भूमि अधिग्रहण की समस्या

11
399

डॉ. मधुसूदन —
(एक) उपलब्धि की कीमत:
प्रत्येक उपलब्धि की कीमत होती है। कुछ घाटा कुछ लाभ।
ऐसा कोई भी लाभ नहीं होता, जिसका कोई मूल्य (घाटा) चुकाना ना पडे।
जितनी भी सुविधाएँ आप प्राप्त करते हैं, बदले में, कुछ न कुछ देते हैं।
कठोर परिश्रम के मूल्य पर छात्र ज्ञानार्जन करता है, आगे बढता है। बिना परिश्रम आप मात्र **’बिना ज्ञान, झूठा प्रमाण-पत्र **’ पा सकते हैं।
सार्वजनिक रूप से; रेलमार्ग, महामार्ग, विमान-तल, बिजली,……इत्यादि सुविधाएँ आप भूमि पर ही कुछ न कुछ निर्माण  करके प्राप्त करते हैं। बिना भूमि आप ऐसी सुविधाएँ, कहाँ स्थापेंगे?

(दो) बहु मंज़िला निर्माण से, भूमि बहुगुणित:
वैसे, मनुष्य ने बहु मंज़िला निर्माणों की रचना से, भूमि को बहुगुणित किया है; एक के ऊपर एक दो ही मंजिलों से आप भूमि को दुगनी कर देते हैं। ऐसे छोटे से क्षेत्र क(५० मंजिले बनाकर)५० गुना भी किया जा सकता है। फिर भी कुछ भूमि की कीमत तो चुकानी ही पडती है।
उसी प्रकार, कुछ युक्तियाँ अवश्य अपनाई जा सकती हैं। जैसे, गुजरात में. मोदी जी ने,नर्मदा की नहर के ऊपर ही छत लगाकर, सौर ऊर्जा को बिजली में रूपांतरित करने की योजना सफल की है। सूर्य प्रकाश से कोई पर्यावरणीय हानि भी नहीं। जो भूमि अधिग्रहण से किया जा सकता था,उसे नहर के ऊपर बना दिया।
(क)भूमि बच गयी,
(ख)साथ पानी की भाँप बनकर,
(ग) पानी का अप-व्यय होना भी बच गया।
(घ) और बिजली उत्पादित हुयी।

पर संक्षेप में –कुछ न कुछ देते हैं, तो ही कुछ पाते हैं।
ऐसी कोई उपलब्धि बताइए,जिसमें  कुछ दिए बिना ही प्राप्ति हो जाती हो? ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है।
(तीन) जनता की मानसिकता में बदलाव:

ऐसे व्यावहारिक बदलाव सफल होने के लिए, जनता की मानसिकता में बदलाव आवश्यक होता है। जब जनता जानकार भी होती है, तो, उसका निर्णय मह्त्व रखता है।

पर विरोधी पक्ष ही हमें भरमा रहे हैं। सामान्य भोले जन सोचने का ठेका राजनैतिक पक्षों को दे देते हैं। स्वयं सोचते नहीं है। तो ऐसे लोगों का कल्याण कैसे किया जाए? ऐसे, भोले जन घोषणाओं से, उक्तियों से, नारों से, और झटपट उपलब्धियों के वचनों से प्रभावित होते हैं। (दिल्ली विधान सभा चुनाव में क्या हुआ?)
उन्हें आम चाहिए, अभी के अभी।आम का बीज बोना नहीं है। तो फिर वादों वाली पार्टियाँ जीत जाती है। ६७ वर्षों से वादों पर जी रहे हैं। अंध निर्णय लिए जाते हैं।

ऐसे अंध निर्णयों से देश और भी पिछड जाता है।  रूपयों को छापकर भी समृद्धि नहीं आती। रुपया सस्ता हो जाता है।

