लखवी पर चीन-पाक का पापपूर्ण गठजोड़

lakhviकुछ विशिष्ट कोणों से यदि हम वैश्विक राजनीति का अध्ययन करें, तो दक्षिण एशियाई देशों की राजनीति की छोटी छोटी बातें भी, सम्पूर्ण एशियाई क्षेत्र, या बहुत हद तक विश्व को प्रभावित करनें वाली राजनीति प्रतीत होती है.जकीउर्रहमान लखवी जैसे आतंकवादी के विषय पर पाकिस्तान के स्वक्छंद आचरण को संयमित करनें के उद्देश्य से विशेषतः भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र की बुलाई गई बैठक में चीन नें चर्चा रुकवा कर अपनें अपवित्र मानस को प्रकट कर दिया है. पाकिस्तान में हुई लखवी की रिहाई पर रूस, अमेरिका, फ्रांस सहित कई देशों नें मुखर असहमति प्रकट की थी. आशा की जा रही थी कि पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र में घेरनें के इस प्रयास को पूरा विश्व समर्थन देगा; भारत को व्यापक वैश्विक समर्थन मिला भी किन्तु सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य होनें के नाते प्रबंध समिति में दखल रखनें वाले चीन के विरोध के कारण भारत की यह पहल असफल हो गई. इस दृष्टिकोण से यदि हम आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में लखवी पर चीन का आचरण देखें तो यह अत्यंत शर्मनाक व दुखद है. लखवी के मुद्दे पर भारत के विरुद्ध जाकर चीन ने स्वयं को भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व समुदाय के समक्ष संदेहास्स्पद बना लिया है. वैश्विक राजनीति में पाकिस्तान तथा चीन परस्पर सहयोग का दृश्य प्रस्तुत करते रहें हैं, भारत के विरुद्ध यह गठजोड़ कई मोर्चों पर अपवित्रता तथा अनैतिकता भरा आचरण प्रस्तुत करता रहा है. पहले और अब के पाक-चीन आचरण में जो अंतर है वह अंतर लिहाज या लोकलाज का है; चीन पूर्व में विश्व से आँखों की शर्म बनाए हुए था, किन्तु अब उसनें लोकलाज और शर्म को ताक पर रख दिया लगता है. अब चीन ने आतंकवाद जैसे विषय पर और जकीउर्रहमान लखवी जैसे दुर्दांत तथा घृणित अपराधी के विषय में जैसा आचरण अपनाया है वैसा उससे कतई अपेक्षित नहीं है. बहुत से पुरानें घटनाक्रमों की चर्चा न करते हुए, भारत और चीन के राष्ट्राध्यक्षों की परस्पर देशों में हुई बीते एक वर्ष में हुई उत्साहजनक यात्राओं का अध्ययन करें, तो इनमें आतंकवाद के विरुद्ध एक संकल्प मौखिक व लिपिबद्ध हुआ है! दोनों ही यात्राओं में तथा अन्य अधिकृत राजनयिक यात्राओं, अनुबंधों, दस्तावेजों, घोषणाओं में चीन नें भारत में आतंकवाद के विरुद्ध अपनें संकल्प को सदा दोहराया है. पिछले महीनों में यह भी हुआ कि चीन एवं रूस भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र में रखे जाने वाले उस प्रस्ताव हेतु सहमत दिखे जिसमें – “26/11 के मुंबई हमले समेत देश में हुए दूसरे हमलों में सम्मिलित आतंकवादियों को अपने यहां शरण देने और उन्हें धन, साधन, सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए पाकिस्तान को अलग-थलग करनें तथा आतंकियों को पनाह और वित्तीय मदद देने वालों को दंडित करनें” का संकल्प पारित हो सके. पाकिस्तान के मित्र मानें जानें वाले चीन द्वारा इस्लामाबाद के विरुद्ध इस प्रस्ताव में सहमति करनें से अन्तराष्ट्रीय प्रेक्षक व राजनयिक विश्व सुखद आश्चर्य में था. बीजिंग का यह आचरण सभी को सुखद लगा था. रूस चीन व भारत ने इस बात पर प्रतिबद्धता व्यक्त की थी, कि आतंकी गतिविधियों पर किसी भी तरह का वैचारिक, धार्मिक, राजनीतिक, जातीय, रंग या अन्य किसी प्रकार के बहानें नहीं किये जा सकतें हैं. पिछले महीनों की इन घटनाओं का उल्लेख यहाँ इसलिए हो रहा है क्योंकि हाल ही में चीन द्वारा किया गया पाप पिछले महीनों की इन समस्त पुण्याई पर भारी पड़ गया है. मुम्बई हमलें के घोषित अपराधी और भारत के मोस्ट वांटेड आतंकवादी जकीउर्रहमान लखवी की रिहाई के मुद्दे पर पाकिस्तान पर कार्यवाही करनें की मांग वाले प्रस्ताव का संयुक्त राष्ट्र में चीन ने विरोध किया है. अन्तराष्ट्रीय राजनय के विशेषज्ञों की मानें तो भारत लूजर की स्थिति में आ गया है तथा अब संयुक्त राष्ट्र में कभी भी इस विषय को अपनें स्वयं के दम पर नहीं उठा पायेगा. यद्दपि चीन का जिस प्रकार का आचरण पिछले दशकों में हमनें देखा और भोगा है उसके चलते यह आशंका भारतीय विशेषज्ञों व राजनयिकों में सतत बनी हुई थी, तथापि नरेंद्र मोदी के शासन काल के प्रथम वर्ष पूर्ण होते होते चीन द्वारा भारत का साथ निभानें का मानस बन रहा है ऐसा स्पष्ट प्रतीत भी हो रहा था. चीन जो कि स्वयं भी मुस्लिम आतंकवाद का गहरा शिकार रहा है तथा आतंकवाद के विरुद्ध विश्व भर में बन रहे गठजोड़ों का पक्षधर रहा है उसका लखवी समर्थक रवैया, उसे वैश्विक राजनीति में कई वर्षों तक असहज करता रहेगा और अविश्वसनीय बनाता रहेगा.

