प्रमोद भार्गव
चौतरफा कड़े विरोध और प्रतिकूल राजनीतिक माहौल के चलते केंद्र सरकार ने आखिरकार विवादित भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को समाप्त करने का फैसला ले लिया। फैसले की घोषणा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आकाशवाणी पर प्रसारित होने वाले ‘मन की बात‘ कार्यक्रम में की। वास्तव में मोदी ने किसान-मजदूर के दिल की बात पहली बार इस ‘मन की बात‘ कार्यक्रम के माध्यम से कही है। घोषणा से पहले तक इस भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास कानून-2013 में संशोधन का सवाल मोदी के लिए जीवन-मरण के प्रश्न के साथ,प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बना हुआ था। तय है,संशोधन का मोदी के सिर से यह भूत आसानी से नहीं उतरा। इसके उतरने की कुछ प्रमुख वजह रही हैं,जो खुद मोदी और सत्तारूढ़ राजग गठबंधन के लिए चुनौती बनकर हाल ही में उभरी हैं। इनमें हार्दिक पटेल का आरक्षण आंदोलन एवं बिहार विधानसभा चुनाव प्रमुख हैं। इन चुनौतियों पर यदि मोदी भविष्य में विजय पा लेते हैं तो इस विधेयक में संशोधन की कोशिशें फिर से की जा सकती हैं,क्योंकि विधेयक अभी संसदीय समिति के पास नए सुझावों के लिए सुरक्षित है।
संप्रग सरकार के कार्यकाल में अस्तित्व में लाए गए भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन के उपाय मोदी और भाजपा के लिए मधुमख्खी में छत्ते में हाथ डालने जैसे साबित हुए हैं। इस सिलसिले में मोदी सरकार ने इस कानून में छेड़छाड़ की कोशिश करके पहली गलती की और दूसरी गलती इसे वापस लेकर की। अंततः इस पूरी एक साल की कवायद से यही कहावत चरितार्थ हुई कि ‘लौट के बुद्धू घर को आए‘। हालांकि इस बाबत अध्यादेश फिर से नहीं लाने का जो फैसला लिया है,यही व्यवाहरिक कदम है। भाजपा को इसमें औद्योगिक हित की दृष्टि से भले ही तात्कालिक नुकसान नजर आ रहा हो,लेकिन इसके दीर्घकालिक फायदे ही होंगे। इसके आगे अब सरकार को जरूरत है कि मोदी ने रेडियो पर तीन बार जारी हुए अध्यादेश में संलग्न जिन 13 बिंदुओं को अधिसूचित करने की बात कही है,उन बिंदुओं का भी स्पष्ट खुलासा होना चाहिए,ताकि आशंकाएं दुर हों ? पारदर्शिता के दौर में विवादित मुद्दों को देर तक लटकाए रखना,बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
मोदी सरकार ने केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से ही एक बड़ी भूल की कि अर्थव्यवस्था को गति देने के उपाय सिर्फ एफडीआई और पीपीपी के आमंत्रण में ही अंतर्निहित हैं। लिहाजा भूमि अधिग्रहण की शर्तों को सरल बनाए जाने की दृष्टि से ‘मुआवजा एवं भूमि अधिग्रहण,पुर्नावास तथा पुनस्र्थापन पारदर्शिता विधेयक-2013‘ में संशोधन की कोशिशें पूरी ताकत से की जा रही थीं। इन संसाधनों में औद्योगिक हित साधने की प्राथमिकता थी। इसलिए संपूर्ण विपक्ष समेत राजग के सहयोगी दल शिवसेना और अकाली दल भी इसके विरोध में मुखर हो उठे थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके आनुशांगिक संगठन भी इसके विरोध में थे। तब भी इसे बीते सत्र में पारित कराने की पूरी कोशिश की गई,लेकिन राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं था,इसलिए संशोधित विधेयक अटक गया। अन्यथा यह पारित हो गया होता।
मोदी ने मन की बात करते हुए कहा कि ‘कुछ लोग किसानों को भ्रमित और भयभीत करने में लगे थे। किसान भयभीत न हो,भ्रम भी न रहें। इसलिए सरकार अध्यादेश को फिर से लागू नहीं करेगी।