(चार) भूमि अधिग्रहण का विरोध मौलिक नहीं।

विरोधी पक्ष देश-हित के बदले विरोध के लिए ही विरोध करे तो समस्या जटिल बन जाती है। सच्चा दीर्घकालीन हितकारी बदलाव घोषणाओं से, या लोक-लुभावन वचनों से नहीं किया जाता। जनता को भरमाया जा सकता है।

इस लिए, देश की जनता  दुविधा  में फँसी  है।
दुविधा इस लिए, कि, हमारे विचारक-चिन्तक-विद्वान-और सुशिक्षित हितैषी-गण भी इस समस्या पर सैद्धान्तिक निर्णय करने में असमर्थ दिखाई देते है।
फिर मात्र विरोध के लिए विरोध करनेवाले सिद्धान्तहीन पक्ष हमारे भारत में अपनी पकड ’येन केन प्रकारेण’ टिकाने के लिए, विरोध जता रहे हैं।समाचार में रहना ही उनके अस्तित्व का प्रमाण माना जाता है।
(पाँच) प्राकृतिक पर्यावरणीय घाटा?
मेरी दृष्टि में अधिग्रहण से बिना हिचक, निश्चित आर्थिक लाभ है। साथ साथ कुछ घाटा है।
पर लाभ का प्रमाण घाटे की अपेक्षा कई लाख गुना अधिक है।
विरोधी घाटे को ही बहुगुणित दिखा कर जनता की आँखो में धूल झोंकनेका काम कर सकते हैं।
अब प्रचण्ड आर्थिक लाभ की सीमित घाटे से किस भाँति तुलना की जाए?
तो पर्यावरण, गांधी, स्वदेशी इत्यादि सामने ला देते हैं।
पर आज की स्थिति में, छोटी छोटी इकाइयाँ आंतर राष्ट्रीय स्पर्धा में टिक नहीं सकती।
एक हजार एकड की खेती पर कितने कृषक जीविका चला सकते है? उस संख्या की तुलना आप उतनी ही भूमि पर उद्योग लगाकर खेती से अनेकानेक-गुनी प्रजा को जीविका प्रदान कर सकते हैं।
कृषकों की आत्महत्त्याएं बचा सकते हैं। वही कृषक उद्योगों में काम पा सकता है।
(छः) नर्मदा बाँध
उदा: नर्मदा के बाँध के कारण गुजरात में काफी उन्नति हुयी है। नर्मदा बांध ने अहमदाबाद में २४ घण्टे पानी उपलब्ध कराया है। कच्छ को और सारे गुजरात को, भी हराभरा करने में योगदान दिया है। {वहाँ कृषक जो कच्छ के रेगिस्तान में कुछ खेती करता था, वह सम्पन्न हो रहा है। (ऐसी, एक युवा ने स्कूटर पर प्रवास कर के गुजराती में लेखमाला लिखी थी।)
साथ साथ कुछ वनवासियों को अवश्य विस्थापित भी होना पडा होगा ही। मुझे उसकी जानकारी नहीं है। यह घाटा अवश्य है, पर उसके सामने समस्त गुजरात को जल की आपूर्ति हुयी है। यह लाभ,घाटे की अपेक्षा कई लाख गुना है।
जिस अहमदाबाद में पानी की घोर समस्या थी,(वहाँ मैं जाता रहा हूँ।)वहाँ आज २४ घण्टे पानी, सपना नहीं वास्तविकता देखी है।ये दिल्ली की भाँति मर्यादित पानी का आश्वासन नहीं, २४ घण्टे पानी का प्रबंध है।

ऐसा कोई भी प्रकल्प नहीं होता, जिसमें हर नागरिक को लाभ हो।
उदाहरणार्थ: देश की रक्षाहेतु सैनिक अपने प्राण देकर भी जब सीमा पर बलिदान देते हैं; तो क्या लाभ उन्हें मिलता है? क्या लाभ मिलता है? बताइए।
संक्षेप में कुछ पाने के लिए कुछ खोना पडता है।
अर्थशास्त्र लाभ का अनुमानित, हिसाब लगाता है। उसका मूल्य भी अनुमानित किया जाता है।
अंग्रेज़ी में (मैं ने युनिवर्सीटी स्तर पर, इन्जिनियरिंग इकनॉमिक्स भी पढाया है।) इसे Benefit-Cost Ratio कहते हैं।

