद भी प्रारंभ हो गया . आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने १८७५  मे प्रकाशित अपने ग्रन्थ ‘ सत्यार्थ  प्रकाश ‘ में उसका जोरदार विरोध किया है . वे लिखते हैं , ” किसी संस्कृत ग्रन्थ में नहीं लिखा है कि आर्य लोग ईरान आदि से आये और यहाँ के जंगलियों  से लड़कर जय पाके  , उन्हें निकाल  के इस देश के राजा  हुये .पुन: विदेशियों का लेख कैसे माननीय हो सकता है ?” महर्षि इतना लिखकर ही नहीं रुके बल्कि हमारी सनातन परंपरा को भी लिख दिए ,” मनुष्यों की आदिसृष्टि तिब्बत में हुयी और आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल  पश्चात तिब्बत से सूधे इसी देश ( भारत ) में आकर बसे. इसके पूर्व इस देश का कोई नाम नहीं था और न कोई आर्यों  से पूर्व इस देश में बसते थे .”
इसके लगभग दो दशक बाद स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में हुंकार  भरी . वे कहते हैं ,” आपके ये यूरोपीय पंडित क्या कहते हैं कि आर्य किसी विदेशी भूमि से पसरते हुए भारत आये  और यहाँ के मूलनिवासियों  की भूमि छीन कर और उनका नरसंहार करके यहाँ बस गये, यह सब मूर्खता पूर्ण बातें हैं . य़ह अजीब बात है कि भारत के तथाकथित विद्वान् भी उनकी हां  मे हां  मिला रहे हैं . और ये सारे आसुरी झूठ हमारे बच्चों  को पढाया जा रहा है .”  फिर स्वामी विवेकानंद की इस गर्जना के लगभग दो दशक बाद योगी अरविन्द के रूप में भारत ने अपने को अभिव्यक्त किया .  ‘ भारत का पुनर्जन्म’ नामक  पुस्तक में वे लिखते हैं -” एक समय अवश्य ऐसा आयेगा जब भारतीय मानस उस पर थोपे गए अंधकार को झटक कर दूर करेगा और दुसरे या तीसरे दर्जे के विचारों को त्याग कर अपने बौद्धिक  अधिकारों का संप्रयोग करेगा और पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने प्राचीन ग्रंथो का भावार्थ व्यक्त  करेगा  .तब अनेक स्थापित दार्शनिक मिथक टूटेंगे और किवदंती बन चुके झूठ धराशायी होंगे , जैसे कि , भारत पर उत्तर से आर्यों का आक्रमण , आर्य – द्रविड़ का भेद , जिन सारे दोष पूर्ण विचारों ने अफगान से लेकर समुद्र पर्यन्त फैले विशाल भारत की एकता में शूल बो रखे हैं .”
गुलामी के आखरी कालखंड में फिर एक महापुरुष ने अंग्रेजों द्वारा थोपे गए आर्य आक्रमण की चीरफाड़ की .  १९४६  मे प्रकाशित पुस्तक ‘ शुद्र कौन थे ‘ में डा . आम्बेडकर ने आर्य आक्रमण की विस्तार से समीक्षा की है . उन्होंने इस वाद को अंग्रजों का अविष्कार कहा है और वैज्ञानिक अन्वेषण की कुचेष्टा करार दिया . सम्पूर्ण समीक्षा के पश्चात् डा . आम्बेडकर ने निम्न सार सामने रखा है-
१. वेदो में आर्य नाम की किसी नस्ल का उल्लेख नहीं है .
२. वेदों में कोई सबूत  नहीं है कि आर्यों ने बाहर  से भारत पर आक्रमण किया और दास  या दस्यु को पराजित किया.
३. वेदों में इसका कोई प्रमाण नहीं है कि आर्य , दास और दस्यु भिन्न नस्ल के थे .
४. आर्यों और दासों  के रंग में भेद को सिद्ध करने वाला कोई वचन वेदों में नहीं है .

          ऊपर जिन महापुरुषों के वचन दिए हैं , उनका संघ परिवार से दूर तक कोई नाता नहीं था . संघ की स्थापना के पहले ही महर्षि दयानंद , स्वामी विवेकानंद  और योगी अरविन्द अपनी बात रख चुके थे . उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज, रामकृष्ण मिशन और अरविन्दाश्रम को भी कोई संघ परिवार में शामिल नहीं कर सकता। और जब डा . आंबेडकर जी ने पुस्तक लिखी थी तब संघ अपने यौवनावस्था में प्रवेश कर रहा था और उसे आजादी के लिए गठित सैनिक संगठन से सांस्कृतिक संगठन में बदला जाना प्रारंभ ही हुआ था .