‘ दरअसल,सरकार ने इस मुद्दे से पीछे हटने की पहल किसानों की समस्याओं के निराकरण के संदर्भ ने नहीं की,बल्कि मौजूदा राजनीतिक परिदृष्य में अचानक जो बड़े बदलाव आए हैं,उस परिप्रेक्ष्य में की है। पहला तो यह कि इस मुद्दे और ललित गेट व व्यापमं को लेकर बीता पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। दूसरे,हार्दिक पटेल ने पाटीदार-पटेलों की आरक्षण की मांग करते हुए,जो विशाल आमसभा कर ली और समापन के बाद पूरे गुजरात में जो हिंसा का तांडव रचा,उसने ‘गुजरात माॅडल‘ की हवा निकाल दी। हार्दिक ने अपने भाषण में ‘अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़ों का हवाला देते हुए मंच से दावा किया कि बीते एक साल में अकेले गुजरात में 6000 किसानों ने आत्महत्या की है। जब औद्योगिक रूप से विकसित माने जाने वाले गुजरात में किसान आत्महत्या कर रहे हैं,तो इससे साफ है कि कथित औद्योगिक विकास लोगों को पर्याप्त व सम्मानजनक रोजगार देने में असफल रहा है। तीसरा,दिल्ली विधानसभा चुनाव हारने के बाद बिहार विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बड़ी चुनौती साबित हो रहे हैं। भूमि अधिग्रहण विधेयक के मसले पर बिहार ही नहीं देश के किसानों तक यह संदेश पहुंचा है कि मोदी सरकार किसान-हितैशी नहीं है। गरम होते इस मुद्दे को ठंडा करने की दृष्टि से भी,कदम पीछे खींचे गए हैं। ये कुछ राजनीतिक कारण थे,जिनकी वजह से मोदी सरकार ने इस मसले से पैर पीछे खींचें हैं।
नीति आयोग ने भी सरकार को सलाह दी थी कि भूमि अधिग्रहण का मामला,संविधान की समवर्ती सूची में दर्ज है,इसलिए यह राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है। लिहाजा इससे राज्यों को ही निपटने दिया जाए। बावजूद यह संदेह अभी भी है कि बिहार चुनाव में यदि भाजपा जीत हासिल कर लेती है और पटेल-आरक्षण आंदोलन को काबू में ले लेती है तो चुनाव के बाद बजट-सत्र में भूमि अधिग्रहण विधेयक में एक बार फिर से परिवर्तन के उपाय किए जा सकते हैं। क्योंकि अभी विधेयक राज्यसभा की संयुक्त संसदीय समिति के पास विचारार्थ भेजा गया है। जाहिर है,विधेयक अभी जीवित है। यदि समिति की रिपोर्ट कुछ संशोधनों का सुझाव देती है तो इन सुझावों को संशोधित प्रारूप में शामिल करके,इसे पारित कराने की कोशिश एक बार फिर हो सकती है। क्योंकि भाजपा को यह भ्रम अभी भी बना हुआ है कि औद्योगिक विकास और सकल घरेलू उत्पाद दर में वृद्धि विधेयक में संशोधन किए बिना संभव ही नहीं है।
यदि वाकई कथित औद्योगिक विकास के माॅडल में किसी देश की आर्थिक समृद्धि अंतर्निहित होती तो आज चीन आर्थिक मंदी से नहीं जुझ रहा होता। आस्ट्रेलिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी बीएचपी जो आस्ट्रेलिया में लोह अयस्कों का उत्खनन कर चीन में निर्यात करती है,उसने चीन में निवेश से हाथ खींच लिए हैं। कुछ समय पहले ही चीन के लाॅजिस्टिक पोर्ट के रासायनिक कारखाने में आग लगी और इसमें खड़ी हजारों कारें जलकर खाक हो गई थीं। इस औद्योगिक त्रासदी से उपजे श्रमिकों के असंतोष को अभी तक चीन शांत नही कर पाया है। चीन के बंदरगाहों के श्रमिकों को भी लंबे समय से वेतन नहीं मिल रहा है,इसलिए वे भी खफा हैं। दुनिया में चल रही मंदी के चलते चीन का निर्यात भी थम गया है। तय है,भारत में औद्योगिक विकास में न तो अब अर्थव्यस्था को स्थिर बनाए रखने की क्षमता रह गई है और न ही नए रोजगार के अवसर पैदा करने की क्षमता है। इन हालातों के मद्देनजर यदि हमें सवा अरब आबादी की आहार की आपूर्ति के लिए अनाज चाहिए तो कृषि भूमि के अधिग्रहण पर विराम लगाना होगा। साथ ही,किसान और किसानी से जुड़े मजदूर को गांव में ही रोकना होगा। उसे जीने के बहतरीन अवसर देने होंगे और उसकी आर्थिक सुरक्षा की गारंटी सरकार को लेनी होगी। दुनिया के सभी विकसित राष्ट्र किसानों के साथ यही व्यावहारिक बर्ताव कर रहे हैं। बहरहाल राजग गठबंधन की मोदी सरकार को अब भूमि अधिग्रहण के मुद्दे से हमेशा के लिए दूरी बनाने की जरूरत है। वैसे भी व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दों में बेवजह दखल,टकराव का ही कारण बनता है। इस दखल के हिंसक नतीजे हम सिंगूर,नंदीग्राम और भट्टा पारसौल में देख भी चुके हैं। तो क्यों नहीं सावधानी बरती जाए ?