Benefit माने लाभ। और Cost माने कीमत।१००० करोड का लाभ और सामने २०० करोड की कीमत हो, तो, ==>लाभ/कीमत = १०००/२००= ५ हुयी। इस में लाभ, कीमत से पाँच गुना हआ। ऐसे, विश्लेषण के आधार पर स्वीकृति दी जाती है।
नर्मदा बांध के कारण कितना लाख गुना लाभ हुआ होगा। शायद कई करोड गुना?
(सात) साणंद का वाहन उद्योग केद्र:
साणंद में प्रचण्ड उन्नति हुयी है। हजारों एकड भूमि के घाटे के सामने २२००००० (२२ लाख) वाहनों का कुल  निर्माण अनुमान है।
==>समय लगेगा, पर सारे तर्क यही दिशा दिखा रहे हैं। अभी ही २५००० कारे निर्माण हो रही है, प्रतिवर्ष।
इकनॉमिक टाईम्स का उद्धरण:(सारे शब्द समाचार वाले किरण ठक्कर के हैं)
“टाटा मोटर्स यहां अपनी छोटी कार नैनो की मैन्युफैक्चरिंग करती है। साथ ही, फोर्ड इंडिया का प्लांट तैयार हो रहा है, जबकि होंडा मोटर भी यहां प्लांट खोलने की कतार में खड़ी है। सेल्स वॉल्यूम के लिहाज से देश की सबसे बड़ी कार कंपनी मारुति सुजुकी ने अपने दो प्लांट्स के लिए यहां जमीन का अधिग्रहण किया है।”
“………………अगले 6-8 साल में इस इलाके में मारुति, टाटा मोटर्स, फोर्ड इंडिया और होंडा कार्स इंडिया की तरफ से तकरीबन 22 लाख पैसेंजर व्हीकल्स का प्रॉडक्शन होने की उम्मीद है।”

जिस उन्नति की बालटी को मिलकर उठाना है, उसी बालटी में अपना पैर गाडकर हम उन्नति की बालटी नहीं उठा सकते।

गांधी जी का रास्ता आज बिलकुल संभव नहीं लगता। स्वदेशी वाले भी देश हित में सोच कर आलेख प्रकाशित करे। मंच की देश-भक्तिपर मुझे संदेह नहीं।
पर आज स्वतंत्र चिन्तन की आवश्यकता है।
वंदे मातरम्‌

11 COMMENTS

  1. Message received by e mail–FROM Su Shri –SHAKUNTALA BAHADUR

    आदरंणीय मधुसूदन जी ,
    आपके द्वारा भेजे गए दोनों आलेखों के लिये आभारी हूँ । पढ़ तो पहले ही लिये थे किन्तु उत्तर अब दे पा रही हूँ । विलम्ब के लिये क्षमा करें । प्रवक्ता के अन्य लेखों को भी पढ़ने में लग गई थी ।
    १. स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर पूर्व और पश्चिम के जो तुलनात्मक तथ्य आपने प्रस्तुत किये हैं , मेरी उनसे पूर्ण सहमति है । बड़ी ही सहजता से आपने इस संवेदनशील विषय पर प्रकाश डाला है ।
    २. भूमि – अधिग्रहण की समस्या और उसके निवारण के लिए आपने जो सुझाव दिये हैं , वे सकारात्मक हैं । विपक्ष तो विरोध
    के लिये विरोध करता ही रहेगा किन्तु भूमि- अधिग्रहण से होने वाले लाभों की जो जानकारी आपके आलेख से मिल रही है,
    उनके समक्ष हानि तो लगभग अत्यल्प और नगण्य सी प्रतीत हो रही है । किसानों को व्यक्तिगत रूप से इसके लाभ समझाने
    की आवश्यकता है , जिससे विपक्ष उन्हें भुलावे में डाल कर बरगला न सके । गुजरात में स्वयं देखे हुए परिवर्तनों और उनसे
    प्राप्त हुए लाभों का विवरण देकर आपने शासन के पक्ष को बल प्रदान किया है । इससे अधिक और क्या प्रमाण चाहिये ?
    आज तो कुछ परिवर्तनों के साथ, लोक सभा में उस अध्यादेश को पारित करवा के राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भी भेज
    दिया गया है । आगे क्या होता है ? यही जिज्ञासा है । इस बार सफलता मिले – यही कामना है ।
    दोनों ही आलेख , सदा की भाँति , आपके वैदुष्य से अत्यन्त सारगर्भित और प्रभावी रूप में प्रस्तुत हुए हैं । साधुवाद !!
    सादर,
    शकुन्तला बहादुर

