‘क्या खोया क्या पाया’ – एक समीक्षा

लेखक : विपिन किशोर सिन्‍हा

प्रवक्‍ता ब्‍यूरो

सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विषयों पर हिन्दी साहित्य में बड़ी संख्या में कई उपन्यास लिखे गए किन्तु विपिन किशोर सिन्हा का अद्यतन उपन्यास ‘क्या खोया क्या पाया’ कई मायनों में उन कथाओं से हटकर है क्योंकि इसमें न केवल कथासार है, सामाजिक विद्रूपताओं का जिक्र है, वैज्ञानिक ताना-बाना और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है अपितु एक सहज व्यंग्य की औपन्यासिक शैली में एक सार्थक सोच और वैचारिक मंथन निहित है जिसके सैद्धान्तिक सूत्र हमारे आपके जीवन के अति निकट तो है ही, राष्ट्रीय चिन्तन और राष्ट्र निर्माण की भूमिका में भी क्रान्तिकारी भूमिका निभाने में सक्षम है। यह उपन्यास उस संक्रमण संस्कृति की भोगी गई पीड़ा का इतिवृत्त है जिसने हमारी आस्थापूर्ण पुरानी परंपराओं, जीवन शैली, भाईचारे, गावों के प्रशान्त वातावरण, निर्द्वन्द्व सामाजिक परिवेश, सौहार्द्र एवं निश्छल व्यवहार का बदलाव करके जीवन के हर पक्ष में विकास के नाम पर आज के समाज को विसंगत परिस्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है और वह अपरिहार्य कारणों से रचनाकार को ग्राह्य नहीं है। उपन्यास के पात्रगण – बंगाली मिसिर, कान्ता आदि आज के लिए ज्वलन्त प्रश्न के रूप में उपस्थित किए गए हैं।

प्रो. बंगाली मिश्र, कुलपति यानि बी.एच.यू. के बंगाली मिसिर न केवल एक विद्रूप व्यंग्य है, मंत्री जी द्वारा प्रदत्त उपकार का बल्कि महामना द्वारा खड़े किए गए पवित्र विश्वविद्यालय के वर्तमान घटिया राजनैतिक हस्तक्षेप का जिसने हिन्दू विश्वविद्यालय में शिक्षक वर्ग में जातीयता और क्षेत्रीयता की बढ़ती प्रवृति की ओर संकेत किया है। एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कालेज से लेकर कार्यालय तक कहीं भी अपने अखिल भारतीय स्वरूप को बचाने में सफल नहीं हो सका। प्राद्यौगिक संस्थान और चिकित्सा विज्ञान संस्थान में भले ही थोड़ा बहुत उसका रूप परिलक्षित होता हो परन्तु अन्य संकायों में स्थानीय लोगों का ही बोलबाला है। लेखक का दावा है कि महज काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही नहीं, सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालय इस दुर्व्यवस्था के शिकार हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय पंजाबियों के, शान्ति निकेतन बंगालियों के, अलीगढ़ मुसलमानों के और हैदराबाद तेलगु आबादी के कब्जे में है। रही सही कसर विद्यार्थियों के प्रवेश और शिक्षकों के चयन में आरक्षण की नीति ने पूरी कर दी है। शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। यह एक कटु सत्य है कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ सौ विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय का नाम दर्ज नहीं है।

इस उपन्यास के ९वें अध्याय के पृष्ठ ११७-११८ पर उद्धृत ऐसा कटु व्यंग्य-सत्य है जो किसी ‘राग दरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल) की शैली से कमतर नहीं है। हमारी सरकारी नीतियां प्रतिभा और गुणवत्ता को प्रभावी ढंग से निरन्तर हतोत्साहित किए जा रही हैं। आधुनिक जीवन शैली अपनाने से किस प्रकार परिवार खोखला, अभावग्रस्त, रिश्वत में लिप्त और भ्रष्टाचार से ओतप्रोत हो जाता है, अध्याय दस में इसका रोंगटे खड़ा कर देनेवाला सजीव चित्र उपस्थित किया गया है।

उपन्यास की रचना में घटनाओं की कल्पनाएं, भले ही वे वास्तविकता का आधार लिए हुए हों, कथोपकथन एवं विवरणों की भाषा एक विशिष्ट शैली के रूप में प्रस्तुत हुई है जिसमें गांव के मेले, खेत-खलिहान, लोकगीतों की मधुरिमा, विभिन्न संबन्धीगणों की भावनाएं और एक-दूसरे के प्रति खेलते हुए दांवपेंच, नगर की चकाचौंध, नारी पात्रों की भावनाओं का प्रकटीकरण प्रांजल रूप में प्रस्तुत हुआ है। पत्नी का निश्छल स्वभाव नायक के जीवन में सावन की रिमझिम की तरह बरसता है, वसंत के कोयल की तरह कूकता है और रातरानी की तरह मीठी खुशबू बिखेरता है – यह उपन्यासकार की अपनी शैली है।

यह उपन्यास गांव की पुरानी स्मृति के प्रस्तुतीकरण पर आधारित है। इस परिवर्तनशील संसार में सबकुछ बदलता है। यदि कभी कुछ नहीं बदलता, तो वह है हमारा निश्छल प्यार – ठीक उपन्यास के नायक और नायिका की भांति। यह उपन्यास पाठकों के मन को झकझोरेगा। संक्रमण संस्कृति के दंश को भोगने की शक्ति प्रदान करेगा और साथ ही सांस्कृतिक बदलाव कैसा हो, इसके लिए विचार-विमर्श की परिस्थिति उत्पन्न करेगा जिससे भविष्य में हमारी संसकृति से मेल खाती सामजिक परिस्थितियां और उन्नति तथा विकास के मापदण्ड स्थापित हो सकें। पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, किन्तु सर्वस्व खो दें और कुछ भी न पाएं, इसी का उहापोह है ‘क्या खोया क्या पाया’। उत्तम छ्पाई, सुन्दर कलेवर तथा सामग्री हेतु इस उपन्यास का साहित्य जगत में स्वागत होगा।

पुस्तक का विमोचन वाराणसी के महमूरगंज, तुलसीपुर स्थित निवेदिता शिक्षा सदन बालिका इण्टर कालेज के भाऊराव देवरस सभागार में लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. देवेन्द्र प्रताप सिंह के करकमलों द्वारा दिनांक २४ फरवरी, २०१२ को संपन्न हुआ।

पुस्तक – ‘क्या खोया क्या पाया’

लेखक – विपिन किशोर सिन्हा

प्रकाशक – संजय प्रकाशन 

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