वैश्विक राजनयिकों तथा विशेषज्ञों के अनुसार भारत के पास अब केवल एक मार्ग शेष है की वह संयुक्त राष्ट्र के उन स्थायी सदस्यों के साथ, जिनके नागरिक 26/11 के हमले में मारे गए हैं, लखवी का विषय संयुक्त राष्ट्र में उठायें, किन्तु यह लगभग असंभव है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में ऐसा कभी हुआ नहीं है.

अमेरिका के साथ भारत के सुदृढ़ होते सम्बंधो के चलते चीन व पाकिस्तान का इस प्रकार गठजोड़ बनाना कोई नया नहीं है, पाकिस्तान की सामरिक भोगौलिक स्थिति के कारण चीन पाकिस्तान को समय समय न केवल कृतार्थ करता रहा है बल्कि उसे भारत के विरुद्ध वातावरण बनाए रखनें की गतिविधियों हेतु प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष व पवित्र अपवित्र हर साधन का सहयोग भी देता रहा है. पिछले एक दशक से चले इस चीनी अभियान में जो चिंताएं उभरी हैं उनमें एक यह भी है कि चीन, भारत और पाक सम्बंधों के तनाव का समय समय पर लाभ लेना चाहता है अतः उसनें पाक कब्जे वाले कश्मीरी इलाके पर चीन द्वारा एक नई रेल लाइन बिछाने और सड़क मार्ग तैयार करने की योजना पर चीन ने अमल शुरू कर दिया है जो भारत के लिये चिंता की नई बात है. कश्मीर के इस क्षेत्र से चीन अपने शिनच्यांग प्रांत को कराची बंदरगाह से जोड़ने की नई महत्वाकांक्षी योजना पर भी काम कर रहा है. दुनिया की सबसे ऊंची हवाई पट्टी दौलत बेग ओल्डी जो कि पिछले कुछ सालों में तैयार की गई भारतीय वायुसेना की तीन एडवांस लैंडिंग ग्राउंडों में से एक है और जिसे वास्तिवक नियंत्रण रेखा के निकट 16200 फीट की उंचाई पर वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय हमारी जांबाज सेना ने बड़ी मेहनत और खून पसीनें की कुर्बानी देकर बनाया था- पर चीन गिद्ध दृष्टि से देख रहा है. अब इस हवाई पट्टी के करीब चीनी सेना की मौजूदगी सैन्य और सामरिक दृष्टि से बड़ी चुनौती  और ख़तरा हो गई है और यह स्थिति सदा के लिए हमारी सेनाओं के लिए स्थायी सिरदर्द बनी हुई है. पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह में चीनी निवेश, ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध का निर्माण और पाकिस्तान के चश्मा विद्युत परियोजना में चीनी परमाणु रिएक्टर का निर्माण शामिल है ऐसे विषय है जो इतिहास की दृष्टि से अपेक्षाकृत नएं हैं और चीन इन वैदेशिक व राजनयिक मोर्चों की सफलता के माध्यम से इनमें हावी होता जा रहा है. पिछले एक दशक में भारत इस तथ्य को वैश्विक मंच पर स्थापित करनें में दुःखद रूप से विफल रहा कि भारत-चीन सीमा विवाद 4000 किलोमीटर इलाके मैं फैला है, जबकि चीन का दावा है कि इसके तहत अरुणाचल प्रदेश का 2000 किलोमीटर क्षेत्र आता है, जिसे चीन दक्षिणी तिब्बत कहता है. ब्रहमपुत्र नदी के दशकों पुरानें जलविवाद के चलतें रहनें के साथ एक नई चिंता पिछले दशक में भारत के लिए यह भी उभरी है कि चीन ब्रह्मपुत्र के बहाव में रेडियो धर्मी कचरा निरंतर न केवल स्वयं डाल रहा है बल्कि अन्य देशों का परमाणु कचरा भी वह पैसे लेकर ब्रह्मपुत्र में डाल देता है. 