  2. भूमि अधिग्रहण एक जटिल समस्या हैं। देश की आर्थिक उन्नति के साथ साथ हमें कृषि और किसानो का भी ध्यान रखना चाइये। भारत एक कृषि प्रधान देश हैं। जब से कांग्रेस सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल बनाया हैं , उस समय से देश में कृषि योग्या भूमि में बहुत कमी आ गयी हैं। बिभिन राज्यों में जितनी भूमि अधिग्रहण की गयी हैं उनमे से लगभग ३८ % भूमि पर कोई विकास नहीं हुया हैं. उन्ही अधिग्रहण भूमि पर माफिया लोगो ने साकार की सहायता से कब्जा कर लिया और फिर माफिया लोगो ने गगनचुमि इमारते बनाकर कई फ्लैट्स का निर्माण कर दिया हैं। जो बहुत ही उच्च दाम पर बेचे गए। गगनचुमी इमारतों को किसानो की भूमि छीन कर बना देना कोई विकास नहीं हैं यह तो राजनैतिक और माफिया लोगो को लाभ पहुचाने वाली बात हैं , यह कोई विकास की बात नहीं हैं। भूमि खो कर कई किसान आय का साधन खो देते हैं या फिर आत्म हत्याए कर रहे हैं या फिर मज़दूरी के लिए फड़कते फिरते हैं यदि एक स्थान से कृषको से भूमि ली गयी हैं तो किसी अन्य स्थान पर किसानो को उतनी ही बड़ी भूमि किसी अन्या स्थान पर दी जानी चाइये ताकि किसान लोग फिर से अपनी खेती वादी का काम कर सके। यदि भूमि वंजर हो तो सरकार को वंजर से उपजाऊ भूमि बनाने के लिए सहायता देनी चाहिये। जितनी भूमि अभी तक अधिग्रहण की जा चुकी हैं उससे कितना विकास हुया हैं , कहना कठिन हैं किन्तु कृषि उत्पादन में बहुत कमी आयी हैं।

  3. धन्यवाद । नमश्कार डॉ  मधुसूदन जी ।

    I like your below phrase:

    “जिस उन्नति की बालटी को मिलकर उठाना है, उसी बालटी में अपना पैर गाडकर हम उन्नति की बालटी नहीं उठा सकते।”

     उपरोक्त एक अखंड सत्य है । अति सुन्दर सत्य आपने लिखा है ।

    If we Indians can learn this -United we stand, India will be great again soon .

    और भूमि अधिग्रहण बिल तो अच्छा है तथा विपक्ष को मिल कर इसे पास करना चाहिए लेकिन किसानों को अपनी उपजाऊ भूमी के बदले उतनी ही या उससे ज्यादा उपजाऊ भूमि उसी इलाके में मिलनी चाहिये क्योंकि मनुष्य की सबसे ज्यादा आवश्यक वस्तु खाद्य पदार्थ हैं ।
    दूसरी सारी सुविधाएं industries, factories, railway lines or any other purpose for which the land is aquired by the government are secondary and subservient to the primary need of food. The farmer should never be compensated with money. Money is subservient to the land.

