राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से पनप रहा है आतंकवाद

 

aatankwadप्रो. ब्रह्मदीप अलुने

विश्व में भारत आतंकवाद की प्रयोगशाला के रूप में पहचाना जाने लगा है। इराक, अफगानिस्तान जैसे राष्ट्र गृहयुद्ध से जूझ रहे हैं लेकिन इसके बावजूद आतंकवादी हमलों में मारे जाने वाले लोगों की संख्या में हम उनसे थोड़े ही कम हैं। पहले पंजाब फिर कश्मीर, गुजरात, मुंबई, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंग, असम तथा राजस्थान आतंकवाद की रणस्थली बन गए हैं और अब तो भारत का हर राज्य इसकी चपेट में है। जम्मू कश्मीर में हरकत-अल-अंसार, लश्कर-ए-तैयबा, पंजाब में खालिस्तान लिबरेशन फोर्स, नागालैंड में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आॅफ नागालैंड, असम में उल्फा और बंगलादेशी घुसपैठिये, त्रिपुरा में जनजातीय संगठन, मणिपुर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट, आन्धप्रदेश में पीपुल्स वार गु्रप, तमिलनाडु में लिबरेशन आर्मी जैसे क्षेत्रीय आतंकवादी संगठन है तो इंडियन मुजाहिदीन – सिमी जैसे आतंकवादी संगठनों का प्रभाव पूरे भारत में है। ऐसे में आतंकवाद को समाप्त करना हमारे लिए बड़ी चुनौती हैं। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र होने के नाते लोगों की सुरक्षा राष्ट्र की अहम जिम्मेदारी और प्राथमिकता होना चाहिए। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, राष्ट्रीय मामलों में राजनीतिक दलों के क्षुद्र स्वार्थ और क्षेत्रवाद ने आतंकवाद को निरंतर मजबूत ही किया है। यहां पर विचारणीय पहलू यह भी है कि आतंकवाद से लड़ने के लिए हमारे पास कड़े कानून भी नहीं है। कानून बनाए गए और मानव अधिकारों के नाम पर उन्हें समाप्त कर दिया गया। जबकि आतंकवाद कहीं अधिक घातक, गहरा और शक्तिशाली बन चुका है।

स्वतंत्र भारत में आतंकवाद के खिलाफ निम्नलिखित कानून बने हैं –

1.            मीसा – आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम

बंगलादेश के संकट के कारण उत्पन्न होने वाली नियम व्यवस्था की आतंरिक समस्याओं तथा समाज विरोधी तत्वों की गतिविधियों से निपटने के लिए संसद ने 1971 में आंतरिक सुरक्षा परिक्षण अधिनियम पारित किया गया। जिसे आंतरिक सुरक्षा कानून कहा गया। अधिनियम की धारा 3 केंद्र व राज्य सरकारे को राष्ट्रहित की दृष्टि से किसी भी व्यक्ति को नज़रबंदी और अधिक से अधिक 21 माह तक नज़रबंद रखने जैसे प्रावधान शामिल किए गए। आपातकाल के दौरान मीसा के दुरूपयोग के आरोप केंद्र सरकार पर लगे और इस कानून की खूब आलोचना हुई।

2.            टाडा – टाडा को सर्वप्रथम पंजाब में आतंकवादी गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिए शुरू किया गया था। यह देश में 1985 से 1995 तक प्रभावी रहा। इसके अंतर्गत पुलिस पकड़े गए संदिग्ध आतंकवादियों पर मामला दर्ज करती थी। 1993 में मुंबई में आतंकवादी हमले में संलिप्त दाउद इब्राहिम, टाईगर मेमन और संजय दत्त जैसे आरोपियों पर टाडा के तहत ही मुकदमें चलाए गए। यद्यपि शुरू के वर्षों में इस कानून के आतंकवाद निरोधक सकारात्मक परिणाम देखने को मिले। मगर बाद के वर्षों में इसके दुरूपयोग की खबरें आने के बाद अंततः इसे समाप्त कर दिया गया।

3.            पोटा – 28 मार्च, 2001 को तत्कालीन एनडीए सरकार ने पोटो के स्थान पर पोटा लागू किया। इससे शासन-प्रशासन को आतंकवाद के उन्मूलन में काफी मदद मिली। इसके अंतर्गत देश में किसी भी व्यक्ति को इस कानून के तहत न सिर्फ गिरफ्तार किया जा सकता है, बल्कि कोर्ट में चार्जशीट फाईल किए बगैर ही उसे 180 दिनों तक नज़रबंद भी रखा जा सकता है। पुलिस गवाह की पहचान को गोपनीय रख सकती है। सामान्य भारतीय कानून के अंतर्गत जहां व्यक्ति पुलिस को दिए गए बयान या इकबालिया जुर्म से कोर्ट में मुकर सकता है, वहीं पोटा के अंतर्गत व्यक्ति के पुलिस के समक्ष दिए गए बयान के आधार पर ही उसे दोषी ठहराए जाने का प्रावधान था, मगर बाद में नागरिक संगठनों और मानवाधिकार संगठनों के विरोध के कारण सरकार ने 7 अक्टूबर, 2004 को इसको समाप्त कर दिया।