आजादी के बाद भी भूल सुधार नहीं –

     स्वामी विवेकानंद ने भारतीय बच्चों को पढाया जाना जिसे आसुरी  बात कहा था और योगी अरविन्द ने भारत पर थोपे गए जिस असत्य को भविष्य में दूर करने की आशा व्यक्त की थी , दुर्भाग्य से देश की आजादी के बाद भी वे बातें इतिहास की पुस्तकों में वैसी ही रह गयी . ऐसा भी नहीं है कि  उस  कालिख को दुर करने का प्रयत्न ख़त्म हो गया हो . देश विदेश के अनेक विद्वानों ने नयी नयी बातें सामने लाकर आर्य आक्रमण के वाद के कालपनिक होने को परिपुष्ट किया है .हड़प्पा और मोहनजोद्दड़ो  में पाए गए अवशेषों के आधार पर वे वैदिक संस्कृति के खंडहर  सिद्ध हो चुके हैं. आधुनिक जिनोम विज्ञान के आधार पर यह बात सिद्ध हो चुकी है कि  भारत  के सभी निवासी एक ही नस्ल के हैं और उनमे जो भेद है वह २० हजार वर्षो से अधिक पुराना है , जिससे १५०० ईसा पूर्व में भारत पर आर्य आक्रमण की बात ध्वस्त हो जाती है .यूरोप में जर्मनी के सर्वश्रेष्ठ आर्य होने के मद में हिटलर ने जो तांडव मचाया उसके बाद यूरोप की इतिहास की पुस्तकों में से आर्य धारा  सूख गयी  . इन सब के बावजूद अब भी भारत की पुस्तकों में आर्य आक्रमण बना हुआ है  क्योंकि देश का शासक वर्ग अब तक काले अंग्रेज की श्रेणी के ही रहे . कोई भारत के नजरिये से भारत के भूत, वर्तमान को देखने के बाद भविष्य को संवारने की बात अब तक नहीं हुयी ।इस कारण भारत के आत्मसम्मान को खंडित करने वाली और मानस  को कलुषित करने वाली बातें वैसे ही इतिहास की पुस्तकों में बनी हुयी हैं .

राष्ट्रवादी शक्तियां के संगठित प्रयास से सफलता-

अब यह शुभ वार्ता आयी है कि केंद्र सरकार ने दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग को आर्य आक्रमण के प्रतिवाद का दायित्व दिया है। पर एक समाचार पत्र में जिस तरह से इस सही पहल को संघ परिवार तक सीमित किया गया है ,वह  उस सद्प्रयास की भूर्ण हत्या कर सकता है . लोकतन्त्र में सरकार सही बात को भी तभी स्वीकारती है जब उसके विरोध में कोई जनदबाव न हो या उसके समर्थन में जनदबाव हो . गत वर्षो में भारत में राष्ट्रवादी शक्तियों का विस्तार हुआ है . भारत की सांस्कृतिक विरासत को सम्मान देने वाली ताकतें भी मजबूत हुयी हैं . अब पुराने संगठनो – आर्यसमाज,   रामकृष्ण मिशन , अरविन्द आश्रम  आदि के साथ ही गायत्री परिवार , भारत स्वाभिमान , राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन , आर्ट ऑफ़ लिविंग , इस्कोन  जैसे बहुत से नए संगठनों  का उदय और विस्तार हुआ है . आदि शंकराचार्य द्वारा गठित शंकर पीठों के आलावा अन्य आचार्यो के गठित अन्य पीठ भी मौजूद हैं ही .  ये सभी संगठन मन बना लें तो इस बार देश के इतिहास की पुस्तको से ‘ आर्य आक्रमण ‘ के कलंक को मिटाने  मे सफलता मिलना तय है .

सुरेन्द्र सिंह बिष्ट

2 COMMENTS

  1. स्वामी दयानंद,स्वामी विवेकानंद ,श्री अरविंद ने कुछ भी कहा हो ,कुछ भी लिखा हो हमारे देश के वामपंथिबंधु और छदम धर्म निरपेक्ष महान विचारक उन्हें मान ने को तैयार नहीं होंगे. वे यह रट लगाएंगे की इतिहास का भगवाकरण हो रहा है. अब समय आ गया है की अंग्रेज शासकों ने जो कुछ भी लिखवाया उसकी विवेचना और विश्लेषण हो. यदि अंतर राष्ट्रीय विद्वानों और वैज्ञानिक कसौटियों पर ये तथ्य सही साबित होते हैं तो ये मानवतावादी ,अमनचैन के हामी ,सर्वहारा वर्ग का भला चाहने वाले भी कम से कम संतुष्ट तो हो जाएंगे. और यह कार्य एक वर्ष दो वर्ष में नहीं ,पर्याप्त समय में होना चाहिए.

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