    I know firsthand many farmers downstream of an industry were compensated few lakhs rupees one time for polluting their well water by an industry and not only that money but no amount of money could restore their water suppy till now. As a result these farmers have been losing their both crops for last many years and they do have their lands but that land yields nothing because their well water is polluted. The point is any industry is second to the agricultural land.

    • आ. दुर्गाशंकर जी–नमस्कार।
      (१) किसी योजना की स्थूल पैमाने पर (Gross level) पहले, स्वीकृति या अस्वीकृति सुनिश्चित की जाती है। पश्चात सूक्ष्मताएं भरी जाती है।
      (२) मोदी जी स्वयं भ्रष्ट नहीं है; यह पारदर्शक सच्चाई हमारे पक्षमें है। (३) पश्चात केंद्रीय सत्ता भी मूलतः मोदी जी के भ्रष्टाचार रहित ही मानता हूँ।– आप गडकरी जी की प्रतिक्रिया भी पढिए।
      (४) फिर, नर्मदा का बाँध, और साणंद का वाहन उद्योग –दोनों की समीक्षा कीजिए( यही संदर्भ उचित है) –अन्य प्रदेशों का इतिहास विशेष अर्थ नहीं रखता।
      (५) जो यंत्रणा मोदी को धरोहर में मिली है; उसी स्वच्छ जिस शीघ्रता से किया जा रहा है; मेरा तो विश्वास ही नहीं होता।

      (६)अनुरोध: आप मेरे लिए आलेख को फिरसे पढें।
      मोदी को काम करना है; जहाँ (क) हमारा ग्रामीण भी १००% जागरूक नहीं है।(ख) भोला नहीं पर, नारों से, और स्थानिक नेताओं के भरमाने पर निर्णय लेता है ऐसा बुद्धु है।
      (ग) आप जो दोष दिखा रहे हैं, वह अधिग्रहण का दोष नहीं लगता, हमारी बुद्धु जनता का है।
      (७) विशेष: मेरा अध्ययन==>संसार के गणतंत्रों में न्यूनाधिक मात्रा में यह दोषा पाया जाता है।पर गुजरात में कच्छ भी जब उपजाऊ हो चुका, अहमदाबाद में २४ घंण्टे पानी, और साणंद की समृद्धि। तो गुजरात की समृद्धि ने राष्ट्रीय आय के औसत में भी तो बढोतरी की है। यह डंके की चोट पर कहूँगा।

      लम्बा हो गया।
      आप स्थूल रूपपर पहले सोचे।
      सूक्ष्मता ओं में कुछ गलत हो भी सकेगा।प्रजाजनों को भी जागरुक रहना होगा। स्वतंत्रता की कीमत यही होती है। भारत ही नहीं, अमरिका, यु. के., जहाँ जहाँ लोक तंत्र है, वहाँ।
      दाल में मिरची है, जहर नहीं। मिरची उठाकर फेंकी जा सकती है। दाल को फेंकने की ज़रुरत नहीं।
      आप को बालटी वाला उदाहरण पसंद आया। धन्यवाद। आप ने समय लेकर टिप्पणी लिखी। मुझे भी सारे बिन्दु स्पष्ट करने पडे।

      क्रुपया टिप्पणी देतें रहे। स्वस्थ रहें, लिखते रहें।

    • धन्यवाद -दुर्गा शंकर जी।

      क्या मैं अनुरोध कर सकता हूँ, निम्न
      “औद्योगिक समवाय और भू-अधिग्रहण”
      नामक आलेख को पढने के लिए।
      फिर आप टिप्पणी भी दीजियेगा।