गत एक वर्ष में भारत –चीन के परस्पर दौरों व व्यावसायिक समझौतों के बाद इस प्रकार की घटनाएं एक आश्चर्य ही है, किन्तु इतिहास साक्षी है कि चीन सदा ही भारत के साथ छल पूर्ण व्यवहार करता चला आया है.

पाकिस्तान का साथ देनें के शर्मनाक निर्णय को करते समय चीन के मानस में संभवतः हाल ही में घटित म्यांमार का विषय भी रहा होगा. पाकिस्तान तथा चीन दोनों ही भारत द्वारा म्यांमार के साथ इस प्रकार दो टूक, सख्त  कार्यवाही करनें से सकते में तो आये ही होंगे. भारत का नया संकल्पशील राजनैतिक नेतृत्व इस प्रकार की और भी घटनाओं को चरितार्थ करता रहेगा, यह आशंका इन दोनों राष्ट्रों को रही ही होगी.

चीन के सन्दर्भ में नरेंद्र मोदी सरकार को अब दो पक्षों से सोचना होगा. एक पक्ष तो यह कि चीन के साथ बढ़ते व्यापारिक समझौतों के परिप्रेक्ष्य में सुरक्षा तथा सीमा सम्बंधित मामलों की अनदेखी न हो. वैसे भी भारत-चीन व्यापार भारत की दृष्टि से असंतुलित व एक बड़े विकराल घाटे का व्यापार है. इसके अतिरिक्त भारत-चीन का व्यापार भारतीय उद्योग धंधों विशेषतः भारतीय गृह उद्योग, कुटीर उद्योग व स्थानीय उत्पादन तंत्र को नष्ट भ्रष्ट करनें वाला सिद्ध हुआ है. दुसरा पक्ष यह कि लखवी के सन्दर्भ में संयुक्त राष्ट्र में भारत की पहल को साक्ष्यों की कमी का हवाला देकर भी विफल किया गया है. मोदी सरकार को तथा विशेषतः विदेश मंत्रालय को यह पूर्वानुमान होना ही चाहिए था कि पाक-चीन मिलकर संयुक्त रूप से कुछ नया खिलवाड़ या प्रपंच रच सकतें हैं. इन पूर्वानुमानों तथा आशंकाओं के आधार पर और अधिक सुदृढ़, लीकप्रूफ़ तथा योजना के साथ यदि हम संयुक्त राष्ट्र में लखवी प्रकरण को प्रस्तुत करते तो इस प्रकार की जगहंसाई भी न होती तथा जकीउर्रहमान लखवी को पुनः सीखचों के पीछे भेजनें की योजना भी सफल हो जाती.

 

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