4.            मकोका.-यह महाराष्ट्र सरकार का कानून है जिसे अंडरवल्र्ड से जुड़े अपराधों पर रोक लगाने के उद्देश्य से 24 फरवरी, 1999 को लागू किया गया था। जहां पोटा में इकबालिया के बयान को ही आरोपी के खिलाफ सबूत माना जाता था, वहीं मकोका में आरोपी का इकबालिया बयान मामले की सुनवाई के दौरान उसके ही नहीं, बल्कि दूसरे आरोपियों को मदद करने वालों और साजिश रचने वालों के खिलाफ भी सबूत के तौर पर मान्य होता है। मकोका का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यदि आरोपी एस.पी. या डी.एस.पी. रैंक के ऊपर के किसी अधिकारी के समक्ष बयान देता है, तो उसके बयान बतौर प्रमाण अदालत में पेश किए जा सकते हैं।

5.            गुजकोका –

यह गुजरात सरकार का विवादास्पद आतंकवाद निवारण बिल है जिसे राज्य विधानसभा ने वर्ष 2003 में में पारित किया था। मगर तमाम विसंगतियों एवं परिवादों के चलते राष्ट्रपति की मुहर न लगने के कारण यह अभी कानून की शक्ल नहीं ले पाया है।

एक अरब इक्कीस करोड़ की विशाल आबादी वाले लोकतांत्रिक देश में गठबंधन सरकारों से जनता तो बेबस है ही राष्ट्रीय दल भी इससे अछूते नहीं है। राष्ट्रीय स्तर के दल आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून को बनाना चाहते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि क्षेत्रीय दलों पर उनकी निर्भरता ने राष्ट्र हित के गंभीर मामलों को भी प्रभावित कर दिया है।

राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एन.आई.ए.) – 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर आतंकवादी हमले से सबक लेते हुए सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एन.आई.ए.) का गठन किया। एन.आई.ए. के अधिकार क्षेत्र हेतु अपराधों की एक नई सूची बनाई गई जिसे अनुसूचित अपराध कहा गया। इसमें मुख्य रूप से आतंकवाद, अंतर्राज्यीय अपराध, हथियारों और मादक पदार्थों की तस्करी, सीमा पर घुसपैठ, गंभीर आर्थिक अपराध, राष्ट्र द्रोह, नामी व्यक्तियों की हत्या, जाली नोट जैसे कार्याें को शामिल किया गया है। एन.आई.ए. अपराधों की जांच बिना किसी इजाजत के अपने हाथ में ले सकती हैं तथा सिर्फ केंद्र सरकार के प्रति जवाबदेह है। एन.आई.ए. को अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया गया है।

अमेरिका की तर्ज पर भारत में भी एन.सी.टी.सी. का गठन कर आतंकवाद के खिलाफ देश में कड़े कानून का प्रयास हाल ही में केंद्र सरकार के द्वारा किया गया। किंतु दुर्भाग्य से विभिन्न राजनीतिक दलों में राष्ट्रीय हितों के प्रति एकजुटता की कमी से यह योजना अधर में लटक गई। इशरत जहां एनकाउंटर केस की गूंज पूरे भारत में है। अफसोस इस बात का है कि देश की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार दो महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां सी.बी.आई. एवं आई.बी. आमने सामने है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि बोधगया आतंकवादी हमले में अलर्ट में कोताही इन्हीं दो जांच एजेंसियों के बीच कड़वाहट का परिणाम है। यह सारा मामला इसलिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि राजनीतिक पार्टीयों की आपसी प्रतिद्वंदिता में देश की सुरक्षा दांव पर लग रही है। लगातार आतंकवादी हमले जनता को तो विचलित कर रहे हैं लेकिन राजनीतिक दल आरोप प्रत्यारोप के बंद दरवाजे में कैद है एवं ऐसा लगता है जैसे जनता को आतंकवादियों के हाथ मरते हुए देखना उन्होंने कबूल कर लिया है। अमेरिका, ब्रिटेन, इजराईल जैसे राष्ट्र अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए आतंकवादियों को नेस्तनाबूद करने को आमादा है, जबकि हम सामाजिक न्याय, धर्म निरपेक्षता, मानव अधिकार और लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर आतंकवादियों का आसान शिकार बन गए है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में आम जनमानस की जागरूकता से ही आतंकवाद से निपटा जा सकता है। अंततः जनता जनार्दन आतंकवादियों के समर्थक राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सामाजिक संस्थाओं व संगठनों का बहिष्कार करें। जनता का यह विरोध आतंकवाद के खिलाफ मजबूत कानून के निर्माण में मददगार तो साबित होगा ही, आतंकवाद की समाप्ति के लिए लोकतांत्रिक जवाब भी हो सकता है।

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