      https://www.pravakta.com/industrial-samvay-and-land-acquisition

  4. 17.03.2015
    आदरणीय मधु जी
    भूमि अधिग्रहण से भला कोई कैसे असहमत हो सकता है ?
    भूमि तो चाहिए ही। किन्तु कायदे ऐसे तो हांे, जिनसे भूमि मालिक सहमत हो।
    मत भिन्नता, बस इतनी सी है कि आप अन्य उद्योगों की समृद्धि को लेकर चिन्तित है और मैं अन्य के साथ-साथ कृषि उद्योग और कृषि भूमि का अस्तित्व बचाने को लेकर।
    माननीय, अन्य औद्योगिक उत्पाद हमारी बढती जरूरतांे की पूर्ति की जरूरत हैं; किन्तु अन्न-जल के बगैर तो हम जिंदा ही नहीं रह सकते। भला कोई अन्न उपजाने वाली भूमि, भूमिधर और उसकी प्राथमिकताओं की उपेक्षा कर सकता है ?
    आप भारत की आर्थिक समृद्धि को लेकर चिन्तित हैं; मैं समग्र समृद्धि को लेकर। मत भिन्नता यहां है।
    आदरणीय श्री मोदी जी ने भारतीय संस्कृति के अनुरूप ’सबका साथ: सबका विकास’ का नारा दिया है। इस नारे के जरिए भारतीयों ने लंबे अरसे बाद सर्वोदय का सपना देखा है। यह नारा और सपना एकांगी होकर न रह जायें; मेरी यह चिंता है।
    जहां तक मेरे भावुक होने का प्रश्न है; यह भावना नहीं, संवेदना है। भारतीय संस्कृति, संवेदना प्रधान संस्कृति है। भारत में आज भी भूमि को माता, जल को देव कहकर संबोधित किया जाता है। अंग्रेजी में भी भूमि के रिकाॅर्ड में नाम बदलने को ’म्युटेशन’ यूं ही नहीं कहा जाता। ’मयुट’ यानी मृत्यु। मृत्योपरांत भूमि का हस्तानान्तरण। भारतीयों का भूमि से यही रिश्ता रहा है।
    भारतीय संस्कृति में व्यापारी को भी लाभ से पहले, सभी के शुभ की पालना सुनिश्चित करने का निर्देश है। इस ’सभी का’ मंे सिर्फ मनुष्य ही नहीं, प्रकृति के सभी जीवों का शुभ शामिल है।
    बताइये, मंै क्या करुं ?
    सभी का शुभ सुनिश्चित करने वाली ऐसी अद्भुत संस्कृति को नकार दूं ??
    आपका अरुण
    ……………………………………………………….

    • तिवारी जी –नमस्कार।

      (१) ठीक है। सामान्यतः कोई भी योजना स्थूल आयाम में पहले परखी जानी चाहिए। सूक्ष्मताएँ बाद में भरी जाती है।

      (२) मेरा अनेक प्रकल्पों का अनुभव यही कहता है। प्रकल्प अभियांत्रिकी, और निर्णायक पथ पद्धति (Critical Path Method) पढाने का, और प्रयोजन का दोनों का अनुभव मुझे है।

      (३) विपक्ष कृषक के स्वार्थ की पूर्ति के नारों से उसे ललचाकर भटका रहा है। जनता भी, स्वार्थ पूर्ति की लालच से झटपट संगठित होती है।

      (४) आप अपने ९ सुझावों पर सुनिश्चित कर आलेख डालिए,जो आपने मुझे भेजे थे। सबसे ऊपर विधान अवश्य कीजिए, कि, लेखक भूमिअधिकरण से सहमत है। बाद में सूक्ष्मताओं पर विचार कर आलेख विकसित कीजिए।

      जो भी कहना हो, आलेख में कहिए।
      संवाद को विराम देते हैं।

      मैं और टिप्पणी नहीं डालूंगा।

      आप से आलेख की अपेक्षा है।

  5. 16.03.2015
    आदरणीय मधु जी,
    आप विदेश में रहते हुए भी देश के मुद्दों के प्रति सजग रहते हैं। यह अच्छी बात है। आपने लेख पर मेरी राय चाही है। मेरा मानना है कि मेरी राय उतना महत्व नहीं रखती, जितना उन ज़मीन मालिकों की, जिनकी चिंता मुद्दा बन रही है। अतः मेरी राय है कि यदि आप ज़मीन के मुद्दे को सचमुच जांचना चाहते हों, तो आप भारत की जमीन पर आकर ज़मीन के मालिकों से राय लेकर ही जांचे।
    जहां तक आपका प्रश्न है कि किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है ?
    इसके उत्तर में सोचना चाहिए कि आत्महत्यायें विदर्भ और बंुदेलखण्ड जैसे इलाके में क्यों हुई ? यह भी सोचना चाहिए कि गुजरात और राजस्थान जैसे देश के सबसे कम पानी और अनावृष्टि वाले राज्यों में किसानांे ने कभी आत्महत्या क्यों नहीं की ?
    मेरा अनुभव है कि किसानों द्वारा व्यापक आत्महत्यायें वहीं हुईं, जहां जंगल कटे, खनन की अति हुई, चारा नष्ट हुआ और मवेशी घटे। आत्महत्यायें पूरे बुंदेलखण्ड मंे नहीं हुई। वहां सिर्फ खनन और वन माफिया का शिकार बने बांदा, महोबा और चित्रकूट मेें ही हुई।
    जहां भी पर्याप्त मवेशी और पर्याप्त चारा मौजूद हो, वहां किसानों ने व्यापक आत्महत्यायें के उदाहरण कहीं हो, तो बताइये ?? जहां किसान, पहले अपनी घरेलु जरूरत की हर संभव फसल बोने के बाद ही कमर्शियल खेती की सोचता हो, वहां कोई आत्महत्या हुई हो, तो बताइये ??
    अन्यत्र हुई आत्महत्यायों के विश्लेषण में जायें, तो कारण कई हैं। उत्तर प्रदेश के लालगंज (रायबरेली) और (मिर्जापुर) में हुई किसानों की मौत तो गंगा एक्सप्रेस वे के दौरान भूमि अधिग्रहण की मनमानी की वजह से ही हुए। आत्महत्याओं का एक कारण किसान को तकनीकी और व्यापारिक रूप से सक्षम बनाये बगैर कर्ज और बाजार आधारित खेती को प्रेरित करना भी है। बाजार के डूबने से भी कई इलाके के किसानों ने आत्महत्यायें की। महाराष्ट्र इसका पुख्ता उदाहरण है। जिस देश में कारण किसान को आलू सङक पर फंेकना पङे और गन्ने की फसल जलानी पङे, तो किसान आत्महत्या नहीं करेगा, तो क्या करेगा ?? कारण, अतिरिक्त उत्पादन होने पर विपणन, भंडारण और प्रसंस्करण की उचित व्यवस्था व समझ न होना है।
    किसान को आत्महत्या से बचाना है, तो उसकी ज़मीन, मवेशी और चारे को तो बचाना ही होगा। उसे सक्षम बनाना है, तो पहले उस तक बीज, खाद और तकनीक को वाजिब दाम मे पहुंचाना होगा। भंडारण की पर्यापत व्यवस्था करनी होगी। बाजार की समझ पैदा करनी होगी।
    आंकङे बताते हैं कि फल और सब्जियों के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बङा उत्पादक होने के बावजूद, भारत कुपोषित है। यहां कुल उत्पादन की 40 प्रतिशत सब्जियां और फल उपभोक्ता के पास तक पहुंचने से पहले ही सङ अथवा बेकार हो जाते हैं। यह स्थिति उलटनी होगी।
    यदि गांवों का औद्योगीकरण ही करना है, तो आज भी शुद्धता और कारीगरी के इलाकाई ब्रांड की तरह ख्याति प्राप्त ग्रामोद्योग क्यों नहीं ? खेती और कारीगरी आधारित ये ब्रांड आज भी बाजार में आकर्षण के केन्द्र है। इसके लिए बाहर से उद्योगपति को गांव आने की जरूरत कहां है ? इस काम के लिए खुद किसानों और कारीगरों को क्यों न सक्षम बनाया जाये ? इसके लिए ज़मीन का झगङा है ही नहीं।
    समूह आधारित सहकारिता को व्यवहार में उतारकर यह किया जा सकता है। भारत में खेती से बागवानी और बागवानी से खाद्य प्रसंस्करण उ़द्योग मंे उतरे किसान समूहों के महाराष्ट्र और शरद पवार का बारामती क्षेत्र, महिलाओं द्वारा खङे किए सेवा बैंक और लिज्जत पापङ तो इसके बङे उदाहरण है। कभी मध्य प्रदेश के जिला रतलाम के एक छोटे से गांव-तितरी को देख आइये। यूं पूरा गांव ही खेती से समृद्धि की कहानी कहता है। खाने वाले अंगूर की खेती से जंगली अंगूर की खेती मंे आये यहां के मात्र 18 किसानों के समूह द्वारा खङी अम्बी वाइन्स आज विदेशी ब्रांड्स को टक्कर दे रही है। यह गांव आपको बता सकता है कि खेती न छोङने लायक पेशा है और न घाटे वाला।
    सिक्किम में बेबी काॅर्न की खेती और उसकी खरीद तथा प्रसंस्करण हेतु राष्ट्रीय बागवानी मिशन की पहल पर सरकार द्वारा की व्यवस्था को देख आ जाइये, आपको भरोसा हो जायेगा कि खेती, बागवानी, डेयरी, मतस्य आदि अपने आप में एक उद्योग है। इन्हे किसी दूसरे उद्योग के लिए बलिदान करना कम से कम भारत जैसे देश के लिए तो बहुत बङी बेवकूफी होगी।
    आदरणीय मधु जी,
    विरोध न उद्योग का है और न भूमि अधिग्रहण का। विरोध है, ज़मीन की लूट का, उद्योगपतियों को खेती की ज़मीन के लालच का। भारत में जिस तरह सरकार के ही बनाये औद्योगिक, पर्यावरणीय मानको तथा कानूनों की परवाह किए बगैर उद्योग चलाये जाते हैं, विरोध इसका है।
    अवरोध दूर करना है और हर चेहरे को खुशी लौटानी है, तो उद्योग और खेती में संतुलन बनाइये। प्रकृति और मानव निर्मित ढांचांें में संतुलन बनाइये। आर्थिक विकास को समग्र विकास के करीब ले आइये। यही समाधान है। यह मैं नहीं कह रहा, उन विकसित देशों की अगुवई वाला संयुक्त राष्ट्र संघ जैसा संगठन कह रहा है, जिनका उदाहरण सामने रख भारत सरकार, भारत में भूमि अधिग्रहण संशोधनों की तरफदारी कर रही हैं। अपनी मंजिल, अपनी जरूरत, चाहत, सामथ्र्य और परिस्थितियों को समाने रखकर ही तय करनी चाहिए। भारत यह करे। हमेशा चलने लायक रास्ता यही है। इसी से मंजिल मिलेगी; वरना् तो भारत विरोधाभासों मंे ही फंसा रहेगा।
    जय हिंद!
    आपका
    अरुण तिवारी
    ………………………………………………………………………………………………………

    • तिवारी जी–नमस्कार।
      आप ने समय लेकर दीर्घ टिप्पणी दी–हृदयतल से धन्यवाद।
      जिससे, आप की संवेदना व्यक्त होती है।
      ——————————
      पर, इस आलेख का, शीर्षक “भूमि अधिग्रहण” है।
      गौण बिन्दू पर टिप्पणी,विषय से भटका सकती है।
      आप की टिप्पणी का केन्द्रीय विषय अलग है।
      अलग आलेख डालें। मैं जानकारी के अनुपात में,चर्चा में हिस्सा लूँगा।
      तत्वतः भूमिअधिग्रहण से असहमत नहीं दिखते आप।
      डॉ. मधु सूदन

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here